ल्यूरा, न्यू साउथ वेल्स, ऑस्ट्रेलिया, ५ जून २०१५ - परम पावन दलाई लामा आज प्रातः ठीक ८ बजे से पहले और श्रोताओं के आगमन से पूर्व एक रिक्त प्रवचन सभागार में प्रविष्ट हुए। उन्होंने प्रबुद्ध सत्वों की मूर्तियों के समक्ष सम्मान व्यक्त किया और एक छोटे मंडल मंडप के समक्ष सभागार की ओर पीठ करते हुए आसन ग्रहण किया। उन्होंने बिना विलम्ब के वज्रभैरव अभिषेक के लिए आनुष्ठानिक तैयारियाँ प्रारंभ की। लगभग आधे घंटे के उपरांत लोगों ने आना और अपनी कुर्सियाँ ढूँढनी प्रारंभ कीं । भिक्षु तथा भिक्षुणियों ने आगे की कई पंक्तियों में अपना स्थान ग्रहण किया। अनुष्ठान के पूर्ण होने के पश्चात परम पावन ने एक लघु अंतराल लिया और जन समुदाय का अभिनन्दन करने लौटे।
"भाइयों और बहनों, मैं पुनः एक बार यहाँ आकर बहुत प्रसन्न हूँ। मैं आप में से कई ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के लोगों को अनेक वर्षों से जानता हूँ, तो यह एक प्रकार का पुनर्मिलन और साथ ही कुछ नए मित्र बनाने का एक अवसर है। हम सभी भाई बहनें हैं, जो एक जैसा सुखी जीवन प्राप्त कर सकने की क्षमता रखते हैं। पर सुख का परम स्रोत भौतिक वस्तुओं में नहीं, अपितु हमारे आंतरिक गुणों में है। हम सभी में बुद्ध प्रकृति और दुख से उबरने की क्षमता है। चाहे हम ईश्वर में विश्वास रखते हों या बुद्ध के अनुयायी हों, जिन शिक्षाओं का हम पालन करते हैं, वे हमें आत्मविश्वास और आंतरिक शक्ति देती हैं।
"हमारा भविष्य बाकी मानवता पर निर्भर करता है। मनुष्य के रूप में हममें से प्रत्येक का एक स्वस्थ, सुखी मानवता के निर्माण में योगदान देने का एक उत्तरदायित्व है। क्योंकि सभी विभिन्न धार्मिक परंपराएँ प्रेम, करुणा और क्षमा सिखाती हैं, उन सबमें आंतरिक शांति लाने की क्षमता है। उनके बीच दार्शनिक अंतर हैं, पर ये मात्र एक ही लक्ष्य हेतु अलग अलग दृष्टिकोण हैं। और इसलिए अत्यंत दुख की बात है जब धर्म स्पष्ट तौर पर हिंसा का एक स्रोत बन जाता है।
"मेरी तीन प्रतिबद्धताएँ हैं: एक मानव के रूप में मानव सुख को प्रोत्साहित करना, एक बौद्ध भिक्षु के रूप में धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देना, और एक तिब्बती के रूप में। चूँकि २०११ के बाद से, मैं सभी राजनीतिक उत्तरदायित्वों से सेवानिवृत्त हुआ हूँ, पर मैं अभी भी तिब्बती संस्कृति और तिब्बत के प्राकृतिक पर्यावरण के संरक्षण को लेकर बहुत चिंतित हूँ।"
परम पावन ने कहा कि दो वर्ष पूर्व ऑस्ट्रेलिया की अपनी पिछली यात्रा के अंत में उन्होंने सुझाया था कि जो भिक्षु, भिक्षुणियाँ तथा अन्य लोग, जो वास्तविक रुचि रखते हैं, के लिए अगली बार तांत्रिक शिक्षण प्रासंगिक हो सकता है। उसे देने के पूर्व वे यह समझाना चाहते थे कि तिब्बत में धर्म का प्रसार कैसे हुआ, मुख्य रूप से दो चरणों में। पहला अतीश तथा महान अनुवादक रिनछेन संगपो के पहले, जिसमें ञिङमा परम्परा शामिल थी। दूसरे में सक्या, कर्ग्यू, गेलुग और जोनंग परम्पराएँ शामिल थी। मार्ग की सामान्य संरचना उन सभी के लिए एक ही थी और वे सभी तर्क और कारणों का उपयोग करते हैं। पर जिन तांत्रिक शिक्षाओं का संचरण वे करते हैं वे शिक्षाएँ विशिष्ट शिष्यों के अनुकूल होती हैं और परिणामस्वरूप आपस में अंतर रखती हैं। उदाहरण के लिए जिस प्रकार से नाड़ियों, शक्ति और बिंदुओं की व्याख्या की जाती है वह गुह्यसमाज और कालचक्र तंत्र में अलग अलग हैं।
