स्ट्रासबर्ग, फ्रांस, १७ सितंबर २०१६ - आज परम पावन दलाई लामा की नागार्जुन के 'बोधिचित्तविवरण' पर व्याख्या सुनने के लिए आठ हजार आठ सौ लोग ज़ेनिथ डे स्ट्रासबर्ग, इनडोर खेल के मैदान और कॉन्सर्ट हॉल, जो पोस्टमॉडर्न अभिव्यक्ति शैली में निर्मित है, एकत्रित हुए थे। परम पावन अधिकांश रूप से भोट भाषा में बोले, जिसका फ्रांसीसी में भावपूर्ण अनुवाद श्रद्धेय मैथ्यू रिकार्ड ने पीए सिस्टम पर किया। प्रवचन रेडियो और हेडसेट के माध्यम से अंग्रेजी, इतालवी, जर्मन, रूसी, चीनी, पुर्तगाली, स्पेनिश और वियतनामी में भी उपलब्ध था। इन भाषाओं में सीधे वेबप्रसारण व्यापक स्तर पर विश्व के लिए उपलब्ध थे।
सभागार में आगमन पर, परम पावन गाड़ी से ठीक सीधे मंच की ओर गए, जहाँ सिंहासन के चारों ओर एकत्रित भिक्षुओं में उन्होंने अपने पुराने मित्रों का अभिनन्दन किया, जिसके बाद वे श्रोताओं का अभिनन्दन करने के लिए मंच के किनारे तक आए। उन्होंने अपना आसन ग्रहण किया और आगे कोई विलम्ब किए बिना प्रारंभ किया।
"प्रिय धर्म मित्रों, आज हम साथ मिलकर एक बौद्ध ग्रंथ का अध्ययन करने जा रहे हैं। कुछ शिक्षाएँ ऐसी हैं, जो बौद्ध धर्म की सामान्य संरचना से संबंध रखती हैं और कुछ अन्य जो विशिष्ट लोगों के लिए दी गई हैं, जिनमें अधिकांश रूप से तांत्रिक शिक्षाएँ शामिल हैं। यह शिक्षा सामान्य संरचना के अंतर्गत आती है। इसका संबंध प्रज्ञा- पारमिता सूत्रों से है, जो बुद्ध की सबसे उत्कृष्ट शिक्षाएँ हैं। उनकी अंतर्निहित सामग्री को मैत्रेय ने 'महायान सूत्रालंकार' जैसी रचनाओं में स्पष्ट किया, जबकि उनके मुखर विषय का स्पष्टीकरण नागार्जुन ने अपनी 'मूलमध्यमकारिका', 'शून्यतासप्तति' और 'युक्तिशष्टिका' में दिया है।
"८वीं सदी में, तिब्बती सम्राट ठिसोंग देचेन ने शांतरक्षित और पद्मसंभव को तिब्बत आने के लिए आमंत्रित किया और इस तरह बौद्ध धर्म वहाँ स्थापित हुआ। शांतरक्षित नालंदा विश्वविद्यालय के उस समय के सर्वश्रेष्ठ विद्वानों में से एक थे, जैसे कि उनकी रचनाएँ 'मध्यमकलंकार' और 'तत्वसंग्रह' से प्रकट होता है। उनके शिष्य कमलशील, जो उनके बाद तिब्बत गए, ने 'संग्रह' पर एक पञ्चिका लिखी।
"महान आचार्य पद्मसंभव ने तिब्बत में बौद्ध धर्म की संस्थापना के लिए बाधाओं पर काबू किया और २५ अंतरंग शिष्यों को गूढ़ शिक्षा प्रदान की। परिणामस्वरूप नालंदा विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म के विलंब से फलने फूलने में तिब्बत एक प्रमुख भण्डार बन गया। तिब्बती बौद्ध धर्म कभी कभी लामावाद के रूप में वर्णित किया गया है, मानो जैसे कि यह एक मुख्यधारा परम्परा नहीं, पर जैसे नालंदा परम्परा पहले चीन, कोरिया, जापान और वियतनाम पहुँची सभी तिब्बती बौद्ध परम्पराएँ अपना मूल नालंदा में पाती हैं। सक्या ने विद्वान धर्मपाल का आश्रय लिया जो आचार्य विरूपा बने। कर्ग्यू नरोपा से प्रेरित होते हैं, ञिङमा शांतरक्षित की ओर देखते हैं, जबकि मूल और नव स्वरूप लिए कदम्प भी नालंदा परम्परा पर निर्भर करते हैं। संचरण की धाराएँ, जो तिब्बत से प्रवाहित हुईं उनका स्रोत नालंदा था। बॉन भी, तिब्बत के आदिवासी धर्म का अधिकांश रूप आज बौद्ध परंपरा में विलय हो गया है।"
