लेह, जम्मू और कश्मीर, भारत - २८ जुलाई २०१५ - परम पावन दलाई लामा ने जोखंग की यात्रा के साथ लेह में अपना दूसरा दिन प्रारंभ किया। शहर की सड़कें लद्दाखियों, तिब्बतियों और कई अन्य देशों के लोगों से खचाखच भरी थी, जो उनके वहाँ से जाते समय उनकी एक झलक पाने और अपना सम्मान व्यक्त करने हेतु उपस्थित थे। मंदिर जाते हुए मार्ग पर उन्होंने कई पुराने मित्रों का अभिनन्दन किया। प्रबुद्ध सत्वों की छवि के समक्ष अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हुए उन्होंने उनके सामने आसन ग्रहण किया और उनके दाईं ओर गदेन ठि रिनपोछे और अन्य प्रतिष्ठित लामा बैठे थे और उनकी बाईं ओर लद्दाख प्रशासन के सदस्य थे। उन्होंने साथ मिलकर 'प्रतीत्य समुत्पाद स्तुति' और 'नालंदा के सत्रह महान पंडितों की स्तुति' का पाठ किया जब मक्खन की चाय और मीठे चावल परोसे जा रहे थे।
जहाँ वह बैठे हुए थे वहाँ से समर्पण की वस्तुएँ देखते हुए परम पावन ने पूछा कि वह स्वर्ण दीपक इतनी प्रमुखता से क्यों रखा गया था। उन्होंने प्रश्न किया कि क्या जोखंग में कांग्यूर और तेंग्यूर रखे गए हैं और जब उन्होंने सुना कि वहाँ कांग्यूर की केवल एक प्रति है तो उन्होंने यह टिप्पणी करते हुए, कि इन संग्रहों का समय समय पर पाठ करना अच्छा होगा, कहा कि वह तेंग्यूर का एक सेट उपलब्ध करवाएँगे।
"परन्तु", उन्होंने आगे कहा कि कांग्यूर और तेंग्यूर दोनों का मुख्य उद्देश्य सम्मान की वस्तु मात्र बनना नहीं, और न ही यदा कदा उनका पाठ करना है, पर उनका उद्देश्य अध्ययन है।" बुद्ध की शिक्षाएँ उनके अपने अनुभव का विवरण हैं। वे उनके महान गुणों को प्रकट करती हैं। आप लद्दाख के लोगों को, साधारण और भिक्षुओं को अध्ययन करना चाहिए कि बुद्ध ने क्या शिक्षा दी।"
हँसते हुए वे राजनेताओं के बीच अपने मित्रों की ओर मुड़े और उन्हें छेड़ते हुए कहा:
"यदि आप अध्ययन करें और जो सीखा है उसे व्यवहार में लाएँ तो यह आपको निर्वाचित करने में आपकी सहायता कर सकता है। और तो और जब आप सेवानिवृत्त होंगे तो आपको अपने जीवन के शेष अंश को सार्थक बनाने का अवसर प्राप्त होगा।"
जोखंग से वह गाड़ी से जमयंग विद्यालय गए, जहाँ कई हजार लोग, जिनमें से अधिकांश लेह के विद्यालयों के छात्र थे, उन्हें सुनने के लिए एकत्रित हुए थे। सर्वप्रथम उन्होंने लड़कियों के लिए एक नए छात्रावास का उद्घाटन किया और जब वे साथ मिलकर स्मारक पट्टिका का अनावरण कर रहे थे तो उन्होंने अपने राजनीतिज्ञ मित्रों के हाथों को पकड़े रखा। तत्पश्चात उन्होंने द्वार पर लगे फीते को काटा और वह मंगल प्रार्थना करते हुए हवा में पुष्प और अनाज बिखेरे।
परम पावन ढँके शामियाने की ओर गए जहाँ उन्होंने लामाओं और स्थानीय गणमान्य व्यक्तियों के बीच आसन ग्रहण किया। औपचारिक अभिवादनों का आदान प्रदान हुआ जिसके बाद जमयंग विद्यालय के छात्रों ने हाथ जोड़ खड़े हो उत्साहपूर्वक परम पावन द्वारा रचित प्रार्थना 'असीम गुण' गाया। अपने परिचयात्मक भाषण में स्कूल प्रधानाचार्य गेशे लोबसंग समतेन ने सभी उपस्थित लोगों का अभिनन्दन किया, परम पावन को आने के लिए धन्यवाद दिया और हाल के उनके ८०वें जन्मदिन की चर्चा की। उन्होंने लद्दाख के लोगों से उस क्षेत्र को शांति का स्थान बनाए रखने का आग्रह किया, फिर चाहें वे किसी भी धर्म के हों। उन्होंने सभी दान कर्ताओं के प्रति धन्यवाद व्यक्त करते हुए जिनमें प्रमुख दलाई लामा ट्रस्ट है, विद्यालय के अंतिम तीन वर्षों के खातों का एक विवरण प्रस्तुत किया।
