साल्ट लेक सिटी, यूटा, संयुक्त राज्य अमेरिका, २२ जून २०१६ - चर्च ऑफ जीसस क्राइस्ट ऑफ लेटर डे सेंट्स का विश्वव्यापी मुख्यालय साल्ट लेक सिटी में है। आज प्रातः परम पावन दलाई लामा ने नव स्थापित यूटा तिब्बती सामुदायिक सभागार में जाने से पहले चर्च के तीन सलाहकारों से एक शिष्टाचार भेंट की। वहाँ वे टाशी शोपा नर्तकों, स्वागत के प्रतीक छेमा छंगफू लिए बच्चों और यूटा तिब्बती एसोसिएशन के अध्यक्ष लोबसंग छेरिंग से मिले जिन्होंने उन्हें एक 'खाता' समर्पित किया। सभागार मुस्कुराते हुए चेहरे और उनकी ओर बढ़ाते हुए हाथों से भरा हुआ था जब वह उनके बीच से होते हुए मंच पर आसन ग्रहण करने के लिए आगे बढ़े। बच्चों के एक बड़े समूह ने उनके लिए गीत गाया।
अपनी रिपोर्ट में, लोबसंग छेरिंग ने सामुदायिक भवन के अधिग्रहण और एसोसिएशन द्वारा बच्चों के लिए तिब्बती भाषा की प्रगति की कठिनाइयों की चर्चा की - यद्यपि वे अपने प्रयास में दृढ़ बने हुए हैं। उन्होंने परम पावन की दीर्घायु के लिए प्रार्थना के साथ समाप्त किया। साल्ट लेक काउंटी के महापौर बेन मेकएडाम्स ने कहा कि वह अत्यंत सम्मान का अनुभव कर रहे थे कि परम पावन की उपस्थिति में उन्हें सभा में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। उन्होंने घोषणा की कि जिस समुदाय का वह प्रतिनिधित्व करते हैं उसने अपने को करुणाशील समुदाय के रूप में घोषित किया है और उन्होंने बेघर, वयोवृद्ध और अन्य लोग जिन्हें सहायता की आवश्यकता है उनकी सहायता करने की योजना बनाई है। उन्होंने कहा:
"हम सब में एक दूसरे की देखभाल करने की क्षमता है। आप परम पावन ने हमें अपनी करुणा को कार्यान्वित करने के लिए प्रेरित किया है।"
यूटा तिब्बतियों के लिए संबोधन में परम पावन ने कहा,
"मैंने आज सोचा कि मैं तिब्बती संस्कृति और धर्म संबंध में बोलूँ, जो तिब्बती लोगों की प्राण शक्ति है, फिर चाहें किसी भी प्रकार के उतार चढ़ाव का सामना हम करें। १००० से अधिक वर्षों से हमने हमारी भाषा और लेखन को जीवित रखा है। गायन और नृत्य, निश्चय ही हमारी संस्कृति का एक अंग है, पर इसमें दूसरों के साथ साझा करने जैसा अधिक कुछ नहीं है। मैंने आपको नालंदा के १७ पंडितों का एक चित्र दान किया है और मैंने यह किया है क्योंकि उनके लेखन ने हमारी समृद्ध दार्शनिक परम्परा में एक बड़ा योगदान दिया है। तिब्बत एक प्राचीन देश है, पर यह हमारी संस्कृति है जो कि महत्वपूर्ण है। यह शांतिपूर्ण और करुणाशील है तथा संरक्षण के योग्य है।
"अतः मैं बुद्ध की पृष्ठभूमि की व्याख्या करना चाहूँगा। भारत में पालि और संस्कृत परम्पराएँ थी जिनसे नालंदा परम्परा ने जन्म लिया जिसका परिचय तिब्बत को देने वाले शांतरक्षित थे। एस अनुकरणीय विद्वान को तिब्बती सम्राट ठिसोंग देचेन ने ८वीं शताब्दी में तिब्बत में आमंत्रित किया।
