मिनियापोलिस, मिनेसोटा, संयुक्त राज्य अमरीका - २१ फरवरी, २०१६- परम पावन दलाई लामा ने आज प्रातः तड़के ही मिनियापोलिस के लिए, जो लगभग मोटर से नब्बे मील की दूरी पर है, धार्मिक संस्था से प्रस्थान किया जहाँ वह रोचेस्टर में रह रहे हैं। वहाँ के स्थानीय तिब्बती समुदाय ने उन्हें प्रवचन के लिए आमंत्रित किया था। यात्रा के दौरान वे रोलिंग फील्ड के बर्फ से जमे परिदृश्य से होते हुए गुज़रे, जहाँ अभी भी बर्फीले ठंड के चिह्न दिखाई दे रहे थे ।
मिनियापोलिस कन्वेंशन सेंटर में आगमन पर तिब्बती समुदाय के प्रतिनिधियों ने उनका गाड़ी के बाहर कदम रखते ही स्वागत किया और पारंपरिक 'छेमा छंगफू' प्रस्तुत किया। उनके मंच पर स्थान ग्रहण करते ही तिब्बती बच्चों ने नृत्य किया और उनकी प्रशंसा में एक रमणीय गीत गाया। दमकते तथा स्वस्थ चेहरे से उन्होंने एकत्रित लामाओं और भिक्षुओं का अभिनन्दन करने से पहले श्रोताओं की ओर देख हाथ हिलाया। मिनियापोलिस की महापौर, बेट्सी होड्जेस और राज्य प्रतिनिधि कैरोलिन लेन ने उनका अपने शहर में स्वागत किया।
मिनेसोटा के तिब्बती अमेरिकन फाउंडेशन के अध्यक्ष डॉ छेवांग ङोडुब ने परम पावन के अच्छे स्वास्थ्य के लिए हर्ष व्यक्त कर और फाउंडेशन के निमंत्रण को स्वीकार करने के लिए उन्हें धन्यवाद देते हुए संक्षेप में बात रखी। उन्होंने लोसर के कारण उसके मंगल अवसर होने, चमत्कार के दिन के पूर्व के दिन तथा गुरु पद्मसंभव के साथ अनुकूल वानर वर्ष का भी उल्लेख किया। उन्होंने तिब्बती प्रवासियों के सक्रिय सदस्य होने, उनके स्थानीय समुदायों में योगदान और वैश्विक नागरिक के रूप में स्वयं को संचालित करने के मिनेसोटा तिब्बतियों के उद्देश्य की पुष्टि की। उन्होंने इच्छा व्यक्त की कि परम पावन का चिकित्सा उपचार पूर्ण रूप से सफल हो।
चेनेरेज़िग, भैषज्य बुद्ध और गुरू रिनपोछे के थंकाओं के समक्ष विराजमान परम पावन ने अपना व्याख्यान आरंभ किया:
"मैं सदैव अपने भाइयों और बहनों का अभिनन्दन करते हुए प्रारंभ करता हूँ। मैं इसी रूप में आप सबके बारे में सोचता हूँ और ७ अरब मनुष्यों के बारे में सोचता हूँ अतः मैं कभी भी अकेला नहीं होता। यहाँ कई तिब्बती शरणार्थियों के रूप में आए यद्यपि उनमें से कई अब इस संसार में नहीं हैं। अब यहाँ एक नई पीढ़ी है जिसका जन्म तथा पालन पोषण यहाँ हुआ। अब जब मैं मेयो क्लिनिक की देख रेख में हूँ तो मैं आपसे पिछले दस वर्षों में यदा कदा मिलता रहा हूँ। दो वर्ष पूर्व हमने एक साथ लोसर (नव वर्ष) मनाया और मैं आप सबसे पुनः मिलकर खुश हूँ।
"मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि आप हमारे पारम्परिक मूल्यों के संरक्षण का प्रयास कर रहे हैं। हमें निर्वासन में रहते हुए ५७ वर्ष हो चुके हैं जबकि तिब्बत में अशांति ६० वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई थी। परन्तु आपने अपना उत्साह बनाए रखा है जो सराहनीय है और हमारे पोषित मूल्यों को बनाए रखा है जिसके लिए मैं आप सभी का धन्यवाद करना चाहता हूँ। तिब्बती भावना प्रबल है और हमने अपनी संस्कृति और धार्मिक परम्पराओं को जीवित रखा है जो महत्वपूर्ण है, क्योंकि उन्हें विश्व के लिए एक व्यापक स्तर पर योगदान देना है। इस पर गर्व किया जा सकता है। नालंदा परम्परा तर्क और कारणों पर आधारित है और यही कारण है कि इसके कई पक्ष आज के वैज्ञानिकों के लिए आकर्षक हैं। हम तिब्बती कहीं और जाने की बजाय इन परम्पराओं का अध्ययन हमारी अपनी भाषा में करने में सक्षम हैं। यह हमारा उत्तरदायित्व बनता है कि हम इन परम्पराओं को जीवित रखें और अपने बच्चों का पालन पोषण प्यार और स्नेह से करें।
"आज मैं एक बौद्ध या दलाई लामा के रूप में नहीं, अपितु एक मनुष्य के रूप में अपने विचारों और मेरे अनुभवों के विषय में बात करना चाहता हूँ।"
उन्होंने कहा कि वह दूसरों के साथ साझा करने के लिए प्रतिबद्ध थे कि अधिक सुख और अधिक शांति से रहने के लिए मानवता की किस प्रकार सहायता की जाए। मुख्य बात दूसरों के कल्याण हेतु सोच विकसित करना है, करुणा की भावना। उन्होंने कहा कि हम जिन कई समस्याओं का सामना कर रहे हैं वे हमारी अपनी निर्मित हैं, जिनमें से सबसे अधिक बुरा वह है जब अन्य लोग मारे जाते हैं। उन्होंने उल्लेख किया कि जब हम किसी को एक बाघ या हाथी द्वारा मारे जाने का समाचार सुनते हैं तो हम चिंता का अनुभव करते हैं, पर हम लोगों द्वारा एक दूसरे को मारे जाने की सूचना को सामान्य मानकर स्वीकार करते हुए से जान पड़ते हैं। उन्होंने अपने श्रोताओं को स्मरण कराया कि यद्यपि वे जहाँ बैठे थे वहाँ आराम था पर उसी समय विश्व के अन्य भागों में लोग हिंसक रूप से मर रहे थे, कुछ धर्म के नाम पर। उन्होंने हमारे शारीरिक और वाचिक कार्यों और अपनी भावनाओं के बीच की कड़ी की ओर ध्यान आकर्षित किया। यदि क्रोध, घृणा और शंका के स्थान पर हम प्रेमयुक्त दया से चालित होते, तो स्वाभाविक रूप से हममें दूसरों के प्रति अधिक सम्मान होगा और हमारे कर्म अहिंसक होंगे।
परम पावन ने कहा कि हम एक भौतिकवादी दुनिया में रहते हैं जिसमें मानवीय मूल्यों के प्रति पर्याप्त ध्यान का अभाव है। हम संतोष के लिए सौहार्दता के स्थान पर भौतिक वस्तुओं पर निर्भर रहते हैं। पर मनुष्य के रूप में हम सामाजिक प्राणी हैं। हमें मैत्री की आवश्यकता है और मैत्री विश्वास पर निर्भर करती है। विश्वास का निर्माण दूसरों के लिए चिंता पर और उनके अधिकारों की रक्षा पर निर्भर करता है न कि उनका अहित कर। मैत्री का सौहार्दता से सीधा संबंध है जो हमारे शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी है। उन्होंने कहा कि कुछ वैज्ञानिकों ने पाया है कि निरंतर क्रोध, भय और संदेह हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को क्षीण करते हैं।