परम पावन ने टिप्पणी की, कि इस भद्र कल्प के हजार बुद्धों में से चार अब तक प्रकट हुए हैं। उन्होंने स्मरण किया कि बुद्ध का जन्म एक कुलीन परिवार में हुआ था। संसार में दुःखों के रूपों से द्रवित होकर उन्होंने अपना वैभवशाली जीवन त्याग दिया और छह वर्ष तपस्या में संलग्न हुए। अंततः वे बोधि वृक्ष तले इस दृढ़ भाव से बैठे कि वे उस समय तक नहीं उठेंगे जब तक वह बुद्धत्व प्राप्त नहीं कर लेते, जो उन्हें रात्रि के ३ और ४ याम के बीच प्राप्त हुई।
परम पावन ने उल्लेख किया कि वह बुद्ध की शिक्षाओं को पालि और संस्कृत परम्पराओं के रूप में संदर्भित करना पसंद करते हैं। दोनों विहारीय अनुशासन की विनय परम्पराओं पर आधारित हैं। तिब्बती मूलसर्वास्तिवादिन परम्परा का अनुपालन करते हैं, जिसके अनुसार भिक्षु २५३ नियमों का पालन करते हैं, जबकि बर्मा, थाईलैंड, श्रीलंका के बौद्ध थेरावादी परम्परा का पालन करते हैं, जिनके भिक्षु २२७ संवरों का पालन करते हैं। पर सभी उद्देश्यों और प्रयोजनों के लिए वे जिस अनुशासन का प्रतिनिधित्व करते हैं, वह एक ही है।
यह चर्चा करते हुए कि बुद्ध ने क्या शिक्षा दी परम पावन ने समझाया कि चार आर्य सत्य, जिसका संबंध दुःख, इसका समुदय, इसका निरोध और मार्ग हैं, उनकी देशनाओं का आधार हैं। उन्होंने कहा कि प्रत्येक सत्य के संदर्भ में चार विशेषताओं को समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए, दुःख के सत्य को, इसकी अनित्यता, दुःख की प्रकृति, शून्य और नैरात्म्य के रूप में समझा जा सकता है। जब चार आर्य सत्यों की १६ विशेषताओं की समझ को व्यवहृत किया जाता है तो यह ३७ बोध्यांगो को जन्म देता है।
चार आर्य सत्य, प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन के अंतर्गत आते हैं। द्वितीय में प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाएँ आती हैं जिनके विस्तृत तथा संक्षिप्त पाठ हैं। हृदय सूत्र, जो २५ पंक्तियों में प्रज्ञा पारमिता को प्रस्तुत करता है, शून्यता के चार रूपों को संदर्भित करता है - "रूप शून्यता है; शून्यता भी रूप है। रूप से पृथक शून्यता नहीं है; शून्यता से पृथक रूप नहीं है।" परम पावन ने टिप्पणी की कि शून्यता रूप की एक विशेषता है इत्यादि और यह कि शून्यता तथा रूप अलग नहीं पाए जाते। उसी तरह, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान स्वभाव सत्ता का अभाव रखते हैं, पर ज्ञापित रूप में अस्तित्व रखते हैं।
श्रोताओं ने हृदय सूत्र का पाठ फ्रांसीसी में किया। परम पावन ने टिप्पणी की:
"मैंने शून्यता पर ६० वर्षों से चिंतन किया है। लगभग वर्ष पूर्व मैंने नैरात्म्य के एक स्थूल रूप का अनुभव किया है, जो मेरे लिए विद्युत की कड़क के समान थी। चूँकि मैंने इन वर्षों में उस पर निरंतर चिंतन किया है, मैंने इसके अपनी नकारात्मक भावनाओं को कम करने पर पड़ा प्रभाव देखा है।"
नागार्जुन के 'बोधिचित्तविवरण' की ओर संकेत करते हुए, परम पावन ने कहा कि कुछ विद्वानों की मान्यता है कि नागार्जुन इसके प्रणेता नहीं हैं क्योंकि उनके छात्रों में से किसी ने भी इसे संदर्भित नहीं किया। परन्तु वे तंत्र से संबंधित उनकी रचनाओं का भी संदर्भ नहीं देते और इस ग्रंथ का संबंध गुह्यसमाज से है। उन्होंने कहा कि उन्होंने इसका पठन संचरण प्राप्त किया है, पर व्याख्यात्मक संचरण नहीं। इससे इसकी स्थिति केंद्रीय तिब्बत में 'अष्टसहस्र कारिका प्रज्ञा पारमिता' के समान हो जाती है। उन्होंने कहा कि यद्यपि विषय बोधिचित्त है, पर यह मात्र बुद्धत्व के लिए परोपकार का प्रणिधान लिए बोधिचित्त नहीं है। बल्कि इसका संदर्भ जैसे कि एवम् के अक्षर संदर्भित करते हैं, यह शून्यता तथा आनन्द और सत्य द्वय की अविभाज्यता है।
जब परम पावन मध्याह्न भोजन के बाद लौटे तो उन्होंने पूरी गंभीरता के साथ छंदों का चयन करते हुए और उन्हें वर्णित करते हुए, ग्रंथ का पठन प्रारंभ किया।
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लक्षण और उत्पाद रहित,
असंस्कृत और अवाच्य
बोधिचित्त और संबोधि
आकाश से अद्वय है।
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और इसलिए बोधिसत्वों को नित्य भावना करनी चाहिए
सभी धर्मों के इस अधिष्ठान पर
शून्यता, शान्त, माया की भांति और आधार रहित
जो भव में अस्तित्व को नष्ट करता है।
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जब योगी भावना करें
इस शून्यता पर,
तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि उनकी बुद्धि में उत्पादित होगी
परार्थ की कामना।
परम पावन ने टिप्पणी की कि आज जीवित ७ अरब मनुष्यों में हम में से कोई भी दुःख का सामना नहीं करना चाहता पर फिर भी हम उन कारणों में लिप्त रहते हैं जो दुःख को जन्म देता है। उन्होंने शांतिदेव के 'बोधिसत्वचर्यावतार' सलाह में भी इसकी प्रतिध्वनि पाईः
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जितने इष्ट व अनिष्ट फल हैं,
इस लोक में सुगति तथा दुर्गति रूप में
वे सभी उद्भूत होते हैं उपकार या अपकार कर्मों से
जो सत्वों के प्रति किए गए हैं।
समापन में उन्होंने वसुबंधु को उद्धृत किया कि सद्धर्म आगम और अधिगम में निहित हैं। उनके पनपने के लिए हमें उनके अध्ययन व अभ्यास की आवश्यकता है।
कल प्रातः परम पावन चेनरेसिग जिगतेन वंगचुग की अभिषेक प्रदान करेंगे और मध्याह्न में एक सार्वजनिक व्याख्यान देंगे।