"जैसा कि आप जानते हैं कि मैं लगभग ८१ वर्ष का हूँ और मेरे घुटनों में कुछ कठिनाई है इसलिए यद्यपि एक शिक्षक को शिक्षण देने से पहले बुद्ध के समक्ष साष्टांग करना चाहिए, पर अब यह बहुत मुश्किल हो गया है। परन्तु मेरा दिमाग अभी भी तेज है। प्रत्येक दिन अपने अभ्यास में मैं अपनी बुद्धि का पूरा उपयोग करता हूँ। मैं वास्तविकता के विषय में सोचता हूँ, विश्लेषण और विश्लेषण।"
उन्होंने कहा कि चूँकि वहाँ से मंदारिन, कोरियाई, जापानी, रूसी, मंगोलियाई और अंग्रेजी में साथ साथ अनुवाद किया जा रहा है, वह अपनी ही भाषा में बिना रुके बात करेंगे।
"सभी मनुष्यों में गलत और सही में अंतर करने की क्षमता है, पर जब हम क्रोध या लगाव के प्रभाव में होते हैं तो हम विवेक की क्षमता खो देते हैं। अपनी बुद्धि का पूरा उपयोग करने के लिए हमें एक शांत चित्त की आवश्यकता होती है। करबद्ध अंजलि से यह कहते हुए कि 'मैं शरण में जाता हूँ ...' पर्याप्त नहीं है, हमें कारण का प्रयोग करना होगा। और हम चित्त की प्रकृति से अनभिज्ञ से रहते हैं। हमें जानने की आवश्यकता हो कि हम चित्त को किस तरह आकार दें, उसे अस्थिर से शांत रूप में परिवर्तित करने के लिए। श्रवण, चिंतन और मनन की प्रज्ञा का विकास सहायक होगा।"
परम पावन ने टिप्पणी की, कि बुद्ध के काय, वाक तथा चित्त के विभिन्न ऋद्धिपूर्ण पक्षों में से उनकी देशना (शिक्षा) सबसे अधिक प्रभावपूर्ण है। उन्होंने वास्तव में बुद्ध की प्रकृति को समझने के महत्व पर बल दिया, क्योंकि, जैसा कि उन्होंने कहा, चित्त परिवर्तन के लिए अंधा विश्वास एक आधार नहीं है। मात्र विश्वास के लिए अधिक बुद्धि की आवश्यकता नहीं होती, और यह बुद्ध की शिक्षाओं को सुनिश्चित नहीं करेगा। दूसरी ओर विश्लेषण का प्रयोग यह सुनिश्चित करेगा कि यह दीर्घ काल तक बना रहे। दृढृ विश्वास को उचित रूप से समझ और प्रज्ञा पर आधारित होना चाहिए।
जबकि प्रथम धर्म चक्र प्रवर्तन ने चार आर्य सत्य प्रस्तुत किया, द्वितीय जो गृद्ध कूट पर दिया गया था, का संबंध प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाओं से है। ये बल देते हैं कि जो कुछ भी अन्य परिस्थितियों पर निर्भर करता है वह स्वभाव सत्ता नहीं रख सकता। परम पावन ने टिप्पणी की, कि वह पालि और संस्कृत परम्पराओं का संदर्भ देते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि 'महायान' और 'हीनयान' शब्द लोगों को एक गलत धारणा देता है। उन्होंने आगे कहा कि संस्कृत परम्परा में आधार, मार्ग और परिणाम की सभी व्याख्याएँ कारण पर आधारित हैं।
परम पावन ने तर्क और ज्ञान-मीमांसा के एक महान आचार्य धर्मकीर्ति के प्रति प्रशंसा व्यक्त की, जिन्होंने वैध अनुभूति पर सात ग्रंथों की रचना की। बाद में, नालंदा विश्वविद्यालय के एक अग्रणी आचार्य, शांतरक्षित ने योगाचर - स्वातंत्रिक - माध्यमिक विचार सिद्धांत परम्परा की स्थापना कर उसे और आगे बढ़ाया जिसमें नागार्जुन के माध्यमक तथा असंग के योगाचार को धर्मकीर्ति के तर्क और ज्ञान-मीमांसा के साथ जोड़ा गया। आधुनिक वैज्ञानिक इन विधियों