"आज, मैं इस बात पर बल देता हूँ कि तिब्बती बौद्ध धर्म में अनिवार्य रूप से नालंदा परंपरा है," उन्होंने घोषणा की, "क्योंकि कुछ लोग इसे लामावाद कहते हैं, मानो कि लामाओं ने इसका आविष्कार किया था। पर ञिङमा की शिक्षा शांतरक्षित से प्रारंभ हुई जो नालंदा के शीर्ष विद्वानों में से एक थे, जैसा कि दर्शन और तर्क शास्त्र पर उनका लेखन सिद्ध करता है और पद्मसंभव, जो नागार्जुन जैसे आचार्यों को अपने अष्ट गुरुओं में एक मानते थे। कर्ग्यू शिक्षाएँ मुख्य रूप से नरोपा से आईं, जो एक प्रतिष्ठित नालंदा विद्वान थे जबकि सक्या, विरूपा से आईं, जो एक नालंदा विद्वान होने के साथ साथ धर्मपाल के रूप में जाने जाते थे। उनकी अनुभूति इस प्रकार की थी कि हेवज्र डाकिनियाँ शिक्षाओं पर चर्चा करने के लिए उनके कक्ष में एकत्रित हो जाती थी। विहार के अनुशासक ने उनके स्त्री स्वर सुने और धर्मपाल को विहार से निकाल दिया और वे योगी विरूपा हो गए। कदम परम्परा के स्रोत अतीश, विक्रमशिला विश्वविद्यालय के आचार्य थे जहाँ वे नालंदा परंपरा का पालन करते थे। अतः यह कहना उपयुक्त है कि तिब्बती बौद्ध धर्म, नालंदा परंपरा है, ऐसी परम्परा जो तर्क और कारण के उपयोग में निमज्जित है।"
शिक्षण और शिक्षक दोनों की गुणवत्ता को सत्यापित करने की आवश्यकता का परिप्रेक्ष्य देते हुए परम पावन ने साक्य पंडित को उद्धृत किया, जिन्होंने स्पष्ट किया था कि जब लोग व्यापार करते हैं जैसे रत्न खरीदना इत्यादि, तो वे इस बात के प्रति बहुत सावधान रहते हैं कि उन्हें क्या बेचा जा रहा है। वे सभी प्रकार के परीक्षण करते हैं। पर जब धर्म की बात आती है तो लोग यह मान लेते हैं कि जो शिक्षा उन्हें प्राप्त हो रही है और जो शिक्षक उन्हें दे रहा है, दोनों ही खरे हैं। इनके परीक्षण की भी आवश्यकता है। जे चोंखापा ने अपने 'बोधिपथक्रम' में समझाया कि एक लामा जो दूसरों को वश में करता है, उसे स्वयं को भी वश में करना होगा। उसे तीन अधिशिक्षाओं में प्रशिक्षित होना होगा।
परम पावन ने टिप्पणी की:
"आज, बुद्ध के अनुयायियों को २१वीं शताब्दी का बौद्ध होने की आवश्यकता है जो जानते हैं कि बौद्ध धर्म क्या है। नालंदा पंडितों के शास्त्रों का पठन व अध्ययन इसे प्राप्त करने में सहायक हो सकता है। उनका दृष्टिकोण दूसरों के विचारों का खंडन, अपने स्वयं के मत पर बल देना और फिर आलोचना को गलत प्रमाणित करना था। इस बीच बौद्धाभ्यास, मूलतः अपनी मानव बुद्धि के उपयोग से अपनी भावनाओं का रूपांतरण है ।
