ओसाका, जापान, १३ मई २०१६ - चूँकि यह उनके द्वारा ओसाका में दिए जा रहे प्रवचनों की श्रृंखला में अंतिम दिवस था, परम पावन दलाई लामा २७०० संख्या के दर्शकों में कई समूहों से मिले जिन्होंने उऩके प्रवचनों में भाग लिया था। उन्होंने हज़ार संख्या वाले एक समूह से प्रारंभ किया, जिनमें ताइवान से अधिकांश महिलाएँ थीं।
एक बार पुनः उन्होंने अध्ययन तथा अपनी बुद्धि के अच्छे प्रयोग के महत्व पर बल दिया। उन्होंने कहा कि यह सुनिश्चित करने का सर्वोत्तम उपाय, कि हमारी शिक्षा और बुद्धि का सकारात्मक उपयोग किया जा रहा है, सौहार्दता का विकास है। टिप्पणी करते हुए कि वैज्ञानिकों को प्रमाण मिल रहे हैं, जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि आधारभूत मानव स्वभाव दयालु तथा सौहार्दतापूर्ण है, उन्होंने सुझाव दिया कि यदि हम इन गुणों का पोषण करने हेतु तरीके खोज सकें तो हम एक अधिक दयालु तथा और अधिक शांतिपूर्ण विश्व का निर्माण कर सकते हैं।
"बुद्ध और नालंदा परम्परा के अनुयायियों के रूप में हमने एक शांत चित्त को विकसित करने तथा आंतरिक शांति उत्पन्न करने के लिए जो सीखा है उसका उपयोग करना चाहिए।
"आप सभी ताइवान से हैं," उन्होंने आगे कहा। "मैंने कई बार यात्रा की है और यह देखकर प्रभावित हुआ हूँ कि यह देश कितनी अच्छी तरह से व्यवस्थित है। आप प्राचीन चीनी संस्कृति के वारिस हैं और बुद्ध धर्म में रुचि ले रहे हैं, जो बहुत अच्छा है। राजनीतिक कारणों से मैं हाल ही में पुनः आने में असमर्थ हूँ। जब मा यिंग- जेओ ताइपे के महापौर थे तो उनका व्यवहार मैत्रीपूर्ण था, पर एक बार जब वे राष्ट्रपति बने तो दूरी आ गई। यह समझ में आता है और मैं किसी को असुविधा में नहीं डालना चाहता। मेरी ओर से मैं आने के लिए तैयार हूँ, परन्तु मैं सरकार को परेशान करना नहीं चाहता।"
परम पावन की टिप्पणी का उत्तर सराहना से मिला और दर्शकों में उनके साथ व्यक्तिगत रूप से जुड़ने के लिए कइयों की भीड़ लग गई।
लगभग खाली प्रवचन सभागार में लौटकर परम पावन ने जो मंजुश्री अनुज्ञा देनेवाले थे उसकी तैयारी में ४० मिनट बिताए। जैसे जैसे उन्होंने प्रारंभिक अनुष्ठान पूरे किए सभागार क्रमशः भरता चला गया। जब उन्होंने समाप्त कर लिया तो जापानी भिक्षुओं का एक समूह जापानी में 'हृदय सूत्र' का जाप करने हेतु उनके समक्ष बैठा। उनके बाद चीनी भिक्षु तथा भिक्षुणियाँ थीं जिन्होंने मंदारिन में उसी पाठ का पाठ किया।
परम पावन ने सूत्र के कथन को दोहराया कि अतीत के सब बुद्धों ने शून्यता की समझ विकसित की और भविष्य के सभी बुद्ध और बोधिसत्व भी ऐसा ही करेंगे। इसके अतिरिक्त उन्होंने पञ्च स्कंधों की भी स्वभाव सत्ता की शून्यता के संदर्भ में शब्द 'भी' का उल्लेख किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि इस बात का महत्व यह है कि प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन में केवल धर्म नैरात्म्य की बात आती है जबकि द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन ने पुद्गल नैरात्म्य का भी उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि यह कथन कि, रूप शून्यता है, शून्यता रूप है इस बात की पुष्टि करता है कि रूप सांवृतिक रूप से अस्तित्व रखता है यद्यपि इसमें स्वभाव सत्ता का अभाव है।
परम पावन ने समीक्षा की कि किस तरह हृदय सूत्र मंत्र, 'तद्यथा गते गते पारगते पारसंगते बोधि स्वाहा' अभ्यासियों को पाँच मार्गों से होते हुए आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता है।
गते - संभार मार्ग
