बोल्डर, सीओ, संयुक्त राज्य अमेरिका, २३ जून २०१६ - कल मध्याह्न वर्षा के पश्चात ताज़ी हवा थी और खिली धूप थी जब आज प्रातः परम पावन दलाई लामा गाड़ी से बोल्डर केकूर्स इवेंट सेंटर रवाना हुए। द्वार पर उनका पारम्परिक तिब्बती रूप से स्वागत किया गया। कोलोराडो विश्वविद्यालय के कुलाधिपति फिल दिस्टिफेनो उनका अभिनन्दन करने और उनका सभागार तक अनुरक्षण करने के लिए उपस्थित थे। कोलोराडो के तिब्बती एसोसिएशन के अध्यक्ष ने कार्यक्रम का परिचय दिया और तिब्बती बच्चों के एक बड़े समूह ने गीत गाया और मंच के सामने नृत्य किया।
कोलोराडो कांग्रेसी जारेड पोलिस ने एक जोशीला भाषण दिया जिसमें उन्होंने तिब्बत के आध्यात्मिक और लौकिक नेता के रूप में परम पावन की भूमिका और एक शांति मानव के रूप में उनके प्रति सराहना व्यक्त की। उन्होंने २०वीं और २१वीं सदी के हिंसा को समाप्त करने के लिए धर्मनिरपेक्ष नैतिकता की आवश्यकता के संबंध में उनके वकालत का संदर्भ दिया। उन्होंने परम पावन का स्वागत करने के बोल्डर के अवसर को एक सम्मान का विषय बताया और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच श्रोताओं को शांति के लोग होने के लिए शांतिमय होने को कहा।
बोल्डर की महापौर मेयर सूज़न जोंस ने बोलते हुए कहाः "परम पावन यहाँ अपनी उपस्थिति से हमें आशीर्वचित करते हैं।" उन्होंने परम पावन को उद्धृत करते हुए कहा कि मात्र करुणाशील होना पर्याप्त नहीं है हमें उसे व्यवहार में भी लाना है। इस ओर ध्यानाकर्षित करते हुए कि कल 'काम के लिए साइकिल' पर जाने का दिन था, उन्होंने उन्हें एक साइकिल जर्सी और सफेद साइकिल चालन हेलमेट भेंट स्वरूप दिया जिसे परम पावन ने तुरंत पहन लिया जिसे देख चारों ओर हँसी गूंजी। उन्होंने कहा कि हम इसे आध्यात्मिक यात्रा में स्वयं की सुरक्षा की आवश्यकता के लिए एक प्रतीक के रूप में देख सकते हैं जो कि हृदय सूत्र में निहित प्रज्ञा पारमिता मंत्र से संकेतित होता है। कांग्रेसी और महापौर ने जो कहा था उसकी सराहना करते हुए वे अपना व्याख्यान प्रारंभ करने के लिए बैठे।
"भाइयों और बहनों, मैं मानता हूँ हम मनुष्य रूप में सब समान हैं, मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक रूप से। एक और अधिक शांतिपूर्ण विश्व और एक स्वस्थ वातावरण सुनिश्चित करने के लिए हम कभी कभी दूसरों की ओर यह कहते हुए उंगली उठाते हैं कि उन्हें ये या वो करना चाहिए। परन्तु परिवर्तन व्यक्तियों के रूप में हमसे शुरू होना चाहिए। यदि एक व्यक्ति अधिक करुणाशील हो जाए तो वह दूसरों को प्रभावित करता है और इस तरह हम विश्व बदल देंगे।"
उन्होंने कहा कि वह तिब्बती आचार्य गेशे लङ-रि-थङ-पा द्वारा रचित एक छोटे पाठ 'चित्त शोधन के अष्ट पद’, जिसका पाठ वह स्वयं के लिए दशकों से नित्य प्रति करते आ रहे हैं, की व्याख्या करेंगे। उन्होंने कहा कि यह नालंदा परम्परा के प्रतीक के रूप में है जिसकी विशिष्टता उसके तर्क और कारण का प्रयोग है।
