छो पेमा, रिवलसर, हि. प्र., भारत, १३ जुलाई, २०१६ - तिब्बती कैलेंडर के बारह वर्षीय चक्र में, गुरु पद्मसंभव का जन्म प्रथानुसार वानर वर्षों में मनाया जाता है और यह वर्ष अग्नि - वानर वर्ष है। छो पेमा, मंडी के प्राचीन राजसीय भारतीय शहर के ऊपर की पहाड़ियों में एक झील पारम्परिक रूप से भी गुरु पद्मसंभव और उनके राजकुमारी मंदरवा को शिक्षा देने से जुड़ा है। परिणामस्वरूप परम पावन दलाई लामा ने यहाँ आकर १९वीं शताब्दी के महान ञिङमापा साधक जा पाटुल रिनपोछे के ग्रंथ पर प्रवचन और विद्याधर मंत्र के अभिषेक देने के आमंत्रण को स्वीकार किया।
रात भर की मूसलाधार वर्षा थम गई थी जब प्रातः तड़के परम पावन धर्मशाला से निकले और जब तक वे कांगड़ा की पहाड़ियों तक पहुँचे तो ऊपर का नभ नीला था। हमीरपुर में जलपान हेतु थोड़ी देर के विराम के दौरान तिब्बतियों के एक छोटे समूह ने उनका स्वागत किया। जब तक वे छो पेमा पहुँचे तो कई सैकड़ो लोग हाथों में स्कार्फ और जलती धूप लिए जिनमें से कई लाहौल-स्पीति और किन्नौर के हिमालयी क्षेत्रों से, तिब्बती और कुछ छुट पुट विदेशी थे उनके स्वागतार्थ मार्ग पर पंक्तिबद्ध थे। उज्ञेन हेरुकाई ञिङमा विहार के द्वार पर उनका स्वागत किया गया और मंदिर के अंदर उनका अनुरक्षण किया गया जहाँ उन्होंने गुरु पद्मसंभव और वहाँ रखी गईं विभिन्न प्रतिमाओं के समक्ष सम्मान व्यक्त किया। चाय और मीठे चावल परोसे जाने के समय वे उनके विहारीय मेजबान और स्थानीय गणमान्य व्यक्ति साथ बैठे।
मध्याह्न में जब परम पावन ने सिंहासन पर अपना आसन ग्रहण किया, जो कि झील के खुले भाग की तरफ एक तात्कालिक शामियाना में बनाया गया था तो उन्हें सुनने के लिए अनुमानतः ६००० की संख्या में लोग एकत्रित थे। उन्होंने उनसे कहा:
"हम सब यहाँ इस विशिष्ट अवसर पर इस विशिष्ट स्थान पर साथ हैं जहाँ लंबे समय से चला आ रहा दुजोम रिनपोछे द्वारा स्थापित ञिङमा विहार है। मैं इसके पहले भी यहाँ कई बार आया हूँ और यहाँ पुनः आकर प्रसन्न हूँ। कल ५वें महीने की १० तारीख है, इसलिए हम प्रातः 'छोग' का समर्पण करेंगे और मध्याह्न में मैं विद्याधर मंत्र का अभिषेक दूँगा। इसके व्यापक, मध्यम और लघु रूप हैं और मैंने सोचा कि मैं मध्यम दूँगा। उस के आधार के रूप में मैंने सोचा कि मैं बोधिचित्तोत्पाद का अनुष्ठान करूँगा और उसके पहले मैं उपासक और उपासिकाओं के संवर दूँगा। यदि आप सभी पाँच ले सकते हैं तो अच्छा है अन्यथा वे लें जो आपको लगता है कि आप पालन कर सकते हैं।
"मैं जा पाटुल रिनपोछे के 'संतों के अनुष्ठान हृदय मणि' पर भी प्रवचन दूँगा। पाटुल रिनपोछे ऐसे थे जिन्होने 'बोधिसत्वचर्यावतार' में जो सिखाया गया है, जिसे मैंने स्वयं खुनु लामा से सुना और ग्रहण किया, उसके प्रति स्वयं को समर्पित कर दिया। इस सब का अर्थ है कि हमें स्वयं को विचार, शब्द और कर्म, में परिवर्तित करना है जिसके लिए सजगता, आत्मनिरीक्षण और ईमानदारी की आवश्यकता पड़ती है।"