"विश्व की सभी प्रमुख धार्मिक परम्पराएँ प्रेम और करुणा, सहिष्णुता, आत्म अनुशासन और संतोष सिखाती हैं। वे इन गुणों के अभ्यास का समर्थन करने के लिए विभिन्न दार्शनिक विचार प्रदान करते हैं।
"बुद्ध ने स्थानीय भाषा में शिक्षा दी और उन्होंने जो सिखाया उसे बाद में पालि और संस्कृत संग्रह में संकलित कर लिखा गया। पालि परंपरा में उनकी शिक्षाओं की आम प्रस्तुति है और जिसमें शील, समाधि और प्रज्ञा के तीन अधिशिक्षण शामिल हैं। संस्कृत परम्परा विशुद्ध दृष्टि और विशुद्ध कर्म वाले कुछ चुने शिष्यों को दी गई शिक्षा है। इसे चीन तथा कोरिया, जापान और वियतनाम ले जाया गया था। हालांकि, इसका संप्रेषण तिब्बत को भारत से सीधे दिया गया था और वहाँ से मंगोलिया ले जाया गया। यह कारण और तर्क के व्यवहार पर बल देती है।"
परम पावन ने उनके थाई भिक्षुओं और विद्वानों के साथ हुए विचार विमर्श की बात की जिसमें उन्होंने पूछा कि वे किस तरह चार आर्य सत्य और ३७ बोध्यांगो की शिक्षा देते हैं। उन्होंने समझाया कि वे मुख्य रूप से शास्त्रों का हवाला देते हुए ये शिक्षाएँ स्थापित करते हैं।
"संस्कृत परंपरा, बुद्ध के आग्रह कि उनकी शिक्षाओं को उसी रूप में न स्वीकार किया जाए पर कारण और तर्क के साथ उसकी जांच व परीक्षण किया जाए, का अनुपालन करती है। नागार्जुन की 'मूलमध्यमकारिका' वर्णित करती है कि इसके आधार पर वास्तविकता को किस तरह देखा जाए। वे स्थापित करते हैं कि किन शिक्षाओं को शब्दशः स्वीकार किया जा सकता है और किनके लिए व्याख्या अपेक्षित है। उसी के साथ तिब्बती परम्परा विनय के महाविहारीय अनुशासन को सम्मिलित करती है। यह भी शांतरक्षित द्वारा प्रारंभ किया गया जिन्होंने पहले सात तिब्बती भिक्षुओं को प्रव्रजित किया, यह देखने के लिए कि क्या तिब्बती संवर का पालन कर सकते हैं।
"अभिधर्म के उच्चतर साहित्य में प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाएँ शामिल हैं जिनकी स्पष्ट विषय सामग्री शून्यता की व्याख्या और जिसका निहित कथ्य मार्ग पर किस तरह विकास किया जाए, है। मात्र तिब्बती ने परम्परा कारण और तर्क का कड़ा अध्ययन बनाए रखा है जिन पर ये शिक्षाएँ निर्भर हैं।
"भारतीय बौद्ध साहित्य शांतरक्षित की प्रेरणा पर भोट भाषा में अनूदित किया गया अतः आज बौद्ध सिद्धांत को समझने के लिए किसी अन्य भाषा पर निर्भर होने के आवश्यकता नहीं है, जिसके लिए हम अतीत के विद्वानों और अनुवादकों के महान प्रयासों के कृतज्ञ हैं।"
परम पावन ने उस धारणी या मंत्र का उल्लेख किया जो मूर्तियों, समाधि वस्तुओं इत्यादि के अभिषेक में प्रयोग की जाती है:
'ये धर्माः हेतु प्रभवा हेतुम् तेषाम् तथागतो ह्यवदत्
तेषाम् च यो निरोध एवम् वादी महाश्रमणः
वे धर्म जो हेतुओं से उत्पन्न होते हैं
तथागत ने ही उन हेतुओं को बताया है
और उनका निरोध क्या है
ऐसा महान मुनि का सिद्धांत है।'
