थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, भारत, १ जून २०१६ - आज मुख्य तिब्बती मंदिर - तथा आसपास का प्रांगण परम पावन दलाई लामा के तीन दिनों के सार्वजनिक प्रवचनों के पहले दिन १०,००० लोगों से खचाखच भरा हुआ था। उनमें ऊपरी और निचले टीसीवी के विद्यालयों के छात्र, साथ ही टीसीवी गोपालपुर, सुजा, सेलाकुई और चौन्तड़ा के कक्षा १० - १२ के छात्र शामिल थे। इसके अतिरिक्त शेरब गछेल लिंग स्कूल, मेन-ची-खंग और सराह से छात्रों को आमंत्रित किया गया था। उनके साथ ६०० महाविद्यालय के छात्र, ६६ देशों से लगभग २००० विदेशी और तिब्बती लोगों के एक और ५००० सदस्य जुड़े थे।
यह कार्यक्रम टिब्बटेन चिल्डर्न्स विलेज स्कूल और स्थानीय बौद्ध धर्म परिचय समिति द्वारा आयोजित किया गया है। जैसे ही वह अपने निवास के द्वार से होते हुए सामने आए, परम पावन को पारम्परिक 'छेमा छंगफू' प्रस्तुत किया गया। प्रांगण के मध्य तक का गलियारी लगभग ४० तिब्बती बालिकाओं से पंक्तिबद्ध था, जिनमें से प्रत्येक के हाथ में पुष्प तथा और धूप था, जिन्होंने एक विद्यालय गीत गाते हुए परम पावन का मन्दिर के द्वार तक अनुरक्षण किया। परम पावन ने बुद्ध की प्रतिमा को प्रणाम किया और सिंहासन पर अपना आसन ग्रहण करने से पूर्व कई लामाओं का अभिनन्दन किया।
भोट भाषा में प्रज्ञा पारमिता सूत्र का पाठ हुआ जिसके पश्चात बुद्ध के प्रति श्रद्धा के छंदों का पाठ हुआ। तत्पश्चात स्थानीय बौद्ध धर्म परिचय समिति के सदस्य, जिनमें से अधिकांश उपासक हैं, ने अपने शास्त्रार्थ के कौशल का प्रदर्शन किया, जिसके पश्चात शेरब गछेल लिंग विद्यालय के छात्रों ने भी शास्त्रार्थ में अपना कौशल दिखाया।
परम पावन ने यह समझाते हुए प्रारंभ किया कि यद्यपि टीसीवी में प्रवचनों की यह वार्षिक श्रृंखला आयोजित करना प्रथागत हो गई थी पर इस वर्ष यह निर्णय लिया गया कि चुगलगखंग में यह और अधिक सुविधाजनक होगा। उन्होंने हर्ष व्यक्त किया कि शताब्दियों के बाद जब शास्त्रार्थ और वाद विवाद, मात्र महाविहारों तक सीमित थे, अब छात्रों और अन्य सामान्य लोगों के बीच इसका उपयोग जड़ पकड़ रहा है। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि गणित जैसे विषयों का अध्ययन का हमारे आंतरिक विकास पर कम प्रभाव पड़ता है, पर यदि हम इसका अध्ययन करें कि बुद्ध ने क्या सिखाया तो हमारे चित्त को परिवर्तित करने के लिए हमें आवश्यक दृढ़ विश्वास प्राप्त होता है। उन्होंने उल्लेख किया कि निर्वासन के प्रारंभिक दिनों में स्कूलों में शास्त्रार्थ के कुछ प्रयास होते थे पर यह धूमिल पड़ते गए। अब जब कि यह पुनर्जीवित किया गया है तो उन्होंने सुझाया कि सम्बद्धित प्रशिक्षक धार्मिक शिक्षकों के बजाय दर्शन के शिक्षकों के रूप में संदर्भित किए जाएँ।
