पेरिस, फ्रांस, १४ सितंबर २०१६ - आज प्रातः जब परम पावन दलाई लामा फ्रेंच सेनेट के लिए गाड़ी से रवाना हुए तो नभ हलके बादलों से सजा था और प्रातः की प्रथम किरणें पेरिस के वैभवशाली भवनों को सुनहरे तारों से संवार रही थीं। वे तीस सेनेटरों और सहायक अधिकारियों के साथ एक अनौपचारिक नाश्ता बैठक में सम्मिलित होने आए थे, जो सीढ़ियों पर उनके अभिनन्दन के लिए पंक्तिबद्ध होकर खड़े थे। सेनेटर मिशेल रेइसां ने परम पावन का स्वागत किया और उन्हें संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया।
"भाइयों और बहनों, यहाँ आना और आप सब से मिल पाना यह वास्तव में मेरे लिए एक महान सम्मान की बात है," उन्होंने कहा। "मैं तिब्बत के लिए आपके चिंता की सराहना करता हूँ, जो कि एक न्यायोचित मुद्दा है। प्रारंभ से ही हमने इसके लिए एक अहिंसक दृष्टिकोण अपनाया है। वास्तव में हाल ही में हुए आत्मदाह अपने संघर्ष में दूसरों को हानि न पहुँचाने के तिब्बतियों के निरंतर दृढ़ संकल्प को स्पष्ट करते हैं।
"हमारे सभी मित्र जानते हैं कि, हमारे अतीत के इतिहास के बावजूद, हम चीन से स्वतंत्रता या अलगाव की मांग नहीं कर रहे। हाल ही के वर्षों में हमने चीनी में हमारे मध्यम मार्ग दृष्टिकोण के समर्थन और चीनी सरकार की नीति की आलोचना पर लगभग एक हजार लेख देखे हैं। हाल ही में मैं हमारी स्थिति से परिचित चीनी विद्वान से मिला, जिसने मुझसे कहा था कि शिनजियांग के लिए इस तरह का एक दृष्टिकोण अपनाना अच्छा होगा।"
परम पावन ने उल्लेख कि वे यूरोपीय संघ की भावना से कितने प्रभावित थे, जो यह बताता है कि अपने अतीत को पीछे छोड़ और एक नई वास्तविकता के लिए अनुकूल कर लेना संभव है। उन्होंने अपने एक समय के भौतिक विज्ञान शिक्षक कार्ल फ्रेडरिक वॉन वीज़ाकेर का स्मरण किया जिन्होंने उनसे कहा था कि उनके बाल्यकाल में प्रत्येक फ्रेंच दृष्टि में एक जर्मन एक दुश्मन था और जर्मन लोग फ्रांसीसियों को लेकर इसी प्रकार की सोच रखते थे। अब ऐसा नहीं है; सब कुछ बदल गया है। उन्होंने आशा व्यक्त की, कि यूरोप की भावना अंततः रूस, अफ्रीका और एशिया तक फैलेगी। उन्होंने कहा कि विश्व का यही भविष्य है, क्योंकि हमें एक परिवार की भांति रहना है और यूरोपीय संघ की भावना एक दृष्टांत है कि यह किस तरह किया जा सकता है।
"यह बहुत ही सहायक है कि आप तिब्बत के लिए चिंता व्यक्त करने में सक्षम हैं। जब आप को अवसर मिले, तो कृपया अपने चीनी समकक्षों को अपने समर्थन के बारे में बताएँ। चीन की पीपुल्स रिपब्लिक अभी भी उसी व्यवस्था के अनुसार उसी पार्टी द्वारा चला रही है, पर फिर भी वहाँ परिवर्तन हो रहे हैं। यहाँ तक कि कट्टरपंथी भी स्वयं को दुविधा में पाते हैं, वे एकता में समन्वय की बात करते हैं पर फिर भी अभी तक उनकी नीतियों ने इन दोनों में से एक को भी प्राप्त नहीं किया है। मैं कभी कभी सोचता हूँ कि क्या इन कट्टरपंथियों के दिमाग में वह भाग नहीं है जो आम भावना को नियंत्रित करता है।
"जैसे जैसे अधिक चीनी छात्र व पर्यटक आते हैं और मुक्त विश्व का अनुभव प्राप्त करते हैं, वे सीख सकते हैं कि चिंतन तथा बोलने की स्वतंत्रता रखते हुए हम सभी समान रूप से मानव हैं। विश्व के प्रति एक मुक्त भावना रखना चीन के हित में है और वे जब ऐसा करेंगे तो उनका योगदान मूल्यवान होगा।"