गते - प्रयोग मार्ग
पारगते - दर्शन मार्ग
पारसंगते - भावना मार्ग
बोधि स्वाहा -अशैक्ष्य मार्ग
"आज हमें बोधिसत्व संवर लेने का अवसर मिलेगा," परम पावन ने समझाया और अतीश की 'बोधिपथप्रदीप' से एक श्लोक यह बताने के लिए उद्धृत किया कि क्यों उसके पूर्व वे उपासक के व्रत भी प्रदान करने वाले थे।
जो सात प्रतिमोक्ष संवर गोत्र में से
किसी एक संवर का पालन करते हैं,
वे बोधिसत्व संवर के भागी हैं
दूसरे नहीं।"
उन्होंने किसी के प्राण न लेने का, जो दान में दिया न गया हो उसे न लेने, बहुत बड़ा झूठ न बोलने, व्यभिचार न करने और मादक द्रव्यों में लिप्त नहीं होने के संवरों को रेखांकित किया। शराब पीने के संबंध में, उन्होंने लिंग रिनपोछे की इस प्रतिज्ञा देने की एक कहानी सुनाई, जब वे संवर दे रहे थे और उन्हें एक बुजुर्ग तिब्बती का सामना करना पड़ा जिसने उनसे कहा कि वे पूरी तरह से शराब छोड़ नहीं पा रहा था। उन्होंने उसे सलाह दी कि वह कम से कम नशे में धुत न हो। परम पावन ने यह भी इंगित किया कि जहाँ इस तरह का एक दिन का संवर था वहाँ यह संवर जीवन भर के लिए होता है।
परम पावन ने विधिवत उपासक के संवर के साथ बोधिसत्व संवर और उसके बाद मंजुश्री अनुज्ञा के साथ उनकी प्रार्थना और मंत्र प्रदान किया। उन्होंने कहा कि वह उन्हें खुनु लामा रिनपोछे, तगडग रिनपोछे, लिंग रिनपोछे और ठिजंग रिनपोछे से प्राप्त हुई थी। प्रार्थना के विषय उन्होंने खुनु लामा रिनपोछे की कथा का स्मरण किया कि भारत के कई पंडितों को मंजुश्री की स्तुति लिखने का साधिकार दिया। जब उनमें से प्रत्येक ने अपनी प्रतिलिपि प्रस्तुत की तो पाया गया कि उनमें से प्रत्येक रचना दूसरों की रचना से मेल खाती थी।
मध्याह्न भोजनोपरांत एक घंटे के प्रश्नोत्तर के दौरान परम पावन ने समझाया कि ईसाइयों के लिए बौद्ध धर्म के पहलुओं का अध्ययन करना उपयुक्त था, चूँकि धार्मिक परम्पराएँ एक ही संदेश का सम्प्रेषण करते हैं। वे सभी प्रेम, क्षमा, सहनशीलता, संतोष और आत्म अनुशासन इस तरह के गुणों की सराहना करते हैं और एक परम्परा के तरीके अन्य परम्परा के अनुयायियों की सहायता कर सकते हैं।
यह पूछे जाने पर कि क्या ताइवान के लिए उनके पास कोई सुझाव है, जहाँ शीघ्र ही एक नए राष्ट्रपति पदवी संभालेंगे, परम पावन ने कहा कि उनके पास धरातल की वास्तविकता के विषय में पर्याप्त रूप से सूचना न होने के कारण वे कोई ठोस सलाह देने में सक्षम नहीं हैं। परन्तु उन्होंने मानवीय बुद्धि को एक और अधिक सकारात्मक रूप से कार्य में लाने के महत्व पर बल दिया और बताया कि बल प्रयोग के बजाय संवाद के माध्यम से संघर्ष का समाधान कितना जरूरी है।
एक प्रश्न रखा गया कि क्या यह बेहतर है कि केवल एक बौद्ध परम्परा का पालन किया जाए क्योंकि कइयों में रुचि लेना भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर सकती है। परम पावन ने उत्तर दिया कि एक से अधिक परम्परा के बारे में सीखना सहायक हो सकता है और इस ओर ध्यानाकर्षित किया कि सभी तिब्बती बौद्ध परम्पराओं के मूल में नालंदा परम्परा है। उन्होंने कहा कि उन्होंने दिलगो खेंचे रिनपोछे और ठुलशिग रिनपोछे जैसे ञिङमा आचार्यों से साथ ही सक्या आचार्यों से शिक्षा ग्रहण की थी। उन्होंने यह भी पुष्टि की, कि वह सभी परम्पराओं की पुस्तकें पढ़ते हैं। उन्होंने टिप्पणी की, कि शुगदेन के समर्थकों की चेतावनी है कि गेलुग सम्प्रदाय के लोगों को ञिङमा ग्रंथों का स्पर्श भी नहीं करना चाहिए, ने जानबूझ कर एक सांप्रदायिक वातावरण खड़ा कर दिया। उन्होंने कहा कि यद्यपि एक समय वह स्वयं उस आत्मा की तुष्टि करते थे पर जब उन्हें उसकी कमियों की अनुभूति हुई तो उन्होंने उसे छोड़ दिया।