"तिब्बती समुदाय में विगत ४० वर्षों से मैंने भिक्षुओं को, यहाँ तक कि विहारों में अनुष्ठानों के लिए समर्पित हुओं को भी अध्ययन के लिए प्रोत्साहित किया है। मैंने भिक्षुणियों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया है और अब एक उचित गेशे मा की उपाधि की सहमति हुई है और उसे अंतिम रूप दिया गया है। और तो और साधारण लोग भी अध्ययन प्रारंभ कर रहे हैं।
"यद्यपि जो मुख्य शिक्षण वे दे रहे हैं उसका संबंध अनुत्तर योग तंत्र से है, परम पावन ने समझाया, कि प्राथिमक शिक्षण जे चोंखापा के 'मार्ग के तीन प्रमुख आकार' होगा क्योंकि इसका संबंध बोधिचित्त तथा शून्यता को समझने वाली प्रज्ञा से है, जिसके बिना हम तांत्रिक अभ्यास नहीं कर सकते। जब तक इस समझ से हम अज्ञान पर काबू नहीं पाते कि वस्तुएँ प्रतीत्य समुत्पादित हैं, कि उनका कोई परमार्थिक अस्तित्व नहीं पर मात्र नाम से ज्ञापित हैं, हम निरोध या विमुक्ति की ओर नहीं जा सकते।
उन्होंने समझाया कि यह समझना कि 'मैं' मात्र ज्ञापित है तथा काय और चित्त, जिस पर वह नामित है, की भी कोई आंतरिक सत्ता नहीं, ही वास्तव में विनाशकारी भावनाओं को कम करता है। बोधिचित्त इसे संवर्धित करता है क्योंकि यह हमारे आत्म केन्द्रित व्यवहार का विरोध करता है। परम पावन ने यह कहते हुए 'मार्ग के तीन प्रमुख आकार' को स्पष्ट किया कि शून्यता की अनुभूति अज्ञान तथा ज्ञेयावरण का प्रतिकारक है। करुणा पर आधारित बोधिचित्त सक्रिय रूप से दूसरों को दुःख से मुक्ति दिलाना है। परन्तु हमारे अपने दुःख को पहचाने बिना हम दूसरों की सहायता करने में सक्षम नहीं होंगे। अतः हमें सर्वप्रथम मुक्त होने के दृढ़ संकल्प को विकसित करने की आवश्यकता है।
मध्याह्न भोजनोपरांत परम पावन ने उनके द्वारा विरचित १७ नालंदा पंडितों की स्तुति का परिचय दिया। उन्होंने ध्यानाकर्षित किया कि प्राचीन भारत के विद्वानों तथा सिद्धों को चित्त के कार्यों की पूरी समझ थी, ऐसी समझ जो कम हो गई है पर बौद्धों ने इसे जीवित रखा है। उन्होंने उल्लेख किया कि षड़ालंकारों तथा दो उत्तम की एक पूर्व स्तुति में शांतिदेव और विमुक्तिसेन जैसे पंडितों को सम्मिलित नहीं किया गया था और उन्होंने उनके गुणों पर प्रकाश डालने कि लिए एक स्तुति रचने का निश्चय किया। इन सब पंडितों में सबसे हाल के पंडित अतीश थे जिनके 'बोधि पथ प्रदीप' ने सभी तिब्बती बौद्ध परंपराओं को प्रभावित किया है जिनके प्रत्येक के ग्रंथ हैं जो पथ के क्रम का वर्णन करते हैं।
अंत में, परम पावन ने उल्लेख किया कि अतीत में लोग थे जिन्होंने न केवल इस बात को नकारा कि महायान बुद्ध का शिक्षण था पर तंत्र भी बौद्ध शिक्षण नहीं था। कई महान और विख्यात भारतीय आचार्यों ने दोनों वाहनों के बौद्ध मूल होने का समर्थन किया।
जैसे ही उन्होंने वज्रभैरव अभिषेक का प्रारंभिक खंड देना शुरू किया, परम पावन ने घोषणा की कि वह उन्हें सर्वप्रथम तगडग रिनपोछे से प्राप्त हुई थी और उसके पश्चात कई अवसरों पर लिंग रिनपोछे से प्राप्त हुई। आनुष्ठानिक सहायकों में भिक्षुणियाँ प्रमुख थी, जो विभिन्न सामग्रियों का वितरण कर रहीं थीं। अभिषेक कल जारी रहेगा।