टोक्यो, जापान - ५ अप्रैल २०१५ - हल्की बूंदा बांदी और धूसर आकाश के बावजूद दिन का प्रारंभ परम पावन दलाई लामा द्वारा पूर्व एशिया के लिए उनके प्रतिनिधि के नूतन स्थान पर परिवर्तित संपर्क कार्यालय की उज्वल यात्रा से हुआ। उन्होंने पवित्रीकरण की प्रार्थना का पाठ किया और जब चाय और चावल परोसे जा रहे थे तो पठन के लिए कांग्यूर से एक संस्करण का चयन किया। इस अवसर पर जो ४० व्यक्ति उपस्थित थे, उन्हें संबोधित कर उन्होंने कहा ः
"मैं यहाँ अपने सभी मित्रों के प्रति धन्यवाद व्यक्त करना चाहता हूँ । मैं आपके समर्थन की अत्यधिक सराहना करता हूँ। हम तिब्बतियों का जापान से सम्पर्क १३वें दलाई लामा के समय से रहा है, जिन्होंने एक विद्वान लामा को यहाँ भेजा था। लगभग उसी समय एकाई कावागुची तिब्बत आए और उन्होंने सेरा महाविहार में अध्ययन किया। मुझे स्मरण है कि मैंने १३वें दलाई लामा के कमरे में उनकी तस्वीर देखी थी। १३वें दलाई लामा के निधन हो जाने के तुरन्त बाद द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ हो गया तो सम्पर्क उस समय तक स्थापित न हुआ जब तक कि हम शरणार्थी के रूप में भारत न आए।"
"मेरे सबसे बड़े भाई, तकछेर रिनपोछे ने निर्वासन के हमारे प्रारंभिक दिनों में यहाँ समय बिताया और जापानी बोलना सीखा। बाद में जब जयप्रकाश नारायण ने भारत में तिब्बत पर एक अफ्रीकी-एशियाई सम्मेलन बुलाया तब एक जापानी प्रतिनिधिमंडल ने भाग लिया। उसके कुछ समय बाद हमने यहाँ अध्ययन करने के लिए तिब्बतियों के एक छोटे दल को भेजा। तब से मैं यहाँ यात्रा करने के लिए आ पा रहा हूँ और जापानी विहारों और विद्वानों ने तिब्बती बौद्ध धर्म में एक सक्रिय रुचि ली है।"
परम पावन ने नालंदा विश्वविद्यालय के महान भारतीय पंडितों द्वारा रचित ग्रंथों में पाए जाने वाले चित्त और भावनाओं की गतिविधियों के महान ज्ञान भंडार की प्रशंसा की। उन्होंने समझाया कि किस प्रकार इन ग्रंथों की विषय सामग्री में विज्ञान, दर्शन और धर्म के कार्य कलाप को समझाया गया है। बौद्ध विज्ञान के दो खंड पहले से ही तैयार किए जा चुके हैं और अंग्रेजी, चीनी, रूसी और कोरियाई अनुवाद चल रहे हैं। उन्होंने हमारी भावनाओं से निपटने और स्वस्थ चित्त का निर्माण करने के उपाय खोजने की आवश्यकता की बात की और सुझाव दिया कि चित्त के इस विज्ञान का एक सीधे शैक्षिक रूप में अध्ययन किया जा सकता है।
"मेरी इच्छा बौद्ध धर्म का प्रचार करने की नहीं है," उन्होंने जोर देकर कहा, "पर मानवता के हित के लिए सभी इच्छुक लोगों को इसका उपयोग करने के लिए सक्षम करना है।"
उन्होंने रिचर्ड डेविडसन जैसे सम्मानित वैज्ञानिकों का उल्लेख किया जो उन्हीं की तरह का उत्साह रखते हैं।
१२० तिब्बती छात्रों के एक दल के साथ भेंट करते हुए, उन्होंने उनसे कहा कि भारत में तिब्बतियों की भूमिका व्यापक विश्व में तिब्बत में रह रहे तिब्बतियों का प्रतिनिधित्व करने के लिए है। उन्होंने कहा कि तिब्बत में तिब्बतियों द्वारा दिखाया गया दृढ़ संकल्प बाहर रह रहे लोगों के लिए आशा खोए बिना काम करने के लिए प्रेरणा है। उन्होंने उनसे इस बात की सराहना के महत्व की भी बात की, कि तिब्बती बौद्ध धर्म नालंदा परम्परा का एक शुद्ध विस्तार रूप है, बौद्ध ज्ञान और अभ्यास का एक प्रामाणिक संचरण है। उन्होंने उल्लेख किया कि केवल तिब्बती परम्परा धर्मकीर्ति और दिग्नाग के लेखन पर आधारित तर्क और विश्लेषण का प्रयोग करती है।
७० चीनियों के साथ हुई एक संक्षिप्त भेंट में उन्होंने उल्लेख किया कि तिब्बती और चीनी दोनों सम्मान के साथ 'हृदय सूत्र' का पाठ करते हैं। परन्तु उन्होंने उन्हें २१वीं सदी का बौद्ध होने के लिए और यह देखने के लिए कि ग्रंथ का वास्तविक अर्थ क्या है, के लिए प्रोत्साहित किया। इसमें अध्ययन, विश्लेषण और तर्क का उपयोग शामिल होगा। अपनी तीन प्रतिबद्धताओं की रूपरेखा देते हुए उन्होंने अपने चीनी श्रोताओं को भी उन्हें अपनाने के लिए आमंत्रित किया।