परम पावन ने अपना संबोधन प्रारंभ किया जिस दौरान वे कभी तिब्बती में बोले और कभी अंग्रेज़ी में जिसका लद्दाखी बोली में अनुवाद किया गया।
"आज, मैं मुख्य रूप से उनके ग्रीष्मकालीन प्रज्ञा-पारमिता शास्त्रार्थ में सम्मिलित होने के लिए स्पितुक विहार के निमंत्रण पर लद्दाख में हूँ। ठि रिनपोछे ने मुझसे कहा कि यदि मैं आ पाऊँ तो अच्छा रहेगा। कुछ समय पूर्व जब मैं दाह- हनु की एक वृद्ध महिला से मिला तो मैंने इन लोगों तथा इनकी अनूठी पगड़ी को जाना। मैंने अनुभव किया कि ये अपनी देखभाल करने में भली भांति सक्षम नहीं थे, और न ही बौद्ध धर्म की उनकी समझ बहुत सशक्त थी। हमने इस विद्यालय की स्थापना विशेषकर उनके बच्चों को ध्यान में रखकर की। इस अवसर पर विद्यालय ने मुझसे उनके तथा अन्य आसपास के विद्यालयों से आए विद्यार्थियों को संबोधित करने के लिए कहा है। मैं आयोजकों को यह अवसर प्रदान करने के लिए धन्यवाद देता हूँ और आप सबका अभिनन्दन करता हूँ।"
उन्होंने कहा कि उनसे बौद्ध विज्ञान और आधुनिक विज्ञान के बीच चल रहे संवाद के विषय में बोलने के लिए कहा गया है। उन्होंने यह स्पष्टीकरण देते हुए प्रारंभ किया कि वे कभी भी बौद्ध धर्म को अन्य परंपराओं की तुलना में बेहतर रूप में बढ़ावा नहीं देते। वे सभी धार्मिक परम्पराओं को धार्मिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक पहलुओं से निहित रूप में देखते हैं। धार्मिक पहलू, जो सभी धर्मों में समान है में प्रेम, करुणा, सहिष्णुता इत्यादि का अभ्यास शामिल है। वे अपने दार्शनिक और सांस्कृतिक पहलुओं में अंतर रखते हैं। जहाँ आस्तिक एक सृष्टिकर्ता ईश्वर में विश्वास रखते हैं, पर वहीं जैन धर्म और बौद्ध धर्म इसके स्थान पर कार्य कारण की शिक्षा देते हैं । जिन रूपों में भी ये दार्शनिक दृष्टिकोण अलग अलग हों, उनका उद्देश्य समान है ः प्रेम व करुणा के अभ्यास का समर्थन।
"धर्म का मुख्य संदेश शांति है। सभी धर्म हमसे अच्छा मनुष्य बनने के लिए कहते हैं। उदाहरण के िलए इस्लाम अपने अनुयायियों को अल्लाह के सभी प्राणियों के लिए दया दिखाने के लिए प्रोत्साहित करता है, इसलिए सुन्नी और शिया अनुयायियों के बीच संघर्ष को देखना बहुत निराशाजनक है। लद्दाख में विभिन्न धर्मों के बीच समुदाय की जो अच्छी समझ आप में है, उसके प्रति मेरे मन में बहुत प्रशंसा की भावना है। यद्यपि बर्मा में बौद्धों और मुसलमानों के बीच का संघर्ष, अत्यंत निराशाजनक है। मैं अपना पूर्वोक्त सुझाव दोहराना चाहूँगा कि लद्दाखी मुसलमान यह सोचें कि क्या वे विश्व के अन्य भागों में लड़ रहे अपने मुसलमान भाइयों पर एक सकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं। जो महत्वपूर्ण है वह यह, कि यदि हममें आध्यात्मिक रुझान है तो हम अपने अभ्यास को गंभीरता पूर्वक लें।
