वेस्टमिंस्टर, सीए, संयुक्त राज्य अमेरिका, १८ जून २०१६ - परम पावन दलाई लामा को कल इसके औपचारिक उद्घाटन से पूर्व आज नए वियतनामी द्यू ञु बौद्ध मंदिर में प्रवचन देने के लिए आमंत्रित किया गया। शहर के एक भाग से लेकर यह एक अपेक्षाकृत छोटी यात्रा थी और आगमन पर परम पावन का स्वागत विहाराधीश थिच वियन लि और उनके भाई थिच वियन हुइ ने किया। मंदिर से होते हुए जाते समय परम पावन ने बुद्ध शाक्य मुनि की प्रतिमा और उसके दोनों और अवलोकितेश्वर और समंतभद्र की प्रतिमाओं के समक्ष नमन किया। बरामदे में एक शामियाने के नीचे एक सिंहासन रखा गया था और उसके चारों ओर एकत्रित वियतनामी और तिब्बती भिक्षुओं का अभिनन्दन करने के उपरांत परम पावन ने अपना आसन ग्रहण किया।
"प्रिय बौद्ध भाइयों और बहनों," उन्होंने अंग्रेजी में प्रारंभ किया, "मैं यहाँ आप लोगों के बीच के आकर बहुत खुश हूँ। मनुष्य रूप में हम सब समान हैं शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से। मैं आयोजकों को हमें यह अवसर प्रदान करने के लिए धन्यवाद देना चाहूँगा।
"जब भी मैं किसी नए से मिलता हूँ तो मैं चिन्तन करता हूँ कि हम दोनों मनुष्य हैं। हम एक ही तरह से जन्म लेते हैं और एक ही तरह से मरते हैं। जब हम अपने माँ के गर्भ में थे तो उसने हमें व्याकुलता से बचाने के लिए क्रोध या बेचैनी से बचने का प्रयास किया। हमारे जन्म के दो वर्ष पश्चात उसका स्नेह वास्तव में महत्वपूर्ण था। वास्तव में कुछ चिकित्सकों का कहना है कि एक माँ का स्पर्श शिशु के मस्तिष्क के समुचित विकास के लिए महत्वपूर्ण है।
"वैज्ञानिकों ने यह बताने के लिए कि आधारभूत मानव प्रकृति करुणाशील है, प्रमाण खोजे हैं। और फिर हम धर्म में विश्वास करें अथवा न करें, स्नेह व करुणा हमारे चित्त की शांति के महत्वपूर्ण कारक हैं, जबकि कहा जाता है कि निरंतर क्रोध और भय हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को दुर्बल करता है।
"हमारे सम्पूर्ण जीवन में स्नेह महत्वपूर्ण है। अंत में, हम और अधिक चैन का अनुभव कर सकेंगे यदि हमारे आसपास वे लोग हों जिनसे हम प्रेम करते हैं। उस स्थान पर धन और बल का कोई महत्व नहीं रह जाता। जैसे ही 'मैं' की स्थूल भावना घुलने लगती है, अपने निकट स्नेही परिजनों तथा मित्रों की उपस्थिति हमें सहज कर देगी।
"हमारे जीवन के प्रारंभ और अंत के बीच, हम प्रेम व दया के महत्व को विस्मरित सा कर देते हैं। एक भौतिकवादी, प्रतिस्पर्धी जीवन के संदर्भ में, प्रेम व दया अप्रासंगिक लग सकता है। यद्यपि धर्म में कोई रुचि न रखने वाले आंतरिक मूल्यों के प्रति बहुत कम ध्यान देते हैं, पर चूँकि हम सभी मनुष्य हैं अतः करुणा व और स्नेह आवश्यक हैं।
"यदि हम इस तरह के मूल्यों के विकास पर इस समय कार्य प्रारंभ करें तो इस शताब्दी के उत्तरार्ध तक विश्व में हिंसा के कम होने की संभावना हो सकती है। हिंसा शस्त्रों के उपयोग का इतना अधिक नहीं है जितना कि हमारे हृदयों की प्रेरणा को लेकर है। बाह्य निरस्त्रीकरण की प्राप्ति उसी समय होगी, यदि हम पहले आंतरिक निरस्त्रीकरण को प्राप्त करें। इसी तरह विश्व शांति भी चित्त की शांति के आधार पर प्राप्त की जा सकती है। और आंतरिक शांति के बिना समाज में हिंसा को समाप्त करना कठिन होगा।
"हम सभी मानव करुणा का बीज रखते हुए प्राणी हैं। हमें इसके साथ जुड़े आंतरिक मूल्यों, जिसे मैं धर्मनिरपेक्ष नैतिकता का संदर्भ देता हूँ, का विकास करने के लिए अपनी बुद्धि का प्रयोग करना है।"
