डीयर पार्क, ओरेगन, डब्ल्यूआइ, संयुक्त राज्य अमरीका, ६ मार्च २०१६- आज जब कुछ जंगली कलहंस एक आकार में नभ को गुंजाते हुए ऊपर उड़ रहे थे और बर्फ से बिखरे खेतों पर वसंत की आहट लिए बयार चल रही थी तब परम पावन दलाई लामा को सुनने लगभग ३०० लोग डीयर पार्क बौद्ध केंद्र में एकत्रित थे।
२०१३ में उनके विगत यात्रा के बाद केंद्र के संस्थापक, गेशे ल्हुनडुब सोपा का निधन हो गया था। अतः मंदिर जाते हुए परम पावन मूल डीयर पार्क के भवन में स्थित गेशे-ला के निवास पर गए जहाँ उन्होंने अपनी श्रद्धा व्यक्त की। तत्पश्चात वे कालचक्र मंदिर गए जहाँ से उन्होंने १९८१ में कालचक्र अभिषेक प्रदान किया था। अंत में बुद्ध शाक्यमुनि और मंदिर में गेशे-ला के स्तूप पर अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए उन्होंने अपना आसन ग्रहण किया।
डीयर पार्क के सम्प्रति आवासीय शिक्षक, गेशे तेनजिन दोर्जे ने परम पावन और १०वीं यात्रा पर उनके दल का स्वागत किया और उनसे आग्रह किया कि संयुक्त राज्य अमेरिका में वे डीयर पार्क को अपना घर जैसा समझें। उन्होंने कहा कि सदस्यों ने उनके शिक्षक के निर्देशों के अनुसार यहाँ एक महाविहार बनाया था और उन्होंने परम पावन के नैतिक समर्थन का अनुरोध किया। उन्होंने परम पावन के अच्छे स्वास्थ्य और कल्याण हेतु प्रार्थना की तथा यह आशा व्यक्त की कि गेशे सोपा के शिष्य शीघ्र ही उनके पुनः अवतरण से मिलेंगे।
"आध्यात्मिक भाइयों और बहनों," परम पावन ने उत्तर दिया, "मैं यहाँ पुनः आकर बहुत खुश हूँ, यद्यपि गेशे-ला अब यहाँ नहीं है। मैं यह देखकर प्रसन्न हूँ कि उनके छात्र व अनुयायी उनकी इच्छाओं को पूरा कर रहे हैं। अतीत के महान गुरु जैसे स्वयं बुद्ध और नागार्जुन हमारे साथ नहीं हैं, परन्तु उनकी शिक्षाएँ २००० से भी अधिक वर्षों से बनी हुई हैं।
"बुद्ध शाक्यमुनि के एक अनुयायी के रूप में, मैं स्वयं को एक साधारण बौद्ध भिक्षु के रूप में मानते हुए गर्व का अनुभव करता हूँ, जिस तरह मुझे अपने आपको नागार्जुन के एक छात्र के रूप में मानते हुए भी गर्व होता है। इन महान शिक्षकों, महान विचारकों, महान दार्शनिकों और तर्क शास्त्रियों ने बुद्ध की शिक्षाओं पर केवल इसलिए विश्वास नहीं किया क्योंकि कि वे उनके अपने शब्द थे, अपितु उन्होंने उनका विश्लेषण किया और उन्हें परखा। बुद्ध ने सलाह दी थी कि वे भिक्षु और विद्वान जो उनका अनुपालन करते हैं उन्हें उनके कथन को तर्क के प्रकाश में देखना चाहिए। परवर्ती भारतीय शिक्षक जैसे नागार्जुन, चन्द्रकीर्ति, बुद्धपालित और भवविवेक ने ठीक ऐसा ही किया। इसी प्रकार विगत ३० वर्षों से मैं आधुनिक वैज्ञानिकों के साथ संवाद और विचार विमर्श में संलग्न हूँ जिनमें से एक रिची डेविडसन हैं, जो अपनी पत्नी के साथ यहाँ बैठे हैं। मैंने रिची से बहुत कुछ सीखा है, जो नालंदा के एक छात्र की तरह वस्तुओं का परीक्षण तथा विश्लेषण करते हैं। और स्वयं नालंदा एक छात्र के रूप में, मैंने कुछ उपाध्यायों तथा विद्वानों की असहजता के बावजूद सार्वजनिक रूप से मेरु पर्वत और एक सपाट पृथ्वी के अस्तित्व जैसे विचारों का परित्याग किया है।"