परम पावन इस बात को लेकर चिंतित थे कि जो वे तिब्बती में कह रहे हैं उनमें से कितने समझ पाएँगे और जो समझ नहीं सकते क्या उनके लिए अनुवाद उपलब्ध था। उन्होंने उल्लेख किया कि यद्यपि कल उनके श्रोता एक तांत्रिक आशीर्वाद प्राप्त करेंगे पर आशीर्वाद, सूत्र शिक्षाओं की गहनता, शून्यता की समझ पर निर्भर करता है। उन्होंने कहा कि चित्त के प्रशिक्षण के लिए 'बोधिसत्चचर्यावतार' से अधिक महान कोई ग्रंथ नहीं है परन्तु नागार्जुन और उनके अनुयायियों के लेखन पर ध्यान दिए बिना उस ग्रंथ के नौवें अध्याय को पढ़ने से शून्यता की पकड़ कठिन होगी।
यह टिप्पणी करते हुए कि वाराणसी में बुद्ध की प्रथम शिक्षा चार आर्य सत्य ने उनकी शिक्षाओं के ढांचे को रेखांकित किया, परम पावन ने कहा कि यह नैरात्म्य की ओर इंगित कर रहा था और इसका संबंध 'संसार' और 'निर्वाण' के कार्यकलाप से था। उन्होंने समझाया कि किस प्रकार वस्तुएँ कारणों और परिस्थितियों पर निर्भर होकर अस्तित्व में आती हैं। प्रथम सत्य के दुःख का एक कारण है, जो दूसरा सत्य है। यदि आप उन कारणों को समाप्त कर देते हैं तो दुःख निरोध हो जाता है। परम पावन ने कहा कि बाद में जब उनके अनुयायियों को नैरात्म्य की कुछ समझ आ गई और मार्ग पर कुछ विकास कर लिया, तो राजगीर में गृद्ध कूट पर बुद्ध ने प्रज्ञा पारमिता को व्याख्यायित किया। संस्कृत परम्परा के सभी अनुयायियों द्वारा पाठ किया जा रहा 'हृदय सूत्र' इस का एक संक्षिप्त प्रतिपादन है।
परम पावन ने टिप्पणी की, कि 'हृदय सूत्र' का पाठ करना एक विषय है, पर ऐसा करना तभी प्रभावी हो पाएगा जब हम समझें कि इसका क्या अर्थ है। ऐसा करने के लिए हमें अपनी बुद्धि का प्रयोग करना होगा। उन्होंने कहा कि बौद्धाभ्यास में शून्यता को समझने वाली प्रज्ञा के रूप में करुणा बुद्धि द्वारा पूरित की जाती है। उन्होंने आगे कहा कि बुद्ध ने अपने अनुयायियों को सलाह दी थी कि जो भी शिक्षा उन्होंने दी वे उसका परीक्षण वे तर्क और कारण के साथ करें। यह दृष्टिकोण महान नालंदा परम्परा के आचार्यों द्वारा अनुपालित था।
चूँकि वर्षा पुनः प्रारंभ हो गई परम पावन ने श्रोताओं को अधिक निकट बैठने के लिए प्रोत्साहित किया ताकि सभी को मंडप का आश्रय प्राप्त हो।
शून्यता को स्पष्ट रूप से समझाने में, 'हृदय सूत्र' वास्तविकता का वर्णन जिस रूप में हो उस रूप में करता है। यह कहता है कि अतीत, वर्तमान और भविष्य के बुद्ध इस प्रज्ञा पारिमता पर आश्रित होकर सम्यक संबुद्धत्व को प्राप्त करते हैं। यद्यपि परम पावन ने दोहराया कि हम मात्र शून्यता को समझकर प्रबुद्धता प्राप्त नहीं कर सकते, हमें करुणा और दूसरों के लिए प्रबुद्धता प्राप्त करने की प्रणिधि से प्रेरित होने की आवश्यकता है।