वस्तुएँ कारणों और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित होती हैं और संसार या भव चक्र के संदर्भ में ये हेतु और परिस्थितियाँ हमारे कर्म और क्लेशों से प्रभावित होती हैं। निरोध या मुक्ति वह चित्त है जो क्लेशों से पूरी तरह से रहित है जो कि मार्ग का अनुसरण करके प्राप्त किया जाता है। परम पावन ने बुद्ध को उद्धृत करते हुए कहा:
"बुद्ध पाप को जल से धोते नहीं,
न ही जगत के दुःखों को अपने हाथों से हटाते हैं;
न ही अपने अधिगम को दूसरों में स्थान्तरण करते हैं;
वे धर्मता सत्य देशना से सत्वों को मुक्त कराते हैं।"
"चूँकि अविद्या हमें वास्तविकता के प्रति अंधा कर देती है, हमें इस तरह की प्रज्ञा की आवश्यकता है। हम बुद्ध, शिक्षक में शरण लेते हैं, जिस धर्म की उन्होंने देशना दी वह सच्चा शरण है और संघ, समुदाय जो हमें मार्ग पर सहायता देता है। परन्तु हम प्रायः बुद्ध से इस तरह प्रार्थना करते हैं कि मानो वह एक सृजनकर्ता ईश्वर है, भगवान जो हमारी इच्छानुसार कर सकता है। केवल प्रार्थना करना पर्याप्त नहीं है। वे जो कहते हैं हमें उन्हें व्यवहार में लाने की आवश्यकता है। हमें यह देखने की आवश्यकता है कि वस्तुएँ अपनी स्वभाव सत्ता से शून्य होती हैं। मैं इस पर ६० वर्षों से ध्यान कर रहा हूँ और मुझे उसका स्वाद प्राप्त हुआ है और तथ्य यह है कि हम शून्यता को जितना अधिक समझेंगे उतना ही अधिक अपनी नकारात्मक भावनाओं को कम करने में सक्षम होंगे।
"हम सोचते थे कि बुद्ध की शिक्षाओं का अध्ययन मात्र भिक्षुओं का कार्य है। इसमें परिवर्तन होना चाहिए। चालीस वर्ष पूर्व मैंने आनुष्ठानिक महाविहारों से आग्रह किया था कि वे अध्ययन के कार्यक्रम प्रारंभ करें और अपने ही महाविहार नमज्ञल विहार से शुरू किया। मैंने भिक्षुणियों से भी अध्ययन का आग्रह किया और इस वर्ष के उत्तरार्ध में हम पूरी तरह योग्य भिक्षुणियों को उच्चतम डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान करेंगे। परन्तु मात्र अध्ययन भी अपने आप में पर्याप्त नहीं है। हमें मिलारेपा की तरह होना है और शिक्षाओं को अभ्यास में लाना है। उन्होंने कठोरता से शिक्षाओं को व्यवहृत किया और बुद्धत्व प्राप्त की। हमें भी शिक्षाओं को चित्त का अंग बनाना है।
"तिब्बत के मुद्दे के संदर्भ में, आपको पता होना चाहिए कि बढ़ती संख्या में साधारण चीनी लोग हमें समर्थन दे रहे हैं। और जैसे चीनी बौद्धों की संख्या बढ़ती है, तो साथ ही उनकी संख्या बढ़ती है जो हमारे तिब्बती बौद्ध परम्पराओं के मूल्य की सराहना करते हैं।"
तत्पश्चात परम पावन ने एकत्रित श्रोताओं, बच्चों और वयस्कों का शरण गमन और बोधिचित्तोत्पाद समारोह में नेतृत्व किया।
मध्याह्न भोजन के बाद, उन्होंने डेनवर, कोलोराडो के लिए उड़ान भरी और वहाँ से कार में बोल्डर गए जहाँ स्थानीय तिब्बती समुदायों ने उत्साह से उनका स्वागत किया।