परम पावन ने आगे कहा कि बुद्ध की शिक्षाएँ और विशेष रूप से नालंदा परम्परा पूरी तरह से तर्क पर आधारित है। उन्होंने कहा कि नालंदा कई सदियों के लिए शिक्षण के एक केंद्र के रूप में फली फूली, पर अब खंडहर के रूप में है। चीनी बौद्ध परम्परा भी नालंदा से निकली है, परन्तु मात्र तिब्बत में दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, शांतरक्षित और कमलशील के तर्क के ग्रंथ संरक्षित हैं। परम पावन ने कहा कि आज न केवल इन ग्रंथों के अनुवाद मौजूद हैं, पर उनकी गहन समझ भी जीवित है।
"गेशे सोपा उन विद्वानों में से थे जिन्होंने तिब्बत से पलायन किया," परम पावन ने कहा, "जिन्होंने भारत में हमारे महविहारों की पुर्नस्थापना की क्षमता में योगदान दिया जहाँ अब १०,००० भिक्षु अध्ययन कर रहे हैं। और तो और अब अन्य स्थानों पर लोग हैं, जो एक शैक्षणिक दृष्टिकोण से बौद्ध मीमांसा और चैतसिक विज्ञान में रुचि ले रहे हैं। १९५९ तक ऐसे लोग थे जो तिब्बती बौद्ध धर्म को बौद्ध धर्म की विशुद्ध परम्परा के रूप में नहीं अपितु लामावाद के रूप में देखते थे। १९५९ से एक सराहना विकसित हुई है कि यदि आप जानना चाहते हैं कि नागार्जुन अथवा दिङ्नाग ने क्या सिखाया तो आप तिब्बती परंपरा में देख सकते हैं। मैंने यह दिखाने का एक प्रयास किया है कि तिब्बती बौद्ध धर्म वास्तव में संस्कृत बौद्ध परम्परा से आती है।
"आज यद्यपि अमेरिका पारम्परिक रूप से एक बौद्ध देश नहीं है पर चूँकि अधिक से अधिक लोग बौद्ध दर्शन और चित्त के विज्ञान में रुचि दिखा रहे हैं, छोटे केंद्र यहाँ वहाँ आ गए हैं। परन्तु बेहतर यह होगा कि वे न केवल पूजा के मंदिर हों अपितु शिक्षा केन्द्र भी हों। मैंने हिमालय क्षेत्र के स्थानों, जैसे लद्दाख में लोगों से आग्रह किया है कि वे यह सुनिश्चित कर लें कि मंदिरों के देखरेख में लगे व्यक्ति को भी पर्याप्त प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि वे आगंतुकों को समझाने में सक्षम हों कि वे वहाँ क्या देख सकते हैं। यहाँ तक कि छोटे विहार भी शिक्षा केंद्र के रूप में कार्य कर सकते हैं।
"यहाँ दिवंगत गेशे-ला के दृढ़ संकल्प के कारण, हमारा एक काफी सुस्थापित केन्द्र है। आप यहाँ अभ्यास कर सकते हैं, आप अनुष्ठान भी कर सकते हैं, परन्तु महत्वपूर्ण बात यह है कि केन्द्र को एक कक्षा के रूप में सोचें। चूँकि यहाँ ऐसे लोग हैं, जो शिक्षाओं को समझाने के लिए अच्छी तरह से योग्य हैं, आपको चित्त के विज्ञान पर कक्षाओं का आयोजन करना चाहिए जो प्रत्येक के लिए आकर्षण रखता हो।"
परम पावन ने ध्यानाकर्षित किया कि चित्त के विज्ञान से सम्बद्धित पारम्परिक ग्रंथ 'प्रमाणवर्तिका' और 'अभिधर्मकोष' पर आधारित हैं और वे ऐसा सौत्रंतिक तथा चित्तमात्र परम्परा के दृष्टिकोण से करते हैं। परन्तु उन्होंने कहा कि बौद्ध तर्क संस्थान के संस्थापक निदेशक लोबसंग ज्ञाछो, जिनकी शुगदेन लोगों द्वारा हत्या कर दी गई, का भी एक ग्रंथ है 'चित्त विज्ञान का उच्च अध्ययन'। इसकी रचना करते हुए उन्होंने प्रासंगिक माध्यमिक की सूक्ष्म दृष्टि से चित्त विज्ञान को प्रस्तुत करने के लिए नागार्जुन और चोंखापा के विचारों को ग्रहण किया। अंततः यह चित्त के प्राचीन भारतीय ज्ञान से आया है।