"मनुष्य के रूप में हमारे पास एक अद्भुत मस्तिष्क और बुद्धि है, जो हमें परीक्षण करने तथा समझने में सक्षम करती है कि वस्तुएँ किस प्रकार हैं।" उन्होंने कहा, "परन्तु यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि इसका उपयोग सकारात्मक रूप से हो। हमारे पास कांग्यूर के लगभग १०० ग्रंथ हैं और तेंग्यूर में लगभग २२० की संख्या में ग्रंथ है। कांग्यूर में बुद्ध के शब्द निहित हैं और यद्यपि हम उनमें न्याय तथा प्रासंगिक का स्पष्ट रूप से प्रयोग नहीं पाते पर अर्थ निहित है। आखिरकार धार्मिक शिक्षकों के बीच बुद्ध अद्वितीय हैं कि उन्होंने अपने अनुयायियों को प्रोत्साहित किया कि जो शिक्षा वे दे रहे हैं वे उसे उसी रूप में स्वीकार न करें परन्तु उसकी जाँच व परीक्षण करें।
"बाद में दिङ्नाग और धर्मकीर्ति ने तर्क और प्रमाण का सविस्तार रूप दिया। प्रमुख ग्रंथों का भोट भाषा में अनुवाद किया गया और अभी भी उनका अध्ययन किया जा रहा है, परन्तु उनका चीनी अनुवाद नहीं किया गया। परन्तु महत्वपूर्ण बात इन ग्रंथों का पठन व अध्ययन है। जिस तरह घर में एक अच्छी खाना बनाने की पुस्तक का होना और उसे काम लाने के बजाय मात्र शेल्फ पर रखने से कोई लाभ नहीं, उसी तरह अपनी वेदी पर रखे इन धर्म ग्रंथों को पढ़ने का प्रयास न कर उनके प्रति सम्मान व्यक्त करने से कोई लाभ नहीं।
"ठिसोंग देचेन, गुरु पद्मसंभव और शांतरक्षित के समय से ही तिब्बतियों को पालि परम्परा से लेकर अनुत्तर योग तंत्र तक बुद्ध की शिक्षाओं का सम्पूर्ण संचरण प्राप्त हुआ। परन्तु फिर भी मात्र उनमें आस्था रखने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण उन्हें समझना है। यदि सभी ६ लाख तिब्बती व्यापक स्तर पर धर्म का अध्ययन करने में सक्षम हों तो वह एक गौरवपूर्ण बात है, है ना?"
परम पावन कहा कि आज विश्व में नैतिक सिद्धांतों का एक सामान्य अभाव प्रतीत होता है जो व्यक्तियों, परिवारों और राष्ट्रों को प्रभावित करता है। उन्होंने टिप्पणी की, कि हमारी विभिन्न धार्मिक परम्पराओं का प्रमुख संदेश दूसरों की सेवा करना है, और आगे कहा कि चाहे हम ईसाई, इस्लाम, हिंदू धर्म या यहूदी धर्म को देखें, प्रत्येक ने अनुकरणीय और सच्चे अभ्यासियों को जन्म दिया है। सौहार्दता न केवल स्वास्थ्य के लिए अच्छी है, यह समाज के लिए अच्छी है। नैतिक सिद्धांतों के लाभ और अनुशासन के अभाव की कमियों को समझने की आवश्यकता है। बौद्ध धर्म, एक शंकाकुल भावना लिए विज्ञान के समान है और विनाशकारी भावनाओं के साथ किस तरह निपटा जाए की समझ विश्व में अपना योगदान दे सकती है।
"वैज्ञानिक निष्कर्ष बताते हैं कि आधारभूत मानव स्वभाव करुणाशील है, अतः आशा है। हम स्वयं को परिवर्तित कर सकते हैं और एक अधिक करुणाशील विश्व का निर्माण करने की आशा रख सकते हैं। पर हमें हृदय को शिक्षित करने के साथ साथ चित्त को शिक्षित करने का एक अधिक व्यापक और समग्र दृष्टिकोण लेने की आवश्यकता है। ये अभी भी २१वीं सदी के प्रारंभिक वर्ष हैं, परन्तु मेरा विश्वास है कि यदि हम अभी प्रयास करें तो हम भविष्य में विश्व में एक सकारात्मक परिवर्तन की आशा रख सकते हैं। बीबीसी पर यह सुनकर मैं प्रोत्साहित हुआ हूँ कि युवा लोगों की बढ़ती संख्या आज स्वयं को वैश्विक नागरिक के रूप में मानती है।"