परम पावन ने समझाया एक बौद्ध भिक्षु के रूप में वह धार्मिक सद्भाव को भी बढ़ावा देने का प्रयास करते हैं। उन्होंने भारत की स्वदेशी धार्मिक परम्पराओं, जैसे हिंदू, बौद्ध और जैन धर्म और वे जो बाहर से आए हैं, जैसे पारसी, ईसाई और इस्लाम के बीच दीर्घ काल से चली आ रही सद्भाव की परम्परा का उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि धार्मिक सद्भाव के समर्थन और बढ़ावा देने में, वह स्वयं को प्राचीन भारतीय विचारों के एक दूत के रूप में देखते हैं। उन्होंने बल देते हुए कहा कि सभी प्रमुख धार्मिक परम्पराएँ प्रेम, करुणा, सहिष्णुता और क्षमा की शिक्षा देती हैं और यद्यपि उनके मध्य दार्शनिक मतभेद हैं पर वे एक समान लक्ष्य को साझा करते हैं। उन्होंने ध्यानाकर्षित किया कि यहाँ तक कि बुद्ध के अनुयायियों के बीच भी अलग-अलग दार्शनिक विचार हैं।
बाहर धूप में तप रहे लोगों को अपने सिरों को ढांकने का परामर्श देते हुए परम पावन ने कहा कि वह बौद्ध शिक्षाओं का एक परिचय देना चाहते थे। उन्होंने भारत में २६०० वर्ष पूर्व बुद्ध के प्रकट होने, कि वह राजमहल में बड़े हुए पर उन्होंने उसका त्याग कर दिया और शमथ तथा विपश्यना द्वारा उपाय व प्रज्ञा के विकासार्थ छह वर्ष की कड़ी तपस्या में लगे रहे, का स्मरण किया। परम पावन ने समझाया कि सारनाथ के प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन में, बुद्ध ने चार आर्य सत्यों में अपने सिद्धांत की नींव रखी।
उन्होंने टिप्पणी की, कि पालि और संस्कृत दोनों परम्पराएँ चार स्मृत्युपस्थानों से अष्टांगिक मार्ग तक इन चार आर्य सत्यों और ३७ बोध्यांगो की शिक्षा देती हैं, जो तृतीय आर्य सत्य निरोध में समाप्त होता है। उन्होंने प्रत्येक आर्य सत्य की चार विशिष्टताओं की भी चर्चा की जो कि प्रथम के संदर्भ में है कि दुःख अनित्य है, दुःख की प्रकृति शून्य व नैरात्म्य है। उन्होंने सुझाव दिया कि एक बार हम चार आर्य सत्य और उनकी १६ आकारों को समझ जाएँ तो हम बुद्ध की देशनाओं तथा किस प्रकार मार्ग का विकास करें, को उचित रूप से समझ पाएँगे।
"जहाँ पालि परम्परा बर्मा, थाईलैंड, लाओस, कंबोडिया और श्रीलंका में पनपती है, नालंदा परम्परा सहित संस्कृत परम्परा का परिचय चीन में हुआ जहाँ से यह कोरिया, जापान और वियतनाम में फैली। बाद में ८वीं सदी में नालंदा परम्परा सीधे तिब्बत में भारत के विहाराध्यक्ष शांतरक्षित द्वारा लाई गई। तिब्बती बौद्ध परम्परा के अंदर हम अनुवाद की दो लहरों में भेद करते हैं, पुराना और नया जो इस पर निर्भर है कि वे ११ शताब्दी के अनुवादक रिनछेन संगपो के पहले हुई अथवा बाद में। तिब्बती भाषा, भारतीय बौद्ध साहित्य के अनुवाद करने की प्रक्रिया के दौरान विकसित हुई जो कि आज यह बुद्ध की शिक्षाओं को सही ढंग से व्यक्त करने की सबसे सक्षम भाषा बनी हुई है।
"बुद्ध के सत्य द्वय सांवृतिक सत्य और परमार्थ सत्य के विवरण को समझ कर, जिसकी चार परम्पराओं में चर्चा हुई है और जिसका विकास भारत में हुआ, अज्ञान पर काबू पाना संभव है और भव चक्र से स्वयं को छुड़ाया जा सकता है। प्रज्ञा पारमिता सूत्र जिसका उदाहरण हृदय सूत्र है, स्पष्ट रूप से शून्यता को समझने वाली प्रज्ञा को स्पष्ट रूप से समझाती है, जबकि परोक्ष रूप से करुणा के कुशल साधन को वर्णित करती है।"
मध्याह्न भोजनोपरांत लौटने के पश्चात परम पावन, भैषज्य बुद्ध की अनुज्ञा देने के लिए तैयारियों में लग गए, जबकि वियतनामी भिक्षुओं ने पहले हृदय सूत्र का पाठ किया तत्पश्चात तिब्बती भिक्षुओं ने भैषज्य बुद्ध के मंत्र का जाप किया। परम पावन ने उल्लेख किया कि भैषज्य बुद्ध का विशिष्ट अभ्यास जो वे दे रहे हैं वह ५वें दलाई लामा की गहन दूरदर्शी शिक्षाओं से आया है।
"जहाँ पालि परंपरा मुक्ति की प्राप्ति पर बल देती है, वहीं संस्कृत परम्परा वहाँ रुकती नहीं अपितु बोधिचित्तोत्पाद कर सभी सत्वों के लिए काम करने के साहस का आह्वान करती है।"
उन्होंने बुद्ध, धर्म और संघ में शरण गमन और प्रबुद्धता के लिए परोपकारी प्रेरणा के छंद पर आधारित कर एकत्रित जनमानस को बोधिचित्तोत्पाद में नेतृत्व किया। उसके बाद उन्होंने लापीस लाजुली के रंग के भैषज्य बुद्ध की भावना करने के क्रमों का निर्देशन किया।
वह कल इसके भव्य उद्घाटन समारोह में भाग लेने के लिए द्यू ञु बौद्ध मंदिर लौटेंगे।