उन्होंने आगे कहा कि वे जब भी विदेश में बौद्ध शिक्षाएँ समझाते हैं, वे यह मानते हैं कि विभिन्न देशों की अपनी स्वयं की आध्यात्मिक परंपराएँ हैं और पश्चिम में ज्यूडो - ईसाई परम्परा है। जहाँ एक ओर वे साधारणतया लोगों को जिस परम्परा में उनका जन्म हुआ है उस परम्परा में बने रहने की सलाह देते हैं पर वे स्वीकार करते हैं कि लोग अपना विकल्प चुनने के लिए स्वतंत्र हैं और कुछ लोग अपने लिए बौद्ध धर्म को विशेष रूप से प्रभावी पाते हैं। उन्होंने भारत की विभिन्न धार्मिक परंपराओं की दीर्घ कालीन परम्परा, जिनमें स्वदेशी परम्पराएँ जैसे सांख्य, जैन और बौद्ध और जो बाहर से आई हैं जैसे पारसी, यहूदी, ईसाई और इस्लाम के सद्भाव से एक साथ कंधे से कंधा मिलाकर रहने की ओर ध्यानाकर्षित किया।
"ये सभी धार्मिक परम्पराएँ, प्रेम और करुणा का संदेश सम्प्रेषित करती हैं उसे और अधिक प्रभावी बनाने के लिए वे सहिष्णुता और क्षमा की भी शिक्षा देते हैं। और चूँकि क्रोध का संबंध प्रायः आसक्ति और लोभ से जोड़ा जाता है, परोपकारिता के अभ्यास की रक्षा के लिए, वे संतोष सिखाते हैं। स्पेन में मैं एक ईसाई भिक्षु से मिला, जो पहाड़ों पर रोटी और चाय से थोड़े अधिक में एक सन्यासी की भांति रह रहा था। मैंने उससे उसके अभ्यास के संबंध में पूछा और उसने मुझे बताया कि वह प्रेम पर ध्यान कर रहा था और जब उसने मुझे बताया तो मैंने उसकी आंखें करुणा व आनन्द से चमकती हुई देखी। उसकी शारीरिक स्थिति दुर्बल था, पर आध्यात्मिक रूप से वह सम्पन्न प्रतीत हो रहा था। मेरा मानना है कि हमारी सभी धार्मिक परम्पराओं में अच्छा मनुष्य बनाने की क्षमता है।"
बौद्ध धर्म की ओर अपना ध्यान मोड़ते हुए परम पावन ने बताया कि किस तरह पालि परम्परा चार आर्य सत्यों और ३७ बोध्यांगों में निहित आधारभूत शिक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है। इनमें चार स्मृत्युपस्थान हैं और उन्होंने उल्लेख किया कि किस प्रकार काय स्मृत्युपस्थान का संबंध दुःख की प्रकृति की समझ से है, प्रथम आर्य सत्य। वेदना स्मृत्युपस्थान का संबंध दुःख समुदय और द्वितीय आर्य सत्य से है। चित्तानुदर्शस्मृत्युपस्थान का संबंध सच्चे निरोध और तीसरे आर्य सत्य से है जबकि धर्मानुदर्शमृत्युपस्थान मार्ग की समझ से है जिसका संदर्भ चौथे आर्य सत्य में दिया गया है।
यह सूचित करते हुए कि मनोचिकित्सक हारून बेक ने उन्हें बताया था कि किसी वस्तु के प्रति हमारी सम्पूर्ण नकारात्मकता अथवा वांछनीयता जिसे लेकर हम क्रोधित हैं अथवा आसक्त हैं, हमारा ९५% मानसिक प्रक्षेपण है। परम पावन ने कहा कि यह उससे मेल खाता है, जो नागार्जुन कहना चाहते हैं। उन्होंने नागार्जुन के ग्रंथ 'प्रज्ञाज्ञानमूलमध्यमकारिका' से एक श्लोक उद्धृत किया:
कर्म और क्लेशों के उन्मूलन से निरोध है।