परम पावन ने सेनेटरों और सहायक अधिकारियों को प्रश्न रखने के लिए आमंत्रित किया और उनमें से पहला तिब्बत के प्राकृतिक वातावरण से संबंधित था। उन्होंने उन्हें चीनी पर्यावरण विज्ञानी के बारे में बताया जिसने स्थापित किया है कि तिब्बती पठार के जलवायु का प्रभाव उत्तर और दक्षिण ध्रुवों जितना अधिक है और इसलिए उन्होंने तिब्बत को तृतीय ध्रुव के रूप में संदर्भित किया। परम पावन ने वनों की कटाई और जिस तरह से खनन के लिए स्थानीय तिब्बतियों की आपत्तियों को खारिज कर दिया गया है उसका उल्लेख किया। उन्होंने आगे कहा कि वे प्रायः सिफारिश करते हैं कि संसदीय समूह तिब्बत जाएँ और स्वयं देखें कि पर्यावरण का क्या हो रहा है।
अगले दलाई लामा के बारे में उन्होंने घोषणा की, कि १९६९ के प्रारंभ में ही उन्होंने कहा था कि एक और दलाई लामा होंगे अथवा नहीं उसका निर्णय तिब्बती लोगों को करना है। चूंकि चीनी अधिकारी उनके स्वयं की अपेक्षा उनके उत्तराधिकारी को लेकर चिंतित हैं, तो हँसी में उन्होंने कहा कि उन्हें पहले माओत्से तुंग और देंग जियाओपिंग के पुनरावतार की पहचान करनी चाहिए।
सीनेट से परम पावन कोलेज डे बेरनाडिंस गए, जहाँ फ्रांस के कैथोलिक चर्च के प्रमुख, कार्डिनल आंद्रे विंग-ट्रॉइ ने उनका स्वागत किया। उस अत्यंत मनोरम प्राचीन भवन के अंदर उन्होंने फ्रांस के बड़े रबाई, कार्डिनल, श्री हैम कोर्सिया, फ्रांस में फेडेरेशन प्रोटेस्टेंट के अध्यक्ष श्री फ़्राँस्वा क्लावैरोली, फ्रेंच काउंसिल ऑफ द मुस्लिम फेथ के प्रमुख अनुअर बिबेछ, फ्रांस में ऑर्थोडॉक्स चर्च के प्रमुख, मेट्रोपोलिटन एमान्युअल और फ्रांस में य़ूनियन ऑफ बुद्धिस्ट्स के अध्यक्ष ज़ेन मास्टर ओलिवर वांग-गेन के साथ चर्चा की।
परम पावन ने अंग्रेजी में बोलते हुए इस ओर इंगित करते हुए प्रारंभ किया कि आज हम कई तरह की समस्याओं का सामना कर रहे हैं जिनमें से कई हमारी अपनी निर्मित हैं। इसका कारण यह है कि हम नकारात्मक भावनाओं के अधीन हो जाते हैं। इसलिए, हमें अपनी बुनियादी मानव प्रकृति, जो वैज्ञानिक बता रहे हैं कि करुणाशील है, के विकास हेतु उपाय खोजने होंगे।
"इस क्षण" उन्होंने कहा, "हम शांति और मैत्रीपूर्ण संगति का आनंद ले रहे हैं, जबकि अन्य स्थानों पर आस्था के मतभेद को लेकर लोग मारे जा रहे हैं, चाहे वह इराक, सीरिया या यमन, अफगानिस्तान, पाकिस्तान या बंग्लादेश हो। हम इसे अनदेखा नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसा करना अनैतिक होगा और इसमें सह मानव हैं। हत्या तो बुरी है ही परन्तु धर्म के नाम पर हत्या भयानक है।
"अंतर्धार्मिक सद्भाव को प्रोत्साहित करने के लिए मैं १९७० दशक के उत्तरार्ध से तीन बातों का पालन कर रहा हूँ: धार्मिक विद्वानों से भेंट और उनसे विचार विमर्श करना कि किन बातों में हम मतसाम्य रखते हैं और कहाँ हम में मतभेद हैं और उस अंतर का उद्देश्य क्या है। मैं उनके अनुभव से सीखने के लिए आध्यात्मिक साधकों से भी मिला हूँ। उदाहरण के लिए, मोंटसेराट में मैंने एक कैथोलिक भिक्षु से भेंट की, जो पाँच वर्ष से पहाड़ों में एकांतवास में थे और जिन्होंने चाय तथा डबल रोटी से थोड़ा ही अधिक खाया था। जब मैंने उनके अभ्यास के विषय में पूछा तो उन्होंने बताया कि वे प्रेम पर ध्यान कर रहे थे और जब वे बता रहे थे तो मैंने उनकी आँखों में सच्चे सुख की चमक देखी। मेरी अद्भुत मुसलमान अभ्यासियों के साथ भी इसी तरह मुलाकातें हुई हैं।
