थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, हि. प्र., भारत - रात्रि के तूफान के पश्चात, प्रातः शीतल थी जब परम पावन दलाई लामा मंदिर में अपना आसन ग्रहण करने प्रांगण से होते हुए गुज़रे। उन्होंने तत्काल ही दिन के शास्त्रार्थ प्रदर्शन को प्रारंभ करने के लिए कहा और शेरब गछेल लोबलिंग स्कूल के विद्यार्थियों ने बोधिचित्तोत्पाद की चर्चा के साथ प्रारंभ किया।
"आज हम 'बोधिचित्तविवरण' का पाठ करेंगे" परम पावन ने शुरू किया। "यह विभिन्न दार्शनिक स्थितियों की समीक्षा से शुरू होता है और अंत में सांवृतिक बोधिचित्त की बात करता है, जिसकी चर्चा आप अभी कर चुके हैं।सर्वप्रथम मैं चाहूंगा कि सब 'सत्रह नालंदा पंडितों की स्तुति' का पाठ करें।"
जिस ग्रंथ का पाठ वे करने वाले थे उसका परिचय देते हुए परम पावन ने समझाया कि 'बोधिचित्तविवरण' संक्षिप्त है, पर इसमें बुद्ध की समूची देशनाएँ आ जाती हैं। उन्होंने कहा कि उन्होंने जिस दूसरे ग्रंथ का चयन किया है वह दैनिक अभ्यास के लिए एक प्रारूप के रूप में बोधिसत्व ज्ञलसे थोगमे संगपो का सैंतीस-अभ्यास है।
परम पावन ने कहा कि नागार्जुन का एक अन्य ग्रंथ, 'रत्नावली' उन अभ्यासों के बीच अंतर स्पष्ट करता है जो श्रेयस अथवा या बेहतर पुनर्जन्म का कारण बनते है और वे जो मुक्ति की ओर ले जाते हैं। उन्होंने कहा कि चूंकि सभी धर्म हमें प्रेम और करुणा विकसित करने और अन्य मनुष्यों की सहायता करने के लिए प्रेरित करते हैं, इसलिए उनका अभ्यास बेहतर पुनर्जन्म प्रदान करने की गुणवत्ता रखता है। तत्पश्चात उन्होंने आर्यदेव के 'चतुःशतक' को उद्धृत किया:
प्रथम पुण्यहीन को रोकें
उसके बाद रोकें आत्म के;
तत्पश्चात सभी प्रकार की दृष्टि रोकें।
जो भी यह जानता है वह प्रज्ञावान है।
सबसे पहले नागार्जुन परमार्थ बोधिचित्त को संदर्भित करते हैं, उस चित्त को नहीं जो मात्र शून्यता को प्रत्यक्ष रूप से समझता, पर वह जागरूकता जिसमें से सभी चित्त की सभी स्थूल अवस्थाओं की समाप्ति हो जाती है और केवल प्रभास्वरता शेष रहती है।
ग्रंथ का त्वरित पाठ करते हुए परम पावन ने उन छंदों की ओर ध्यान आकर्षित किया जो अबौद्ध दृष्टि का खंडन करते हैं, जहाँ वे चित्त मात्र परम्परा की दृष्टि को चुनौती देते हैं और जहाँ वे अस्तित्व को मात्र ज्ञापित रूप में बल देते हैं:
चित्त मात्र एक नाम है;
अपने नाम के अतिरिक्त यह शून्यता रूप में अस्तित्व रखती है;
चेतना को मात्र एक नाम रूप में देखें;
नाम की कोई स्वभाव सत्ता नहीं है।
उन्होंने उस ओर भी ध्यानाकर्षित किया जहां पाठ का संबंध प्रबुद्धता के लिए एक परोपकारी उद्देश्य से बोधिचित्त से संबंधित है और आगे जहाँ वह बुद्ध के बारह कर्मों की रूपरेखा देता है। जब वे निम्नलिखित छंद पर पहुंचे:
करुणा का एक स्वाद पुण्य है;
शून्यता का स्वाद सर्व उत्कृष्ट है;
वे लोग जो (शून्यता का अमृत) का पान करते हैं
आत्म और पर कल्याण का अनुभव करने हेतु, वे जिन संतान हैं,
परम पावन ने टिप्पणी की, "मैं इसी अभ्यास के पालन का प्रयास करता हूँ और मेरे मित्र भी हैं जो ऐसा करते हैं। हम पाते हैं कि यह बहुत लाभकारी है। चूंकि, आपके पास इसका अवसर है, आप भी इसका अनुसरण करने का प्रयास कर सकते हैं। यदि हम कारणों के आधार पर धर्म का पालन करें तो यह दीर्घ काल तक बना रहेगा - और वह वास्तविक संतोष का स्रोत होगा।"
फिर उन्होंने सभा का बोधिचित्तोत्पाद के लिए एक साधारण समारोह में नेतृत्व किया। अंत में उन्होंने हर किसी से अपील की कि वे दस मित्रों के साथ मानवता की एकता का विचार साझा करें और गणना की कि उनमें से अगर प्रत्येक ऐसा करे तो परिणाम संदेश को दूर तक फैलाना होगा।
यद्यपि उन्होंने घोषणा की कि प्रवचन समाप्त हो चुके हैं, पर परम पावन मंदिर में रुके, पहले यात्रा कर रहे थाई आचार्य, उनके भिक्षुओं और अनुयायियों से मिलने और फिर सभी तिब्बती छात्रों के समूहों से मिलने जिन्होंने उनके साथ तसवीरें खिंचवाईं। इसके उपरांत मित्रों व शुभचिंतकों का अभिनन्दन करते हुए वे अपने निवास स्थल लौट गए।