कर्म और क्लेश धारणात्मक विचार से आते हैं।
ये मानसिक अतिशयोक्ति या प्रपञ्च से आते हैं।
शून्यता से प्रपञ्च का निरोध होता है।
उन्होंने टिप्पणी की कि जिस तरह क्वांटम भौतिकी दावा करता है कि किसी का वस्तुनिष्ठ अस्तित्व नहीं है, वस्तुएँ जिस रूप में दिखाई देती हैं उस रूप में अस्तित्व नहीं रखती। उन्होंने पुनः 'मूलमध्यमकारिका' को उद्धृत किया:
जो प्रतीत्य समुत्पाद है
उसे शून्यता कह व्याख्यायित किया जाता है
चूँकि वह प्रतीत्य प्रज्ञप्ति है
वह मध्यमा प्रतिपत् है
ऐसा कोई धर्म नहीं
जो प्रतीत्य समुत्पन्न न हो
इसलिए ऐसा कोई धर्म नहीं
जो शून्यता न हो
यह समझना कि किसी का भी आंतरिक अस्तितिव नहीं होता, हमारी आसक्ति की भावना को शिथिल करती है। यह एक ऐसा उदाहरण है कि नालंदा आचार्यों के दार्शनिक दावे सिर्फ कुछ कहने मात्र के लिए नहीं थे। हम अपनी विनाशकारी भावनाओं से निपटने के लिए वास्तविकता की स्पष्ट समझ को हथियार की तरह काम में ला सकते हैं । परोपकारिता, दूसरे ओर हमारे स्वार्थी व्यवहार का प्रतिकारक है।
परम पावन ने घोषित किया कि अपनी भावनाओं को परिवर्तित करने के लिए हमें अपनी बुद्धि का प्रयोग करना चाहिए। अगर हम बौद्ध हैं तो हमें २१वीं सदी का बौद्ध होना चाहिए, जिसका अर्थ है कि हमें अध्ययन करने की आवश्यकता है।
"मैं लगभग ८१ वर्ष का हूँ, पर मैं अभी भी अपने आपको इन महान आचार्यों का एक छात्र मानता हूँ। हम तिब्बतियों में कहावत है कि जब तक आप बुद्धत्व तक न पहुँचे आपका अध्ययन पूरा नहीं हुआ है।"
'चित्त शोधन के अष्ट पदों' को लेते हुए, परम पावन ने कहा लेखक गेशे लङ-रि थङ-पा का संबंध कदमपा परम्परा से था, जो दीपांकर अतीश का अनुपालन था, जिनका उनकी रचना 'बोधिपथप्रदीप' के कारण तिब्बती बौद्ध धर्म पर व्यापक प्रभाव था, यह रचना एक तिब्बती राजा के अनुरोध पर लिखी गई थी। भारतीय बौद्ध ग्रंथों के वंशजों से आए हुए इस ग्रंथ का निकटतम स्रोत शांतिदेव का 'बोधिसत्वचर्यावतार' है। वह नागार्जुन की 'रत्नावली' और 'बोधिचित्तविवरण' में दिए गए निर्देशों से प्रेरित हुआ है। और सूत्र में नागार्जुन का स्रोत 'अवतंशक सूत्र' था।
परम पावन ने पहले पद के 'मैं' के विषय में सोच की सराहना की। उन्होंने एक धार्मिक सम्मेलन में एक सूफी से हुई भेंट का स्मरण किया जिन्होंने कहा कि सभी धार्मिक परम्पराएँ तीन प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास करती हैं: मैं कौन हूँ? मैं कहाँ से आया हूँ? और यहाँ से मैं कहाँ जाता हूँ? परम पावन ने टिप्पणी की कि बौद्ध एक स्वतंत्र आत्मा को स्वीकार नहीं करते, पर केवल एक शरीर और मन पर ज्ञापित।