की तुलना अपनी खोजों से करने में रुचि दिखा रहे हैं। जहाँ चित्तमात्र परम्परा बाह्य वस्तुओं के न मिलने पर बल देती है क्वांटम भौतिकी का सुझाव है कि बाह्य वस्तुएँ देखने वाले चित्त पर निर्भर करती हैं। परम पावन ने उदाहरण दिया, जिसे वे बुद्ध का वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहते हैं, उनका अपने अनुयायियों से यह कहना कि वे जो कहते हैं वे उसे श्रद्धा के कारण उसी रूप में स्वीकार न करें अपितु जांच और प्रयोग के माध्यम उसका परीक्षण करें और केवल उसी समय स्वीकार करें यदि उसमें कुछ सार्थकता प्रतीत हो।
जिस ग्रंथ का शिक्षण वे देने वाले थे उसकी ओर उन्मुख होते हुए परम पावन ने कहा कि इसका मुख्य जोर बोधिचित्तोत्पाद और शून्यता की समझ थी। पहला अध्याय, बोधिचित्त के लाभों की रूपरेखा से प्रारंभ होता है, जबकि नौवां शून्यता की व्याख्या प्रस्तुत करता है जिसके पिछले अध्याय प्रारंभिक हैं। ऐसा देखा गया है कि जहाँ करुणा सत्वों पर केन्द्रित है, प्रज्ञा प्रबुद्धता पर केन्द्रित होती है।
परम पावन ने सलाह दी कि उनकी व्याख्या चार दिनों में विस्तार पाएगी और कहा कि इसे अध्ययन करने और सीखने के रूप में लिया जाना चाहिए, आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए नहीं। उन्होंने कहा कि बोधिचित्तोत्पाद के लिए शांतिदेव का दृष्टिकोण, परात्मसमपरिवर्तन तीक्ष्ण बुद्धि वालों के लिए है जब इसकी तुलना अतीश द्वारा कारण कार्य के सप्त बिन्दुओँ की शिक्षा से की जाती है। उन्होंने यह भी सलाह दी है कि चूँकि 'बोधिसत्वचर्यावतार' का नवां अध्याय जटिल व कठिन है, नागार्जुन के 'प्रज्ञा मूल मध्यम कारिका' और चन्द्रकीर्ति के 'मध्यमकावतार' को पढ़ना सहायक होगा।
उन्होंने कहा कि उन्हें १९६७ में खुनु लामा रिनपोछे से 'बोधिसत्वचर्यावतार' की एक व्याख्या प्राप्त हुई। चूँकि उन्होंने इसे बहुत सहायक पाया तो वे जब भी अवसर मिलता है, इसकी शिक्षा देते हैं। लेकिन, उन्होंने कहा, महत्वपूर्ण बात है कि जो उसमें सुझाया गया है उसको लागू किया जाए, उदाहरण के लिए अध्याय छह, जो धैर्य से संबंधित है, वह क्रोध के विषय में जो बताता है उसे व्यवहार में लाया जाए। उन्होंने सिफारिश की, कि उनके श्रोता प्रत्येक दिन ग्रंथ का एक छोटे अंश को पढ़ने और अपने अभ्यास के रूप में उस पर चिंतन करने का प्रयास कर सकते हैं।
एक क्षण के लिए ग्रंथ को एक तरफ रखते हुए परम पावन घोषणा की:
"सबसे पहले तो मैं आज जीवित ७ अरब मनुष्यों में से एक हूँ। मनुष्य के रूप में हम सभी आधारभूत रूप में एक ही हैं। हम इस रूप में एक आम अनुभव को साझा करते हैं कि हम सबों ने माँ से जन्म लिया है। हम उसकी देखभाल और स्नेह के कारण जीवित रहते हैं। नवजात शिशुओं के साथ काम कर रहे वैज्ञानिकों के निष्कर्ष सुझाते हैं कि आधारभूत मानव स्वभाव करुणाशील है। सामान्य ज्ञान हमें बताता है भले ही कोई परिवार निर्धन हो, पर यदि वे स्नेह भरे वातावरण में रहें तो वे सुखी होते हैं। एक धनी परिवार, जो भली तरह सम्पन्न है, पर संदेह और ईर्ष्या से पीड़ित हो वह दुखी होता है। स्पष्ट है कि जहाँ प्रेम और करुणा है, सुख उसके पीछे होता है।