"मेरा तीसरा अभ्यास अन्य लोगों के पूजा स्थलों की तीर्थयात्रा करना है। यह मैंने सारनाथ, वाराणसी, भारत में प्रारंभ किया, जहाँ मैंने प्रार्थना समर्पित करने के लिए क्रमशः मस्जिद, गिरजाघर, मंदिरों और गुरुद्वारे की यात्रा की।"
परम पावन ने ज़ोर देते हुए कहा कि ऐसी सूचनाएँ, जो मुस्लिम आतंकवादी या बौद्ध आतंकवादी कहकर संदर्भित करती हैं, गलत हैं क्योंकि हिसक आतंकवादी न मुसलमान और न ही बौद्ध रह जाते हैं। वे धर्म के अनुयायी नहीं रह जाते। इन कुछ लोगों की शरारत के कारण सम्पूर्ण मुसलमान अथवा बौद्ध समुदायों पर दोषारोपण करना भी गलत है।
"मैं विगत ५७ वर्षों से भारत में रह रहा हूँ," परम पावन ने समझाया। "और भारत में मुसलमानों की आबादी जो कि पाकिस्तान से भी अधिक है, लंबे समय से अन्य धार्मिक समुदायों के साथ सद्भाव में रहती आई है। विश्व के सभी प्रमुख धर्मों, पारसी, यहूदी, ईसाई और इस्लाम के सदस्य हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख समुदाय के साथ पनपते हैं। यदि वे विश्व के दूसरी सबसे अधिक जनसंख्या वाले देश में यह कर सकते हैं तो विश्व के अन्य भाग भी उस तरह से क्यों नहीं रह सकते?"
उन्होंने टिप्पणी की कि जहाँ अतीत में साधारणतया एक सत्य और एक धर्म के संदर्भ में सोचना उपयुक्त रहा हो, वह केवल व्यक्तिगत साधना के स्तर पर सत्य हो सकता है। परन्तु व्यापक समुदाय और वैश्वीकृत दुनिया, जिसमें हम रहते हैं, के संदर्भ में कई सत्यों और धर्मों की बहुलता को स्वीकार करना अधिक महत्वपूर्ण है।
कोलेज डे बेरनाडिंस ने पैनल के सभी सदस्यों को मध्याह्न के भोजन के लिए आमंत्रित किया जिसके बाद वे तितर-बितर हो गए। परम पावन दलाई लामा गाड़ी से आइएनएलसीओ, द नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ ओरियंटल लेंग्योजेस एंड सिविलाइज़ेशन्स गए। आगमन पर उनका स्वागत अध्यक्ष, मेन्यूएल्ले फ्रैंक और भोट भाषा संकाय के सदस्य, फ्रेनकोइ रॉबिन ने किया। युवा तिब्बतियों ने एक पारम्परिक स्वागत समर्पित किया और सभागार में उनका अनुरक्षण किया, जहाँ भोट भाषा के छात्रों ने भोट भाषा में मंगल छंदों का पाठ किया।
अपने स्वागत शब्दों में, मेन्यूएल्ले फ़्रैंक ने उल्लेख किया कि आइएनएलसीओ, जो सोरबोन विश्वविद्यालय का भाग है, ने १८वीं सदी में भाषाओं का शिक्षण तथा मानवतावाद और सम्मान को बढ़ावा देना प्रारंभ किया। फ्रेनकोइ रॉबिन ने स्पष्ट किया कि आइएनएलसीओ १८४२ से भोट भाषा की शिक्षा दे रहा है तथा भाषा के मूल्य व स्थान को भली भांति समझता है। उन्होंने कहा कि ऐसे समय जब भोट भाषा और सभ्यता को अपने ही देश में अल्पसंख्यक बना दिया गया है, परम पावन की यात्रा एक महान सम्मान की बात थी।