"विश्व में परिवर्तन कार्य से आता है केवल प्रार्थना से नहीं। हमने सैकड़ों वर्षों से प्रार्थना की है जिसका कोई अधिक प्रभाव नहीं हुआ है। मुख्य बात हमारे मानव परिवार की एकता की भावना से प्रारंभ करना है, इस बात को स्वीकार करना कि मनुष्य के रूप में हम सब एक समान हैं। पर इसके स्थान पर हम जाति, राष्ट्रीयता, आस्था, सामाजिक स्थिति इत्यादि गौण अंतरों पर बहुत अधिक ध्यान देते हैं।"
बौद्ध विज्ञान और आधुनिक विज्ञान के विषय पर लौटते हुए परम पावन ने दोहराया कि वे ऐसे स्थानों पर बौद्ध धर्म को बढ़ावा नहीं देते, जो उसे एक विदेशी आस्था के रूप में मानते हैं, पर यहाँ भारत में यह एक स्वदेशी परंपरा है। उन्होंने अपने श्रोताओं को स्मरण कराया कि जब तिब्बती सम्राट ठिसोंग देचेन ने शांतरक्षित को तिब्बत में आमंत्रित किया, तो वह मूल स्रोत से बौद्ध शिक्षण की खोज का जानबूझकर निर्णय ले रहे थे। अभी अभी जोखंग में कांग्यूर और तेंग्यूर के विषय में दी गई सलाह का संदर्भ देते हुए उन्होंने टिप्पणी की, कि हम, बुद्ध ने जो शिक्षा दी उस पर अधिक ध्यान न देते हुए उनके प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं। यह कहते हुए, कि अंधविश्वास की इस प्रथा को बदलने का समय आ गया है, उन्होंने अपने श्रोताओं से पूछा कि क्या वे सहमत हैं और उन्होंने उन्हें बताया कि वे सहमत हैं।
"वास्तविकता के अपने विश्लेषण के परिणामस्वरूप, बुद्ध ने दुख का कारण समझाया। उन्होंने चेतना की प्रकृति और हमें किस प्रकार अपनी उद्वेलित करने वाली भावनाओं की प्रकृति को समझने की आवश्यकता है, के बारे में बात की। हमें चित्त में निहित चित्त से निपटने, यह परीक्षण करने की आवश्यकता है कि किस प्रकार क्रोध तथा मोह चैतसिक धर्म हैं। चित्त की गहन खोज मूल रूप में भारत में हुई, जिसका उपयोग बौद्ध विज्ञान आधुनिक विज्ञान के साथ संवाद के लिए करता है। दूसरी ओर जहाँ अभिधर्म में परमाणुओं के अल्पविकसित स्पष्टीकरण हैं, उन्हें आधुनिक विज्ञान द्वारा भली भाँति जाँच लिया गया है। इसी प्रकार राजा रामण्णा का अवलोकन, कि नागार्जुन के लेखन क्वांटम भौतिकी की आज गूँजती विचारों से सम्बद्धित हैं, यह संकेत देते हैं कि बौद्ध विज्ञान और आधुनिक विज्ञान के बीच का संवाद पारस्परिक रूप से लाभप्रद हो सकता है।"
यह टिप्पणी करते हुए कि आधुनिक शिक्षा में भौतिकवादी विचारों का प्रभुत्व है, परम पावन ने सुझाया कि पाठ्यक्रम में धर्मनिरपेक्ष नैतिकता को सम्मिलित कर और अधिक सौहार्दता को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। इसका यह अर्थ है कि रचनात्मक भावनाओं का विकास करने के साथ साथ अपनी नकारात्मक भावनाओं को सीमित करना। उन्होंने श्रोताओं से हाल ही में तिब्बती में प्रकाशित एक पुस्तक की सराहना की, जिसमें कांग्यूर और तेंग्यूर से बौद्ध विज्ञान का संकलन किया गया है। उसका अन्य भाषाओं में अनुवाद कार्य चल रहा है।