"मेरे अनुभव के अनुसार हमें जिस वस्तु की आवश्यकता है वह एक शांत चित्त है और उसके लिए सौहार्दता एक आधार प्रदान करता है। और इसी तरह हम स्वयं को व्यक्ति के रूप में परिवार, स्थानीय समुदायों और राष्ट्रों में खुश रखते हैं। मेरा मानना है कि यदि हम जो आज युवा हैं उन्हें इन मूल्यों में प्रशिक्षित कर सकें तो विश्व इस सदी के उत्तरार्ध में एक अधिक शांतिपूर्ण स्थान बन जाएगा। मैं मानव मूल्यों को बढ़ावा देने का प्रयास करता हूँ क्योंकि हम भूल जाते हैं कि मनुष्य के रूप में हम सभी एक समान हैं। यदि आप मुझे अपने मित्र के रूप में देखते हैं तो ऐसा ही करने का प्रयास करो। यह ऐसा नहीं है जिसके लिए हम सरकार या संयुक्त राष्ट्र से आशा करें, वास्तविक परिवर्तन व्यक्तियों के साथ आरंभ होता है। हममें से प्रत्येक को योगदान देना है। मैं आपसे भी ऐसा करने का अनुरोध करता हूँ।"
सभागार के ३००० लोगों के मध्य तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी।
"मुझे एक बात जोड़ने दें," परम पावन ने पुनः प्रारंभ किया। "मैं विगत ३० वर्षों से भी अधिक समय से वैज्ञानिकों के साथ बातचीत में लगा हूँ। उनमें से कई चित्त के विज्ञान के बारे में सीखने में रुचि रखते हैं। चित्त की प्राचीन भारतीय समझ गहन है जब उसकी तुलना आधुनिक मनोविज्ञान से की जाती है जो विकास के प्रारंभिक चरण में दृष्टिगत होती है।
"परन्तु वैज्ञानिकों ने दिखाया है कि यहाँ तक कि वे शिशु जो बात तक नहीं कर सकते वे भी हानिकारक और सहायक व्यवहार के चित्रों के बीच अंतर कर सकते हैं तथा सहायता के प्रति सकारात्मक और हानि के प्रति नकारात्मक रूप से प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि आधारभूत मानव स्वभाव करुणाशील है। और यह हमें आशा प्रदान करता है।"
परम पावन ने समझाया कि उनकी दूसरी प्रतिबद्धता अंतर्धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने की है। उन्होंने घोषणा की कि अपने स्पष्ट दार्शनिक मतभेदों के बावजूद, सभी धर्म प्रेम, क्षमा और सहिष्णुता का एक आम संदेश वहन करते हैं। उनका आम उद्देश्य करुणाशील मानवों को जन्म देना है। उन्होंने मानवता की सेवा हेतु समर्पित धार्मिक लोगों के उदाहरण प्रस्तुत किए। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि बुद्ध ने अलग अलग समयों और स्थानों पर अलग अलग लोगों को अलग अलग कुछ सिखाया। इसका कारण यह नहीं था कि वे भ्रमित थे और न ही इसलिए कि वह दूसरों को भ्रमित करना चाह रहे थे। इसका कारण था कि समझते थे कि विभिन्न अभिरुचि वाले लोग विभिन्न व्याख्याओं को भली तरह समझते हैं, ठीक उसी तरह जैसे एक ही रोग के उपचार के विभिन्न उपाय हो सकते हैं।