"भोट भाषा और जिस तरह से वह लिखी जाती है वह विश्व की सबसे प्राचीन भाषाओं में से एक है।" भोट भाषा में बोलते हुए परम पावन ने २०० श्रोताओं को बताया। आज की वास्तविकता में यह जानना महत्वपूर्ण है कि अधिकांश बौद्ध साहित्य, जो संस्कृत में उपलब्ध था वह अभी भी भोट भाषा में उपलब्ध है। शांतरक्षित का अनुसरण करते हुए तिब्बतियों ने दीर्घ काल से कारण और तर्क के माध्यम से दर्शन का अध्ययन किया है। आजकल हम विज्ञान, दर्शन और धर्म के संदर्भ में कांग्यूर और तेंग्यूर संग्रह का पुनर्मूल्यांकन कर रहे हैं। नालंदा परम्परा चित्त और भावनाओं के प्रकार्यों के प्राचीन भारतीय ज्ञान का कोष थी।
"शांतरक्षित,जो एक दार्शनिक और स्वयं एक तर्कशास्त्री थे, ने तिब्बतियों का न केवल दर्शन अपितु प्रमाण और तर्क से भी परिचय कराया। उनके द्वारा दी गई अध्ययन की कड़ी परम्परा को तिब्बतियों ने कायम रखा है। यदि हम यह बनाए रखें, तो तिब्बती भाषा, धर्म और संस्कृति भविष्य में चिर काल तक बनी रह सकती है। परन्तु दुर्भाग्य से, जो कुछ भी विशिष्ट रूप से तिब्बती है, चीन के कट्टरपंथी तत्व उसके संरक्षण को चीन से अलगाव का प्रबल रूप मानते हैं। परिणामस्वरूप हमें न केवल बोलचाल अपितु शास्त्रीय भोट भाषा और नालंदा के तेरह शास्त्रीय ग्रंथों के अध्ययन को लेकर निष्ठावान होना चाहिए। मेरा मानना है कि बौद्ध दर्शन का अध्ययन करने के लिए जिस कारण और तर्क के उपायों का हम उपयोग करते हैं उन्हें उपयोगी ढंग से अन्य विषयों पर भी लागू किया जा सकता है।"
एक छात्र द्वारा पूछे जाने पर कि त्रिपिटक का अध्ययन करने के लिए विश्व में सर्वश्रेष्ठ स्थान कहाँ है, परम पावन ने उत्तर दिया कि तिब्बत में अभी भी महान विहार हैं पर उनमें बहुत कम शिक्षक हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि १९५९ में कई बहुश्रुत विद्वान थे पर उसके बाद जो हुआ, वे गायब हो गए - कुछ को बन्दी बना लिया गया - कुछ की हत्या कर दी गई। उन्होंने कहा कि आज दक्षिण भारत के पुनर्स्थापित विहारों में विद्वान हैं जिन्होंने १०,००० भिक्षुओं और भिक्षुणियों के लिए पारम्परिक कठोर अध्ययन की प्रक्रिया का अनुपालन किया है। जिस तरह भिक्षुणियाँ अध्ययन कर रहीं हैं, उनमें से जिन्होंने योग्यता प्राप्त कर ली है उन्हें इस वर्ष गेशे-मा की उपाधि से सम्मानित किया जाएगा।
अंत में, परम पावन ने समझाया कि किस तरह ४० वर्ष पूर्व वह प्राकृतिक विज्ञान के बारे में अधिक जानने के लिए उत्सुक थे और मित्रों से सलाह मांगी। एक अमेरिकी, जिसने बौद्ध धर्म का अध्ययन किया था, ने उन्हें सावधान रहने के लिए सचेत किया क्योंकि उसके अनुसार "विज्ञान धर्म का हत्यारा है।" उन्होंने इसके विषय में बुद्ध के शंकाकुल होने की सलाह के संदर्भ में सोचा कि उन्होंने जो कहा उसे ऐसे ही स्वीकार न किया जाए पर उसका परीक्षण और जांच की जाए, जिस तरह से एक स्वर्णकार सोने की जांच करता है। उन्होंने वैज्ञानिकों के साथ संवाद प्रारंभ किया और ३० वर्षों से अधिक के बाद पारस्परिक लाभ स्पष्ट है।
आइएनएलसीओ से परम पावन गाड़ी से हवाई अड्डे गए और वहाँ से स्ट्रासबर्ग के लिए एक उड़ान भरी, जहाँ वे प्रवचन और एक सार्वजनिक व्याख्यान देने वाले हैं।