परम पावन ने ग्रंथ का पाठ जारी रखा और टिप्पणी की कि दूसरा पद विनम्रता से संबंध रखता है, तीसरा पद विनाशकारी भावनाओं के लिए प्रतिकारकों के प्रयोग से और चौथा पद दुष्ट प्रकृति के लोगों को पोषित करने से संबंधित है। पांचवें पद में देने और लेने का अभ्यास शामिल है, जबकि छटवां पद समझाता है कि हमारे वैरी हमारे सबसे श्रेष्ठ शिक्षक हो सकते हैं। सातवें पद में देने लेने का एक अन्य पक्ष शामिल है जबकि अंतिम पद में दो अभ्यासों का सुझाव दिया गया हैः यह सुनिश्चित करना कि हमारे अभ्यास अष्ट लौकिक धर्मों से मलिन न हों और सभी धर्मों को मायोपम समझें।
परम पावन ने अपने प्रवचन का समापन सभा को बोधिचित्तोत्पाद हेतु एक संक्षिप्त समारोह का नेतृत्व करते हुए किया, जिसमें चित्त शोधन के अष्ट पदों के पहले पद का तीन बार पाठ किया गया। इसके बाद उन्होंने बुद्ध, अवलोकितेश्वर, मंजुश्री और आर्य तारा के मंत्रों का संचरण किया।
मध्याह्न भोजनोपरांत वे एक सार्वजनिक व्याख्यान के लिए उसी मंच पर लौटे। चूंकि ९००० सशक्त श्रोताओं को वापस लौटकर अपनी जगह लेनी थी, उन्होंने श्रोताओं के कई प्रश्नों के उत्तर दिए। मानव जीवन का उद्देश्य पूछे जाने पर उन्होंने कहा सुख। यह दावा करते हुए कि उनका इस विषय में कोई अनुभव न था, जिनसे यह प्रश्न पूछना कि किस तरह बच्चों को करुणाशील रूप में पाला जाए, उन्होंने सुझाया कि माता पिता उन पर स्नेह की बौछार करें। यद्यपि उनके व्याख्यानों में सांकेतिक भाषा के दुभाषियों की व्यवस्था होती है पर पहली बार किसी ने इस माध्यम से परम पावन से प्रश्न किया। उन्होंने उससे कहा कि हमें हमारी शिक्षा प्रणाली में नैतिक सिद्धांतों को शामिल करने के लिए उपाय ढूँढने हैं, जो सम्प्रति अपर्याप्त रूप से सम्प्रेषित करते हैं। इस तरह के मानवीय मूल्यों को हमारे सामान्य अनुभव, सामान्य ज्ञान और वैज्ञानिक निष्कर्षों से निकाला जाएगा।
परम पावन के व्याख्यान में यह विषय जारी रहा, जो अधिक से अधिक सौहार्दता और करुणा की आवश्यकता थी। उन्होंने टिप्पणी की कि हम अब इतने अन्योन्याश्रित हैं कि समूची मानवता को शामिल करना हमारे अपने हित में है। इस बात को लेकर वे स्पष्ट थे कि सच्ची आशा उस पीढ़ी के साथ है जो अभी ३० से कम आयु के हैं, २१वीं सदी के हैं। यदि उन्होंने इस समय अतीत से सीखना प्रारंभ किया और एक अलग भविष्य को आकार दिया तो इस सदी के बाद के समय तक विश्व के एक अधिक शांतिपूर्ण स्थान होने की संभावना है।
परम पावन ने समाप्त किया:
"जो कुछ भी मैंने कहा है यदि उसमें आपको कोई अर्थ दिखाई दे तो कृपया उस पर अधिक सोचें, अपने मित्रों के साथ इस पर चर्चा करें और उसे कार्यान्वित करने का प्रयास करें। कभी कभी मैं उन युवतियों से हँसी मज़ाक में कहता हूँ जो अपने आपको सुन्दर बनाने के लिए क्या कुछ नहीं करतीं, बहुत ध्यान से सौंदर्य प्रसाधन आदि आदि का प्रयोग। पर महत्वपूर्ण बात यह है कि जहाँ अच्छा दिखना ठीक है, पर बाह्य सौंदर्य से भी अधिक महत्वपूर्ण है सौहार्दता का आंतरिक सौंदर्य।"
जब परम पावन ने विदा लेते हुए हाथ हिलाया तो श्रोताओं ने तालियाँ बजाई और हर्ष व्यक्त किया। कल वह इंडियाना की यात्रा करेंगे।