इसकी ओर ध्यान आकर्षित करते हुए कि कई धर्म सृजनकर्ता ईश्वर की शिक्षा देते हैं पर कुछ अन्य ऐसे हैं जैसे सांख्य परम्परा की एक शाखा, जैन और बौद्ध धर्म जो सिखाते हैं कि हम जो करते हैं उसका उत्तरदायित्व हमारे अपने कंधों पर टिका है। यद्यपि ईश्वर का अनंत प्रेम के रूप में चिंतन और उनका अनुकरण करने की सोच एक प्रबल अभ्यास है।
"हम में से जो लोग एक धार्मिक अभ्यास का पालन करते हैं हमारा धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने हेतु कार्य करने का अपना एक उत्तरदायित्व बनता है।"
अपने व्याख्यान के दौरान परम पावन कुछ समय भोट भाषा में बोले और अपने अनुवादक से जो उन्होंने कहा उसका सार बताने को कहा और अन्य समय वे स्वयं ही सीधे अंग्रेजी में बोले।
"मैं भी एक तिब्बती हूँ," उन्होंने कहा, "और चूँकि जब से मैं छोटा था तब से तिब्बतियों द्वारा पोषित किया गया हूँ, मैं कभी भी तिब्बत के प्रश्न को छोड़ नहीं सकता। २००१ में मैं राजनीतिक उत्तरदायित्व से आंशिक रूप से सेवानिवृत्त हुआ और २०११ में पूरी तरह से सेवानिवृत्त हुआ। मैंने ऐसा लोकतंत्र को बढ़ावा देने के लिए किया। पर फिर भी, तिब्बत के भीतर और बाहर के तिब्बतियों ने मुझ पर आशा रखी है, पर अब मेरा उत्तरदायित्व तिब्बत के प्राकृतिक वातावरण की रक्षा के लिए कार्य करना है जो कि ऊंचाई और शुष्क जलवायु के कारण कमज़ोर व नाजुक है। चूँकि उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव की तरह वे उसे वैश्विक जलवायु परिवर्तन के लिए महत्वपूर्ण रूप में देखते हैं, कुछ पर्यावरणविदों ने तिब्बती पठार को तीसरे ध्रुव के रूप में संदर्भित किया है। इसकी विशेष रूप से देखभाल की आवश्यकता है।"
तिब्बती संस्कृति को शांति और अहिंसा की संस्कृति के रूप वर्णित करते हुए परम पावन ने सुझाया कि यह विश्व को एक और अधिक शांतिपूर्ण, करुणाशील स्थान बनाने में योगदान दे सकती है। जहाँ तक तिब्बत की बौद्ध परम्पराओं का प्रश्न है, तो उन्होंने कहा कि इसमें भारत के नालंदा विश्वविद्यालय का समग्र संचरण है जिसमें तर्क, मनोविज्ञान और दार्शनिक विचारों का व्यापक रूप है। ये परम्पराएँ ३०० से अधिक खंडों में अनुवादित जो कि अधिकांश रूप से संस्कृत से तिब्बती में हुई हैं बौद्ध साहित्य में निहित हैं।
इस समय लाल पोशाक में सजी एक छोटी सी बच्ची मंच के ठीक सामने आकर खड़ी हुई तथा परम पावन की ओर देखती रही। वे मुस्कुराए, उसकी ओर देख हाथ हिलाया और उससे पूछा कि वह कितने वर्ष की थी और सुना कि वह चार की थी। वह टकटकी लगाकर उनकी ओर देखती रही और फिर मुड़कर अपने परिवार के पास दौड़ कर लौट गई। परम पावन ने टिप्पणी की:
"इस तरह के बच्चे बहुत विशुद्ध और मुक्त होते हैं। उनमें किसी तरह का पक्षपात या पूर्वाग्रह नहीं होता। वे रंग, आस्था, राष्ट्रीयता, धन या शिक्षा जैसे गौण अंतर से विचलित नहीं होते जिनको लेकर वयस्क उलझ जाते हैं।अच्छा होगा कि हम उन जैसे हों और एक उपाय यह है कि हम स्मरण रखें कि हम सभी मनुष्य के रूप में समान हैं।"
परम पावन ने महान नालंदा विद्वान शांतरक्षित द्वारा तिब्बत में नालंदा परम्परा के लाने के अपने विवरण को जारी रखा। वे सम्राट ठिसोंग देचेन के निमंत्रण पर आए। यह तथ्य कि वह एक महान विद्वान थे हम आज उनके 'तत्वसंग्रह' जैसी रचनाओं से जान सकते हैं जो परम पावन ने कहा कि उन्होंने सुझाया था कि दोनों, नमडोललिंग के ञिङमा महाविहार और दक्षिण भारत में टाशी ल्हुन्पो महाविहार, अपने पाठ्यक्रमों में शामिल करें। शांतरक्षित ने पहली महाविहारीय दीक्षा तिब्बत में दी, समये में प्रथम महाविहार की स्थापना में सहायता की और महान ग्रंथों की व्याख्या की साथ ही भोट भाषा में तिब्बती बौद्ध साहित्य के अनुवाद में भाग लिया और प्रोत्साहित किया। प्रसिद्ध भारतीय यात्री, राहुल सांकृत्यायन जिन्होंने २०वीं सदी के पूर्वार्ध में तिब्बत के कई चक्कर लगाए, आश्चर्य व्यक्त किया कि यद्यपि तिब्बत में गुरु पद्मसंभव की छवियाँ व्यापक रूप से मौजूद थीं पर उन्होंने शांतरक्षित की एक प्रतिमा भी नहीं देखी।
८वीं शताब्दी की उपलब्धियों के बाद ९वीं में, तिब्बत राजनीतिक रूप से खंडित हो गया और बौद्ध धर्म का ह्रास हुआ। ११वीं शताब्दी में पूर्व सम्राटों के वंशज, ङारी के राजा ने भारतीय विश्वविद्यालय विक्रमशिला से दीपांकर अतीश को आमंत्रित किया। उन्होंने थोलिंग में अपने प्रमुख ग्रंथ 'बोधि पथ प्रदीप' की रचना की। उनके प्रमुख छात्र डोम तोन ग्यालवई जुंगने ने कदम्प परंपरा की स्थापना की। उसमें ऐसे लोग थे जो विद्वानों के वंशजों से जुड़े थे, जिन्होंने भारतीय शास्त्रीय ग्रंथों का अध्ययन किया, वे जो पथ क्रम के वंश से जुड़े थे, और वे जो निर्देश के वंश से संबंध रखते थे। पोतोवा के शिष्य और 'चित्त शोधन के अष्ट पदों' के रचयिता जिस पर प्रवचन देने हेतु परम पावन को आमंत्रित किया गया था, विद्वानों के वंशज थे।
ग्रंथ पर चर्चा करते हुए परम पावन ने समझाया कि पहला पद परोपकार के अभ्यास पर बल देता है - 'मैं सदा सभी सत्वों का पोषित करूँ ।' परन्तु परम पावन ने पूछा, 'मैं' किसे संदर्भित करता है? उन्होंने समझाया कि जहाँ कई भारतीय दार्शनिक एक स्वतंत्र स्वयं के अस्तित्व पर बल देते हैं, सभी चार बौद्ध परम्पराएँ एक स्थायी, स्वतंत्र, आत्म - पूरित आत्मा को अस्वीकार करती हैं। उन्होंने नागार्जुन को उद्धृत किया:
पुरुष न पृथ्वी, न ही जल है,
न अग्नि, न वायु, न अंतरिक्ष है
न विज्ञान, और न ही सब कुछ है
तो इनसे परे पुरुष कहाँ?