उन्होंने एक मंगोलियाई छात्रा से कहा, जो यह जानना चाहती थी कि वह अपनी उच्च शिक्षा क्यों जारी रखे जब बौद्ध धर्म उसे इतना कुछ सिखा सकता है कि नालंदा आचार्यों को कंप्यूटर और अन्य प्रौद्योगिकी, जो आज उपयोगी है, का कोई अनुभव नहीं था। उन्होंने उसे अपनी पढ़ाई बनाए रखने की सलाह दी। अंत में उन्होंने स्पष्ट किया कि दूसरों के बारे में चिंता रखने का मतलब यह नहीं है कि आप अपनी स्वयं की आवश्यकताओं को ताक पर रख दें, पर यह कि यदि आप दूसरों की सहायता करें तो आपसी लाभ होता है।
श्रोताओँ में तिब्बतियों के एक समूह को संबोधित करते हुए उन्होंने उन्हें उनके अटूट विश्वास के लिए धन्यवाद ज्ञापित किया। उन्होंने उनके लिए वर्णित किया कि किस तरह निर्वासन में भारत में शीघ्र ही एक तिब्बती प्रशासन स्थापित किया गया था और वह लोकतांत्रिक प्रारूप पर आधारित था। लोकतंत्र के क्रमशः विकास का अर्थ था कि वे २००१ में अर्द्ध सेवा निवृत्त हो सके और पूर्ण रूप से २०११ में सेवा निवृत्त होकर निर्वाचित नेतृत्व को अपना राजनीतिक उत्तरदायित्व देने में सक्षम हुए। उन्होंने बल देते हुए कहा कि उनकी सेवानिवृत्ति ने निराशा की किसी भी भावना को प्रतिबिंबित नहीं किया और वह उत्सुकता से तिब्बती भाषा और संस्कृति के संरक्षण, साथ ही उसके प्राकृतिक वातावरण के लिए कार्य करने में लगे हुए हैं।
उन्होंने कहा कि जब दलाई लामा तिब्बत में थे तो शायद ही कोई उन्हें देख सकते थे, जबकि अब वह लगभग दुनिया में कहीं भी यात्रा कर सकते हैं और उनके हर स्थान पर मित्र हैं।
"मैं शर्मीला नहीं हूँ" उन्होंने कहा। "हम तिब्बती कुशाग्र बुद्धि वाले हैं। मैं जे चोंखापा की तरह दोमे से हूँ और मेरा दिमाग भी तेज है। यद्यपि जब मैं छोटा था तो अपनी पढ़ाई को लेकर काफी आलसी था, पर जो शिक्षा और प्रशिक्षण मैंने तिब्बत में प्राप्त की उसने मुझे पिछले तीस वर्षों से आधुनिक वैज्ञानिकों के साथ बातचीत को पूरा करने में संलग्न रखा है।
"लोग तिब्बती बौद्ध धर्म को लामावाद कहकर खारिज कर देते थे जैसे मानों यह एक प्रामाणिक बौद्ध परंपरा न हो। अब हम घोषणा करते हैं कि यह नालंदा परंपरा का वारिस है और विश्व में आज सबसे व्यापक बौद्ध परम्परा है। नागार्जुन की 'प्रज्ञा ज्ञान मूल मध्यमकारिका' और मैत्रेय की 'अभिसमयालंकार' जैसे शास्त्रीय ग्रंथ का अध्ययन करने के अतिरिक्त, हमारे पास तर्क और प्रमाण पर धर्मकीर्ति की रचनाओं के सभी सात अनुवाद हैं। हमारे पास न केवल इन पुस्तकों के अनुवाद हैं पर उनके विषय सामग्री के जीवंत निर्देश हैं।
"हाल ही में, जब मैं अमेरिका में चिकित्सा उपचार ग्रहण कर रहा था तो मैंने सुना कि कई तिब्बती मेरे लिए प्रार्थना करने हेतु एकत्रित हुए थे। मैं आपको धन्यवाद करना और आश्वस्त करना चाहता हूँ कि मैं स्वस्थ अनुभव कर रहा हूँ। आपको मेरे बारे में चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। सत्य की जीत होगी। चीन परिवर्तित हो रहा है। हम फिर से एक साथ होंगे। अभी के लिए जो अध्ययन आप कर सकते हैं वह करें। अपनी शिक्षा में सुधार और अन्यथा चीजों को सरल रूप में लो।"