परम पावन ने निर्वाण प्राप्ति के पश्चात बुद्ध की आशंका को संदर्भित किया कि कोई भी उनकी गहन और शांतिपूर्ण अंतर्दृष्टि समझ न पाएगा। परन्तु देवों के द्वारा उनसे शिक्षा देने के अनुरोध पर उन्होंने तापसिक अभ्यास के अपने पाँच पूर्व साथियों की खोज की और उन्हें चार आर्य सत्य की व्याख्या दी। उन्होंने उन्हें बताया कि दुःख के कारणों पर काबू पाया जा सकता है और यदि आप इस कारणों को समाप्त कर दें तो आप स्थायी सुख प्राप्त कर सकते हैं। परम पावन ने टिप्पणी कीः
"यदि आप दुःख नहीं चाहते तो आप को हेतुओं को समाप्त करना होगा। उनमें प्रमुख कर्म और विनाशकारी भावनाएँ हैं और उनके मूल में अज्ञान है। चित्त का स्वभाव स्पष्टता और जागरूकता है। अज्ञानता का उसमें कोई स्थान नहीं है; यह आकस्मिक है और समाप्त किया जा सकता है। आपके भीतर सच्चे निरोध को विकसित किया जा सकता है और उसके लिए शील, प्रज्ञा, समाधि के प्रशिक्षण का विकास आवश्यक है।"
एक छोटे से अंतराल के पश्चात दूसरे सत्र में, अतिरिक्त चाय दिए जाने और '१७ नालंदा पंडितों की स्तुति' के सस्वर पाठ के बाद परम पावन ने तीन धर्म चक्र प्रवर्तनों का संदर्भ दिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि प्रथम में चार आर्य सत्यों का प्रकटीकरण हुआ, द्वितीय में वास्तविक निरोध की प्रकृति का स्पष्टीकरण प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाओं द्वारा हुआ। तृतीय धर्म चक्र प्रवर्तन ने मार्ग तथा चित्त की प्रकृति की व्याख्या की।
‘अात्मप्रेरित श्रद्धा के वृक्ष' ग्रंथ, जिस पर वे प्रवचन देने वाले थे, के संबंध में, परम पावन ने कहा कि यह कदम के १६ बिन्दुओं से आता है, एक विशिष्ट शिक्षा जो येरपा ल्हारी ञिङपो में अतीश, डोमतोनपा, ञोग लेगपे शेरब, नगछो लोचावा और गेशे कावा के पारस्परिक व्यवहार से उभरी। ञोग ने अतीश से डोमतोनपा की विगत जीवनों के बारे में बताने का अनुरोध किया और जब डोम ने अनिच्छा व्यक्त की, केवल उनके अनुरोध को दोहराया।
परम पावन ने सूचित किया कि उन्हें यह शिक्षा तिब्बत में लिंग रिनपोछे से प्राप्त हुई थी और जब उन्होंने ठिजंग रिनपोछे से उन्हें इसे पुनः देने को कहा तो रिनपोछे ने ऐसा करने से पहले एकांतवास किया। यह ग्रंथ दीक्षा के एक अंग के रूप में पढ़ा जाता है। एक बार जब उन्होंने इसे ग्रहण कर लिया तो परम पावन ने भी एकांतवास लिया। इस संबंध में पांच अनुस्मृतियां हैं: गुरु में शरण लेना, स्वयं को इष्टदेव के रूप में परिकल्पित करना, मंत्र पाठ, बोधिचित्तोत्पाद का विकास और शून्यता की समझ। परम पावन ने कहा कि जब उन्होंने पिछली सर्दियों में दक्षिण भारत में पथक्रम की शिक्षा के अंत में दीक्षा दी थी तो उन्हें इस अवसर पर इस ग्रंथ की शिक्षा देने की सूझी।
दिन के प्रवचन के समापन के पूर्व परम पावन ने प्रथम छंद पढ़े। यह देखते हुए कि उन सबके पास पुस्तकों की प्रतियां थीं, उन्होंने अपने श्रोताओं को इसे पुनः पढ़ने, जो उन्होंने व्याख्यायित किया था उस पर चिंतन करने और परस्पर चर्चा करने के लिए प्रोत्साहित किया।
मन्दिर से निकल अपने निवास स्थल की ओर लौटते हुए परम पावन श्रोताओं के साथ बातचीत करने, उनसे हाथ मिलाने या बस मात्र मुस्कुराने तथा हाथ हिलाने के लिए कई बार ठहरे। प्रवचन कल जारी रहेंगे।