"हम सामाजिक प्राणी हैं। हमें मित्रों की आवश्यकता होती है और मैत्री विश्वास पर निर्भर करती है। दूसरों के प्रति चिंता और प्रेम जताते हुए हम विश्वास स्थापित करते हैं। चूँकि हम अन्योन्याश्रित हैं, प्रेम और करुणा हमारे जीवन में महत्वपूर्ण हैं। हाल ही में मैं बीबीसी पर यह सुन कर प्रोत्साहित हुआ कि अधिक संख्या में युवा लोग स्वयं को वैश्विक नागरिक के रूप में मानते हैं।
"इसी तरह, यूरोपीय संघ का निर्माण देशों का एक उदाहरण है जिन्होंने अतीत में आपस में एक दूसरे से युद्ध किया और अब अतीत को पीछे छोड़ अपने साझे हितों को प्राथमिकता दे रहे हैं। हम सबों के लिए इस तरह का एक परिपक्व दृष्टिकोण अपनाना और अपने आपको वैश्विक नागरिक के रूप में मानना अच्छा होगा। इसके स्थान पर हम, 'हम' और 'उन' के संदर्भ में सोचने लगते हैं, इसके बावजूद जैसा मैंने ऊपर उल्लेख किया है, तथ्य यह है कि मनुष्य के रूप में हम सब समान हैं, एक ही परिवार के सदस्य।"
सम्प्रति शिक्षा का वर्णन करते हुए, जो भौतिकवादी लक्ष्यों पर केंद्रित है, तथा जिसमें किस तरह चित्त की शांति खोजी जाए पर बहुत कम कहा गया है, परम पावन ने टिप्पणी की, कि वह धर्म का क्षेत्र हुआ करता था। परन्तु आज जब धर्म का वह सार्वभौमिक आकर्षण नहीं रहा जो पहले हुआ करता था, तो मानवीय मूल्यों के लिए एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण की आवश्यकता है। उन्होंने आधुनिक शिक्षा में धर्मनिरपेक्ष नैतिकता लागू करने के प्रस्तावों का उल्लेख किया।
तिब्बती बौद्ध धर्म के मूल की ओर मुड़कर देखने पर, परम पावन ने बोधिसत्व उपाध्याय शांतरक्षित, जिन्होंने सिद्ध गुरु पद्मसंभव और राजा सोंगचेन गमपो के साथ काम किया, के प्रयासों का स्मरण किया। बाद में जब तिब्बत राजनीतिक रूप से खंडित हो गया तो ङरी के राजा ने अतीश को आमंत्रित किया। उन्होंने 'बोधिपथप्रदीप' लिखा और कदमपा परम्परा की स्थापना की। 'बोधिसत्वचर्यावतार' कदमपा के छह शास्त्रीय ग्रंथों में से एक है।
"आज, महत्वपूर्ण बात अध्ययन करने की है," परम पावन ने सलाह दी। "निर्वासन में, विहार जो अतीत में मात्र अनुष्ठान किया करते थे उन्होंने अध्ययन के कार्यक्रमों का प्रारंभ किया है। भिक्षुणियाँ भी अध्ययन कर रही हैं और पहला समूह शीघ्र ही स्नातक होगा और उन्हें गेशे-मा की उपाधि से सम्मानित किया जाएगा। हम सभी को २१वीं सदी के बौद्ध होने की आवश्यकता है, जिसका अर्थ है कि हम कम से कम बुद्ध, धर्म और संघ, शिक्षक, उनकी देशना, निरोध मार्ग, और उन लोगों का समुदाय जो इसे अभ्यास में लेकर आया, को समझें।"
मध्याह्न भोजन के उपरांत लौटने पर परम पावन ने जो खुनु लामा रिनपोछे ने उनसे कहा था, उसे दोहराया कि चूँकि इसकी रचना ८वीं शताब्दी में हुई थी 'बोधिसत्वचर्यावतार' चित्त के प्रशिक्षण के लिए एक सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। उन्होंने कहा कि प्रमुख बात मात्र उसका पाठ करना नहीं है, परन्तु जैसा इसमें आया है, उसे प्रभाव में लाना है। उन्होंने बोधिचर्यावतार शीर्षक में आए 'बोधि' शब्द की व्याख्या महान प्रबुद्धता का त्याग और अनुभूति का संदर्भ देते हुए की। उन्होंने अनुवादक द्वारा मंजुश्री को श्रद्धांजलि के लिए और रचना हेतु लेखक की प्रतिज्ञा का उल्लेख किया।
