थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, भारत, २ जून २०१६ - आज प्रातः परम पावन दलाई लामा चुगलगखंग पर पहुँचे, सिंहासन के आसपास बैठे लोगों का अभिनन्दन किया तथा अपना आसन ग्रहण किया। 'प्रज्ञा पारमिता सूत्र' का पाठ किया गया, जिसके पश्चात नागार्जुन की बुद्ध वंदना का पाठ हुआ। तत्पश्चात परम पावन ने एक छंद उद्धृत किया जो बुद्ध की शिक्षाओं का सार है:
एक भी अकुशल कर्म न करो
पुण्य सम्पदा का संभार करो
अपने चित्त को पूर्ण रूपेण वश में करो
यही बुद्ध की देशना है।
यह छंद सिंहासन के पीछे की दीवार पर और बुद्ध की प्रतिमा के बगल में तिब्बती, हिंदी और अंग्रेजी में एक पटल पर अंकित है।
परम पावन ने कहा कि अकुशल कर्म और पुण्य परम के बजाय सांवृतिक शब्द हैं। उन्होंने जातक कथाओं में एक पोत के प्रमुख की कथा का स्मरण किया जिसने अनुभव किया कि उसके पोत में सवार ५०० धनाढ्य व्यापारियों में से एक अपने साथियों की हत्या करने की योजना बना रहा था। व्यर्थ में उसका विरोध करते हुए उसने गणना की, कि यदि वह इस एक पथ भ्रष्ट व्यक्ति की हत्या करेगा तो वह न केवल अन्य ४९९ व्यापारियों को बचा सकेगा परन्तु साथ ही उस व्यक्ति को भी उन्हें मारने के गंभीर परिणामों से सुरक्षित कर सकेगा। इस संबंध में यद्यपि एक मुनष्य के प्राण लेने के नकारात्मक परिणाम होंगे, पर ऐसे करने के महान पुण्य की तुलना में वह कम होगा। परम पावन ने कहा:
"बौद्ध के रूप में हम कहते हैं कि हमें अकुशल कर्म नहीं करने चाहिए क्येंकि परिणाम स्वरूप हमें दुःख झेलना होगा, केवल इसलिए नहीं कि बुद्ध ने कहा कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए।"
चित्त के वश में करने के संबंध में उन्होंने जिस छंद को उद्धृत किया था उसका संदर्भ देते हुए परम पावन ने प्रश्न रखा, चित्त क्या है? और उल्लेख किया कि ऐसे वैज्ञानिक हैं जो तर्क देते हैं कि चित्त मस्तिष्क के एक प्रकार्य से अधिक कुछ नहीं है।
अपर टीसीवी के युवा बच्चों ने रंग के विषय में सामूहिक शास्त्रार्थ किया। उसके बाद किंचित बड़ी उम्र के दल ने कारणों और परिस्थितियों पर विचार-विमर्श किया। एक बार जब उन्होंने समाप्त किया तो स्थानीय बौद्ध धर्म परिचय समिति के एक सदस्य ने बताया कि उस पर धर्म के अध्ययन का क्या प्रभाव पड़ा था। उन्होंने स्पष्ट किया सत्य द्वय के अध्ययन ने उनमें एक अंतर ला दिया था और वह सत्वों की दया की सराहना करने लगे थे। हम न केवल सत्वों की दया के परिणाम स्वरूप बुद्धत्व प्राप्त करते हैं, पर अब जीवन में जिसका आनन्द ले रहे हैं वह उन पर निर्भर करता है। परम पावन ने उन्हें बताया कि इस तरह की एक समझ प्राप्त करना, "धर्म के उद्देश्य को पूरा करता है।"
जनमानस का एक अन्य सदस्य परम पावन के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उठ खड़ा हुआ कि उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप युवा तिब्बतियों ने अपनी संस्कृति का मूल्य सीखा है। उन्होंने अतीत, वर्तमान और भविष्य के छात्रों की ओर से उनके प्रति आभार व्यक्त किया और उन्हें भैषज्य बुद्ध की एक थंका भेंट की ।
मस्तिष्क और चित्त के बीच संबंध की ओर लौटते हुए परम पावन सूचना दी कि २०वीं सदी के अंत में कुछ वैज्ञानिकों ने यह पूछना प्रारंभ किया था कि मस्तिष्क के अतिरिक्त क्या कुछ अन्य सूक्ष्म चेतना नहीं हो सकती। उन्होंने उस प्रश्न को दोहराया जो कि उन्होंने उनमें से कुछ के समक्ष रखा है। गर्भाधान के लिए यदि सभी भौतिक स्थितियों अपने स्थानों पर हैं गर्भ, डिंब और शुक्राणु सबसे अच्छी स्थिति में हैं, तो क्या गर्भाधान स्वाभाविक रूप से हो सकता है। उत्तर है नहीं। उनका कहना है कि चेतना की आगे की स्थिति संभवतः उपस्थित नहीं हो।
मध्यमक दृष्टिकोण को दोहराते हुए कि शरीर और चित्त के आधार पर आत्म केवल ज्ञापित है, परम पावन ने टिप्पणी की:
"अमृतसर में एक अंतर्धार्मिक सम्मेलन में अजमेर के एक प्रमुख सूफी शिक्षक ने कहा कि सभी धर्म तीन प्रश्नों से जूझते हैं। 'मैं' या आत्म क्या है? क्या इसका प्रारंभ है? और क्या इसका एक अंत है?