कुछ चीनियों से अलग से बातचीत करते हुए परम पावन ने कहा कि विश्व में वे जहाँ कहीं भी होते हैं चीनी अपनी अस्मिता का संरक्षण करते हैं तथा कठोर परिश्रम करते हैं। उन्होंने कहा कि किस तरह विगत ४० वर्षों में चीन बदल गया था का एक संकेत यह है कि कई लोग अब पुनः धर्म में रुचि दिखा रहे हैं। अब चीन विश्व की सबसे अधिक बौद्ध आबादी वाला है। जैसे जैसे लोकप्रिय रुचि बदलती है व्यवस्था को भी परिवर्तित होने पड़ेगा। उन्होंने स्मरण किया कि दो वर्ष पूर्व पेरिस में राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने स्पष्ट रूप से उल्लेख किया था कि किस प्रकार चीनी संस्कृति को बनाने में बौद्ध धर्म महत्वपूर्ण योगदान दे सकता था। उन्होंने दिल्ली में यह दोहराया जो चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता की ओर से एक अप्रत्याशित टिप्पणी थी।
"मैंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा निर्वासन में बिताया है," उन्होंने उनसे कहा, "पर मेरा स्वास्थ्य और ऊर्जा अब भी अच्छे हैं। मैं लगभग ८१ वर्ष का हूँ। यदि मैं ९० अथवा १०० वर्ष तक जिऊँ तो मैं आशा करता हूँ कि मैं चीन अथवा चीनी लोगों के कुछ काम आऊँगा। कृपया इसे ध्यान में रखें।
"मैं इन दिनों कई चीनियों से मिलता हूँ। कुछ वर्ष पूर्व मैं एक समूह से मिला जिसमें एक निर्धन किसान भी शामिल था। मैंने उससे उसके गाँव की परिस्थितियों के विषय में पूछा। उसने मुझे बताया कि चीज़ें बहुत मुश्किल थीं, कि धनवानों तथा निर्धनों के बीच एक बड़ा अंतर था। आप में से जो इस समय समृद्ध हैं, आपको जरूरतमंद लोगों की मदद करने की कोशिश करनी चाहिए। उदाहरण के लिए, मैं देश के दूरदराज के हिस्सों में शिक्षा को लेकर बहुत चिंतित हूँ। इस बीच, शी जिनपिंग भ्रष्टाचार से निपटने का प्रयास कर रहे हैं, पर यह एक बड़ी चुनौती है।"
इस समूह से प्रश्नों के उत्तर में परम पावन ने विहारवासी समुदाय के महत्व पर बल दिया और बुद्ध की सलाह दोहराई कि जहाँ विनय का पालन किया जाता है वहाँ धर्म फलेगा, फूलेगा। उन्होंने उल्लेख किया कि ये सब बौद्ध विज्ञान और दर्शन के पहलु हैं, जैसे कि इसके चित्त तथा भावनाओं के कार्यों की समझ, साथ ही प्रतीत्य समुत्पाद का दृष्टिकोण, जो उन लोगों के लिए भी सहायक हो सकता है जिनकी बौद्ध धर्म में रुचि नहीं है।
उन्हें मांसाहारी होने के तिब्बती बौद्ध धर्म के रवैये के विषय में चुनौती दी गई। उन्होंने उत्तर दिया कि इस विषय में स्पष्ट दिशा निर्देश हैं, पर चूँकि पारम्परिक बौद्ध भिक्षु, भिक्षाटन करते थे, उन्हें जो भी मिलता उसे स्वीकार करना पड़ता था। उन्होंने अपने स्वयं के शाकाहारी रहने के प्रयास तथा उनके पीलिया से बीमार पड़ने की कहानी सुनाई। उनके चिकित्सकों ने उन्हें पुनः कुछ मांस खाने की सलाह दी, इसलिए वे सप्ताह में दो एक बार खाते हैं। फिर भी तिब्बत में रहते हुए उन्होंने सरकारी भोजों में अत्यधिक मांस के उपयोग को रोक दिया था और तब से वे निर्वासन में महाविहारों के रसोई घरों में इसे न पकाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। वे यह कहते हुए खिलखिला उठे कि जबकि वे दूसरों को शाकाहारी बनने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं, पर वे स्वयं ऐसा करने में असमर्थ हैं।
उन्होंने शिक्षा के महत्व को दोहराया और यह कि चूँकि वे तिब्बतियों से कहते रहते हैं कि मणि का जाप करना पर्याप्त नहीं है, उन्हें लगता है कि उन्हें चीनियों को भी बताना चाहिए अमिताभ की प्रार्थना भी पर्याप्त नहीं है। उन्होंने यह कहते हुए समाप्त किया कि उनके स्वयं के अभ्यास में उनके शून्यता को समझने के प्रयास और बोधिचित्त की अनुभूति ही है जिससे वास्तविक अंतर पड़ता है।
कल परम पावन ओसाका से नारिता के लिए रवाना होंगे जहाँ से वह भारत लौटने के लिए उड़ान भरेंगे।