उन्होंने कहा कि अतीत में तिब्बत में केवल भिक्षु ही इस प्रकार के अध्ययन में शामिल होते थे मानों यह उनका एकाधिकार था। अब साधारण लोग और भिक्षुणियाँ भी भाग ले रही हैं। वास्तव में परम पावन शीघ्र ही भिक्षुणियों को गेशे मा की उपाधि प्रदान करने के एक समारोह में भाग लेंगे। शीघ्र ही शीर्ष विद्वानों के बीच साधारण लोग और भिक्षुणियाँ होंगी। उन्होंने हँसी में लोगों के घरों में अनुष्ठान करते भिक्षुओं की बड़बड़ाहट की सूचना दी कि साधारण लोगों को इतना अधिक सिखाया नहीं जाना चाहिए क्योंकि इससे वे ऐसे प्रश्न पूछते हैं जिनका उत्तर भिक्षु नहीं दे पाते।
"जैसे जैसे विदेशों में चित्त और भावनाओं के प्रकार्य को समझने की रुचि बढ़ती है," परम पावन ने कहा, "वैसे वैसे वैज्ञानिकों के साथ तर्क करने की आवश्यकता बढ़ेगी जो यह स्वीकार नहीं करते कि मस्तिष्क के अतिरिक्त कोई अन्य मानसिक प्रकार्य है। अतः इस तरह केन्द्रों को शिक्षण का केन्द्र होना चाहिए।
"इसके अतिरिक्त उन्हें अंतर्धार्मिक संवाद के लिए अवसर प्रदान करना चाहिए। सभी प्रमुख धार्मिक परंपराएँ प्रेम का एक ही संदेश संप्रेषित करती हैं, फिर चाहे वे एक सृजनकर्ता के विषय में सिखाते हों अथवा नहीं। यदि हम एक अधिक सुखी मानवता का निर्माण करना चाहते हैं और अधिक सार्थक जीवन जीना चाहते हैं तो हमें एक दूसरे के प्रति अधिक प्रेम व स्नेह अभिव्यक्त करना सीखना होगा। हम ईसाई, यहूदी, हिन्दू और मुसलमानों में इन गुणों के कई अद्भुत अभ्यासियों को देखते हैं। चूँकि लोग विभिन्न अभिरुचि और स्वभाव वाले होते हैं अतः ऐसे अलग अलग दृष्टिकोणों की आवश्यकता होती है।
"ऐसे मामले हैं जहाँ धर्म को लोगों के भय का शोषण करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है, पर यह पूर्णरूपेण अनुचित है। जब बुद्ध ने दुःख सत्य की शिक्षा दी तो उन्होंने ऐसा मात्र इस संदर्भ में किया कि उन्होंने उसके निरोध तथा उस निरोध मार्ग की शिक्षा दी। मुझे एक कहानी का स्मरण हो रहा है कि कोई एक व्यक्ति ने खम के महाविहार में आकर उपाध्याय से मिलने की इच्छा की। उनके परिचर ने कहा है कि वे वहाँ नहीं थे क्योंकि वे गाँव में वयोवृद्ध लोगों को डराने के लिए गए हुए थे। यह नालंदा परम्परा के अधःपतन का संकेत है। बौद्ध धर्म में कुछ भी लोगों को भयभीत कराने के लिए नहीं होना चाहिए।
"मेरा अनुरोध है कि आप इसे शिक्षण का एक केन्द्र बनाएँ जो 'लामावाद' की संकीर्ण भावना तक सीमित न हो पर समझने की एक समृद्ध परम्परा के प्रति समर्पित हो जिसके लिए अपने सम्पूर्ण मस्तिष्क के उपयोग की आवश्यकता है। जब मैं पुनः आऊँ तो मैं आपके द्वारा चलाए जा रही कक्षाओं और उन्हें सिखा रहे हैं उन प्रोफेसरों से मिलने की आशा रखता हूँ। मुझे आशा है कि आप विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय तक भी अपने संबंधों का विस्तार कर सकते हैं। मैं आप लोगों को इस बात से भी अवगत कराना चाहता हूँ कि हमने भोट भाषा में पुस्तकें तैयार की हैं जिनमें कांग्यूर और तेंग्यूर से निकाला विज्ञान और दर्शन है। सम्प्रति इनका कई भाषाओँ में जैसे अंग्रेजी, चीनी, जापानी और जर्मन में अनुवाद किया जा रहा है, और यह वर्ष के अंत तक उपलब्ध होंगी। भविष्य में ये पाठ्यपुस्तकें कक्षाओं का आधार बन सकती हैं। धन्यवाद, अब यह समय मध्याह्न भोजन का है।"
मंगलवार को परम पावन गेशे लंगरी थंगपा के चित्त शोधन के अष्ट पदों पर एक लघु प्रवचन देंगे और बुधवार को अपने, अपने समुदाय और विश्व में स्वास्थ्य के विकास पर एक पैनल चर्चा में भाग लेंगे।