परम पावन ने कहा कि वे जब भी वह बौद्ध शिक्षाएँ देते हैं तो वह आध्यात्मिक जीवन का एक सामान्य परिचय देना भी पसंद करते हैं। उन्होंने उल्लेख किया कि सत्वों के रूप में हम सभी सुखी होना चाहते हैं और हमें वास्तव में सुख प्राप्त करने का अधिकार है। उन्होंने कायिक और मानसिक दुःख और सुख की तुलना की और इस ओर संकेत किया कि किस प्रकार हम जिस तरह कायिक पीड़ा के बारे में सोचते हैं उसमें परिवर्तन ला सकते हैं यदि हम कायिक पीड़ा को नकारात्मक कार्य़ों की विशुद्धि के लिए एक उत्प्रेरक के रूप में मानें। उन्होंने टिप्पणी की, कि दूसरों को 'हम' और 'उन' के रूप में देखते हुए अपने लिए समस्याएँ निर्मित करते हैं। दूसरी ओर यदि हम सुख के कारणों को निर्मित करें, तो हम न केवल दुःखों पर काबू पा सकते हैं पर अपने आसपास के लोगों पर सकारात्मक प्रभाव भी डाल सकते हैं। उन्होंने कहा कि इसी कारण यदि आप कर सकें तो दूसरों की सहायता करना महत्वपूर्ण है, पर यदि आप नहीं कर सकते तो कम से कम नुकसान करने से बचें।
उन्होंने जोर देकर कहा कि सभी धार्मिक परम्पराएँ, जैन, ईसाई, हिंदू, इस्लाम, यहूदी, पारसी आदि आदि प्रेम और करुणा के महत्व की शिक्षा देते हैं और इन अभ्यासों को सुरक्षित करने के लिए हमें सहिष्णुता और क्षमा के व्यवहार की आवश्यकता है। परम पावन ने अंतर्धार्मिक सद्भाव की प्राचीन भारतीय परम्परा की सराहना की। उन्होंने अहिंसा की चर्या तथा प्रतीत्य समुत्पाद को बौद्ध शिक्षण के सार के रूप में वर्णित किया।
'संतों के अनुष्ठान हृदय मणि' ग्रंथ को प्रारंभ करते हुए परम पावन ने समझाया कि यह किस तरह त्रिरत्न वंदना के साथ प्रारंभ होता है। यह सिखाता है कि किस प्रकार इस जीवन की व्यस्तताओं से मुँह मोड़ लिया जाए। यह सिखाता है कि किस तरह आत्म की भ्रांत धारणा पर काबू पाया जाए और यह कहते हुए गुरु योग की ओर संकेत करता है कि परम गुरु प्रभास्वरता का आंतरिक चित्त है। यह उल्लेख करता है कि कुछ माध्यमक अनुमति देते हैं कि वस्तुओं का कुछ वस्तुनिष्ठ अस्तित्व होता है, जबकि प्रासंगिक माध्यमक का कहना है कि यद्यपि दृश्य होता है पर किसी भी तरह का कोई वस्तुनिष्ठ अस्तित्व नहीं होता। ग्रंथ आगे सूत्र तथा तंत्र के दृष्टिकोण में अंतर करता है कि उनमें अंतर वस्तु के संदर्भ में नहीं अपितु व्यक्तिपरक परिप्रेक्ष्य में है। समापन के निकट पहुँचते हुए परम पावन ने इस सलाह पर बल दिया जो कि शिक्षा का संक्षेपीकरण करता है - 'आप जो भी करें, अपने चित्त की जांच कर लें।'
उन्होंने कहा कि उन्हें इस ग्रंथ का संचरण तथा व्याख्या दिलगो खेंछे रिनपोछे से प्राप्त हुई थी।
अपने श्रोताओं को बताते हुए कि अभिषेक के एक अंग के रूप में वह आने वाले कल में बोधिचित्तोत्पाद समारोह का का नेतृत्व करेंगे, परम पावन ने उपासकों का संवर देते हुए, जो व्यक्तिगत मुक्ति के सिद्धांतों में से है, आज के सत्र का समापन किया।
समर्पण की प्रार्थनाओं के पाठ के पश्चात परम पावन गाड़ी से वापस ञिङमा विहार लौटे, जबकि जनमानस ने प्रवचन स्थल से बाहर निकलकर झील के चारों दाईं ओर से चलते हुए अपनी प्रदक्षिणा पूरी की।