परम पावन श्रोताओं की ओर से पूछे जाने वाले प्रश्नों के इच्छुक थे। प्रथम का संबंध एक निर्माता में विश्वास करने के बौद्ध दृष्टिकोण से था और उन्होंने उत्तर दिया कि यह एक बहुत प्रबल विचार है जो बहुत अधिक विश्वास प्रदान कर सकता है। यह पूछे जाने पर कि क्या बुद्ध ने अन्य धर्मों के अस्तित्व को स्वीकार किया था, परम पावन ने पुष्टि की, कि उन्होंने ऐसा किया था और अन्य दृष्टिकोणों का अध्ययन करने और परीक्षण करने का सुझाव दिया, क्योंकि ऐसा करना हमारी समझ को विस्तृत करने का एक प्रभावशाली मार्ग है। अन्य परम्पराओं के प्रति सजगता चित्त की और अधिक उन्मुक्तता को जन्म देती है।
उन्होंने अपने एक सुझाव की बात की, कि आध्यात्मिक सद्भाव का एक लंबा इतिहास लिए एक बहु-धार्मिक समाज के रूप में, भारत एक अंतर्राष्ट्रीय अंतर्धार्मिक सम्मेलन बुलाए, जैसा कि यहाँ १९५६ में बुद्ध जयंती का समारोह आयोजित किया गया था। उन्होंने आगे मुस्लिम आतंकवादियों को आमंत्रित करने और उन्हें विचारों के आदान-प्रदान का एक अवसर देकर उनकी भावनाओं को शांत कर, शांतिपूर्ण सकारात्मक समाधान खोजने का प्रस्ताव रखा।
इस प्रश्न पर कि क्या बुद्ध पहले आए थे कि उनकी शिक्षाएँ, परम पावन ने टिप्पणी की, कि चित्त का सन्तान जिसकी प्रकृति स्पष्टता और जागरूकता है, का न तो आदि है और न ही अंत। बौद्ध धर्म चेतना के विभिन्न स्तरों पर बल देता है, जिसमें जाग्रत अवस्था की चेतना सबसे अधिक स्थूल है, स्वप्नावस्था की चेतना और अधिक सूक्ष्म है और गहन निद्रावस्था और भी अधिक सूक्ष्म है। चेतना की सूक्ष्मतम अवस्था मृत्यु के समय में आती है। ऐसे लोगों के उदाहरण हैं जिनकी ओर आधुनिक विज्ञान आकर्षित हुआ है, जिनके शरीर नैदानिक मृत्यु के पश्चात दिनों से लेकर सप्ताहों तक वैसे के वैसे ही बने रहते हैं। बौद्ध स्पष्टीकरण यह है कि सूक्ष्मतम चेतना और उसके साथ की सूक्ष्म ऊर्जा उपस्थित बनी रहती है। इस ओर खोज व परीक्षण जारी है।
अंतिम प्रश्नों में से एक का उत्तर देते हुए परम पावन ने समझाया ः
सभी सत्व एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं, पर केवल मनुष्यों में उसके कारणों का विश्लेषण करने की क्षमता है। यद्यपि चित्त आधारभूत रूप से विशुद्ध होता है, पर जब हम क्रोध, मोह, यहाँ तक कि करुणा का विकास करते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि चित्त उस भावना से भरा हुआ होता है। क्रोध एक मिथ्या दृष्टि, कि वस्तुएँ जिस प्रकार दृश्य होती हैं उसके कारण स्वभावगत सत्ता लिए हुई होती हैं, पर आधारित एक उद्वेलित करने वाली भावना है। रचनात्मक भावनाओं का उत्पाद वास्तविकता के एक सही दृष्टिकोण पर आधारित होता है।
"बुद्ध ने अपने स्वयं के अनुभव के अनुसार शिक्षा दी। एक २१वीं शताब्दी का बौद्ध समझता है कि बुद्ध की शिक्षाओं का आस्था, अनुष्ठान और आशीर्वाद से कुछ लेना देना नहीं होता।
बुद्ध अकुशल कर्मों को जल से धोते नहीं,
न ही सत्वों के दुःखंो को अपने हाथों से दूर करते हैं;
न ही अपना अधिगम दूसरों में स्थानान्तरित करते हैं;
वे धर्मता सत्य देशना से सत्वों को मुक्त कराते हैं।
मध्याह्न में स्पितुक विहार लौटने से पूर्व परम पावन के िलए जमयंग विद्यालय में मध्याह्न भोज का आयोजन किया गया।