"इस बात पर ज़ोर देते हुए कि स्वभाव सत्ता लिए हुए कोई आत्म नहीं है, बौद्ध कहते हैं कि आत्म शरीर और चित्त के संयोजन पर निर्भर करता है। और चूंकि ऐसा है और चूँकि चित्त का कोई आदि नहीं है तो आत्म का कोई प्रारंभ नहीं है। इस संबंध में कि क्या इसका अंत है, बहुमत बौद्ध दृष्टिकोण है कि इसका अंत नहीं है, यद्यपि कुछ वैभाषिकों का कहना है कि जब एक अर्हत की मृत्यु होती है तो कोई आत्म शेष नहीं रहता।"
सत्रों के बीच में एक छोटे अंतराल के दौरान छात्रों ने परम पावन से प्रश्न पूछे। पहला जो यह जानना चाहता था कि क्या एक बौद्ध होने के लिए त्रिरत्न में शरण लेना ही एकमात्र कसौटी थी, उन्होंने उत्तर दिया कहा कि चार मुद्राओं को स्वीकार करनाः
सभी संस्कृत धर्म अनित्य हैं।
सभी सास्रव धर्म दुख की प्रकृति में हैं।
सभी धर्म शून्य और नैरात्म्य हैं।
निर्वाण वास्तविक शांति है।
दृष्टिकोण से संबंधित एक और उपाय है।
उन्होंने एक अन्य छात्र से जिसने बौद्ध धर्म की चार परम्पराओँ के विषय में प्रश्न किया था, से कहा कि जब बुद्ध ने चार आर्य सत्य की व्याख्या की तो उन्होंने शून्यता का उल्लेख किया पर इसका स्पष्टीकरण द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन के दौरान प्रज्ञा पारमिता की शिक्षा में अधिक स्पष्ट रूप से किया गया था। बाद में नालंदा आचार्यों इसे और अधिक विस्तार से व्याख्यायित किया।
एक छात्र की प्रशंसा करते हुए जिसने उनके प्रति विगत वर्ष की सलाह के लिए कृतज्ञता व्यक्त की थी और उन्हें बताया कि वह नित्य मृत्यु और अनित्यता तथा मुक्ति के दृढ़ निश्चय पर ध्यान करता है, परम पावन ने विद्वान, विनम्र तथा कोमलता जैसे गुणों के विकास की सराहना की। जब एक अन्य छात्र ने यह जानना चाहा कि जो कुछ हम इस जीवन में सीखते हैं, वह परवर्ती जीवन में किस तरह लाभकर हो सकता है, परम पावन ने उसे बताया कि प्रारंभिक समझ जो शब्द हम पढ़ते अथवा सुनते हैं उस पर निर्भर करता है, पर जब हम उस पर चिंतन करते हैं और उसके प्रति आस्था विकसित करते हैं तो जो हमने समझा है उसका प्रभाव और अर्थ चित्त में रहता है, फिर चाहे हमें मूल शब्द स्मरण ही न हों।
डोमतोनपा के अात्मप्रेरित श्रद्धा के वृक्ष का पाठ जारी रखते हुए परम पावन ने उल्लेख किया कि एक गुरु के जो आवश्यक गुण हैं वे विनय में उल्लिखित हैं, जबकि सूत्र दस योग्यताओं को सूचित करता है। उन्होंने जे चोंखापा को उद्धृत करते हुए कहा कि जो लोग दूसरों के चित्त का शमन करना चाहते हैं उन्हें पहले अपने स्वयं के चित्त का शमन करना चाहिए। जहाँ बोधिचित्त उल्लेख किया गया था, परम पावन ने टिप्पणी की कि उसके कई गुणों में से एक है कि जिनमें यह साहस व विश्वास के साथ है उसे समर्थन प्रदान करना है।
उन्होंने घोषणा की कि कल वे बोधिचित्तोत्पाद विकसित करने के एक समारोह का नेतृत्व करेंगे और चूँकि इन प्रवचनों के मुख्य ग्रहणकर्ता छात्र हैं, वह मंजुश्री प्रज्ञा के साकार रूप की अनुज्ञा भी देंगे।
"मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि यदि आप विश्लेषणात्मक ध्यान में लगे रहने के अतिरिक्त मंजुश्री पर निर्भर हों तो आप अपनी प्रज्ञा तथा बुद्धि को बढ़ा सकते हैं, उन्होंने समाप्त किया।