यह देखते हुए कि जहाँ कोई व्यक्ति इन छह तत्वों के आधार पर नामित किया जाता है, वे तत्व भी केवल ज्ञापित रूप में अस्तित्व रखते हैं। परम पावन ने स्पष्ट रूप से कहा कि इसे समझना सरल नहीं है और वह इस पर ६० वर्षों से अध्ययनरत हैं। उन्होंने सुझाया कि ४० वर्ष पहले इसकी समझ होने लगी थी। यह पूछते हुए कि इस तरह की समझ का क्या उपयोग है, उन्होंने उत्तर दिया कि यह चित्त की शांति के विकास से संबंधित था। परम पावन ने उल्लेख किया कि जब वह कुछ दिनों पूर्व कुछ ईसाई भिक्षुणियों से बात कर रहे थे तो एक ने पूछा कि अपने प्रबल अहं के बारे में क्या किया जा सकता है। उन्होंने उनसे कहा कि स्वयं को समूचे ईश्वर की सृष्टि मात्र एक छोटा अंग मानना बहुत शक्तिशाली है।
'अष्ट पदों' की ओर पुनः लौटते हुए उन्होंने समझाया कि पहला पद बताता है कि आपमें दूसरों के लिए करुणा व स्नेह होना चाहिए। दूसरा विनम्रता के बारे में है, तीसरा दैनिक जीवन में जागरूकता के बारे में है, उदाहरणार्थ जब आपको क्रोध अधिक होता अनुभव करें तो प्रेम के प्रतिकार का प्रयोग करें। चौथा पद कि जब आपका सामना गंवार अनियंत्रित लोगों से हो तो क्रोध के काबू में न आएँ, अपितु करुणा प्रदर्शित करें, जबकि पाँचवां सुझाता है दूसरों को विजय देते हुए स्वयं पराजय स्वीकार करें। छठवां पद धैर्य को विकसित करने की सलाह देता है, जब वे, जिनकी आपने सहायता की है आपको तिरस्कृत करते हैं। सातवें का संबंध देने और लेने के अभ्यास से है, कल्पना करें कि आप दूसरों को पुण्य दे रहे हैं और उनके दुःख अपने पर ले रहे हैं। अष्ट पदों का अंतिम पद आपको बताता है कि आप अष्ट लौकिक धर्मों के समक्ष घुटने न टेकें और सब कुछ स्वतंत्र अस्तित्व का अभाव रखते हुए एक माया की तरह देखें।
तत्पश्चात परम पावन लगभग ३००० की सभा का जिसमें २००० तिब्बती शामिल थे बोधिचित्तोत्पाद के आधार के रूप में तीन पदों का पाठ करने में नेतृत्व किया। पहले पद के संबंध में जो कि बुद्ध, धर्म और संघ में शरण लेने से संबंधित था, उन्होंने कहा कि वे लोग जो अन्य आस्थाओं से संबधित हैं अपने शरण की वस्तुओं की कल्पना कर सकते हैं। दूसरा पद स्पष्ट रूप से बोधिचित्तोत्पाद के विकास से संबंधित था और तीसरा अभ्यास को करने हेतु साहस को जन्म देता है।
जब तक हो अंतरिक्ष स्थित
और जब तक जीवित हों सत्व
तब तक मैं भी बना रहूँ
संसार के दुख दूर करने के लिए
परम पावन ने पञ्च मार्ग के माध्यम से जिसका संबंध उन्होंने हृदय सूत्र में पाए जाने वाले मंत्र के साथ जोड़ा, विकास करने की एक संक्षिप्त व्याख्या के साथ अपने व्याख्यान का अंत किया। उन्होंने कहा कि पहला गते संभार मार्ग को इंगित करता है, दूसरा गते प्रयोग मार्ग की ओर, पारगते दर्शन मार्ग की ओर, पारसंगते भावना मार्ग की ओर और बोधि स्वाहा प्रबुद्धता मार्ग की ओर संकेत करता है।
आयोजकों के प्रतिनिधियों द्वारा श्वेत रेशमी 'खाता' की प्रस्तुति के पश्चात परम पावन मुस्कराए और आनन्दित जन मानस की ओर देख हाथ हिलाते हुए मंच से प्रस्थान किया। कार में पुनः सवार हो रोचेस्टर वापसी से पहले उनको मध्याह्न का भोजन प्रस्तुत किया गया।