उन्होंने स्पष्ट किया कि हम मुक्ति प्राप्त करने के लिए बुद्ध, धर्म और संघ में शरणागत होते हैं। मुक्ति क्लेशों को नष्ट करने का परिणाम है। चित्त में गहन भ्रांति अथवा ग्राह्यता क्लेशों को जन्म देती है। उन्होंने अमेरिकी मनोचिकित्सक हारून बेक का उल्लेख किया जिन्होंने उनसे कहा था कि जब हम क्रोधित होते हैं तो हमारे क्रोध की वस्तु पूरी तरह नकारात्मक प्रतीत होती है। यह धारणा ९०% मानसिक प्रक्षेपण है। दूसरे शब्दों में, धारणात्मक विचार वस्तु की प्रकृति को अतिरंजित करती है तथा क्रोध या आसक्ति को भड़काती है।
"मैं अपने शिक्षक, ङोडुब छोगञी की प्रेरणा पर ६० वर्ष से भी अधिक वर्षों से शून्यता पर चिन्तन व मनन करता आ रहा हूँ और जो नागार्जुन कहते उस को लेकर सजग हूँ:
कर्म और दुःख के उन्मूलन के माध्यम से मुक्ति है।
कर्म और क्लेश धारणात्मक विचार से आते हैं।
ये मानसिक प्रपञ्च से आते हैं।
शून्यता से प्रपञ्च का निरोध होता है।"
सभी दुःखों का मूल क्लेश हैं और उनका मूल अज्ञानता है। जो दुःख का शमन करना चाहते हैं उन्हें प्रज्ञा उत्पन्न करनी चाहिए। नवें अध्याय का दूसरा श्लोक बताता है कि 'सत्य की पहचान के दो प्रकार हैं: सांवृतिक तथा परमार्थिक। परमार्थिक सत्य बुद्धि की सीमा से परे है। बुद्धि को सांवृतिक यथार्थ कहा जाता है। सत्य द्वय एक ही इकाई के हैं, जैसा कि हृदय सूत्र में उक्त है: रूप शून्यता है, शून्यता रूप है, आदि आदि। नवां अध्याय जारी रखता है, इसके प्रकाश में दो प्रकार के लोग देखे जा सकते हैं: मननशील अथवा योगी और साधारण व्यक्ति, योगी साधारण लोगों से आगे निकल जाते हैं, जिसका अर्थ है कि वे साधारण सांसारिक व्यक्ति के दृष्टिकोण को गलत मानते हैं।'
परम पावन ने पहले और दूसरे अध्याय को तेजी से पढ़ा। पहले में उन्होंने वह चित्त जो प्रबुद्धता की कामना करता है और वह चित्त जो उस ओर प्रवृत्त होता है उन में अंतर किया। अंतर है कि क्या बोधिसत्व छह पारमिताओं में लगा हुआ है। दूसरा अध्याय, जो बुराई को प्रकट करने से संबंधित है, मृत्यु की अनिवार्यता पर बल देता हैः
न दिन में और न ही रात में रहते हुए
जीवन निरंतर व्यय होता जाता है
और कभी दीर्घ हुए बिना
मुझ जैसे को मृत्यु क्यों नहीं आएगी?
घोषणा करते हुए कि उन्होंने प्रथम दो अध्यायों को पूरा कर लिया था, परम पावन ने दोहराया कि यह अध्ययन और सीखने का अवसर था, केवल आशीर्वाद प्राप्त करने का नहीं। उन्होंने कहा कि श्रोताओं को इन आठ सत्रों से जो लाभ होगा वह उनके सम्पूर्ण जीवन को प्रभावित कर सकता है। उन्होंने श्रद्धेय यंगतेन रिनपोछे का परिचय कराया, जिनको उन्होंने एक अच्छे युवा विद्वान के रूप में वर्णित किया, जो लोगों ने जो भी पढ़ा है उन पर जो भी प्रश्न हों उनके उत्तर दे पाएँगे।
प्रवचन कल जारी रहेगा।