"हमें अंतर्धार्मिक सद्भाव को प्रोत्साहित करने और यह खोजने कि तिब्बती धर्म और संस्कृति वास्तव में क्या है, का पता लगाने के लिए एक स्रोत के रूप में मानव मूल्यों को बढ़ावा देने का प्रयास करना चाहिए। फिर हमने जो जाना है वह अन्य लोगों के साथ साझा करें।"
सेपियो पत्रिका के साथ एक साक्षात्कार के दौरान परम पावन को यह कहने के लिए बाध्य किया गया कि यदि कोई १५ दलाई लामा को मान्यता न दी गई तो तिब्बती बौद्ध धर्म किस प्रकार जीवित रह पाएगा। उन्होंने उत्तर दिया:
"दलाई लामा की वंशज परम्परा का प्रारंभ १४ शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ जबकि तिब्बत में बौद्ध धर्म की स्थापना उसके सात शताब्दियों पूर्व हो चुकी थी। तो, इसी तरह भविष्य में चाहे दलाई लामा रहे अथवा नहीं, बौद्ध परम्परा बनी रहेगी। नालंदा परम्परा किसी एक व्यक्ति पर निर्भर नहीं है।"
जब साक्षात्कारकर्ता ने तर्क देते हुए कहा कि दलाई लामा तिब्बती बौद्ध परम्परा के प्रतीक हैं, तो परम पावन ने उसे दो टूक उत्तर देते हुए कहा कि वह एक गलत व्याख्या कर रहा था।
"हम बुद्ध की शिक्षाओं का पालन करते हैं, भले ही वह अब हमारे साथ नहीं हैं। हम नागार्जुन का भी पालन करते हैं और वह भी यहाँ नहीं हैं। नालंदा परम्परा कारण और तर्क को काम में लाती है। यह बुद्ध की ही सलाह का एक उदाहरण है कि उनके अनुयायियों को उनके शब्दों का पालन आँख बंद कर इसलिए नहीं स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि उन्होंने कहा था पर उनकी जांच व परीक्षण करना चाहिए जिस प्रकार एक स्वर्णकार सोने का परीक्षण करता है।"
शी ज़िनपिंग के बारे में उन्होंने उस कथन का उल्लेख किया जो उन्होंने पिछले साल पेरिस तथा दिल्ली में दिया था, कि चीनी संस्कृति को बनाने में बौद्ध धर्म का एक महत्वपूर्ण योगदान है। परम पावन ने इसे एक आश्चर्यजनक बयान के रूप में बताया जो किसी चीनी नेता द्वारा दिया गया है जिसकी पार्टी मार्क्स का अनुपालन करती हुई, यह विश्वास करती है कि धर्म आम जनता के लिए नशा है। परम पावन ने अनुभव किया कि यह उससे संबंधित है जो अन्य चीनी बुद्धिजीवियों ने उन्हें बताया है कि चीन में विगत ५००० वर्षों में नैतिकता अपने निम्नतम बिंदु पर है। उन्होंने कहा कि संकीर्ण दिमाग अधिनायकवाद वास्तव में एक नशे की तरह है।
दूसरी ओर शी ज़िनपिंग कानूनी शासन पर भी बल दे रहे हैं। परम पावन ने अपना दृष्टिकोण दोहराया कि चीनी न्यायिक प्रणाली को अंतर्राष्ट्रीय मानक के स्तर तक उठाने की आवश्यकता है और सेंसरशिप अनैतिक है। उन्होंने कहा कि १.२ अरब चीनी लोगों को न केवल यथार्थ जानकारी रखने का अधिकार है, अपितु मिलने पर गलत, सही न्याय करने की क्षमता भी है।
साक्षात्कार का अंतिम प्रश्न था:
"ओबामा ने आपको मित्र कहा, आपका रहस्य क्या है?"
"मेरी मुस्कान," परम पावन हँसे। "और मैं ईमानदार और सच्चा होने का प्रयास करता हूँ ।"
उनके काम की सराहना करते हुए परम पावन ने उनके कार्यालय की वेबसाइट का एक जापानी संस्करण को प्रारंभ करने तथा बनाए रखने के लिए काम किए स्वयंसेवकों की एक टीम को बतायाः
"पिछले वर्ष मैंने सुझाव दिया था कि जब मैं अपनी यात्रा पर आता हूँ तो दिलचस्पी दिखाने वाले लोगों की बढ़ती संख्या को पूरा करने के लिए हम एक जापानी वेबसाइट प्रारंभ कर सकते हैं। मैं उन सबको धन्यवाद देना चाहता हूँ जिसने इसे संभव बनाया। यह सब नालंदा परम्परा से निकाले गए चित्त के ज्ञान को उन लोगों तक पहुँचाने में जो इसमें रुचि रखते हैं हमारे प्रयास का एक अंग है।"
"मैं विशेष रूप से चाहूँगा कि एक अधिक सुखी और अधिक शांतिपूर्ण विश्व के निर्माण हेतु यह हमारी शिक्षा प्रणाली में शामिल कर लिया जाए। यह ऐसा नहीं जिसे देख सकने की मैं आशा करता हूँ, पर ऐसा कुछ जो मैं आशा करता हूँ कि इस शताब्दी के अंत तक प्राप्त किया जा सकता है।"
मध्याह्न में परम पावन १५० अन्य प्रतिभागियों के साथ शामिल हुए, जो जापान के डेपुंग गोमंग अकादमी द्वारा आयोजित बौद्ध अध्ययन पर एक सम्मेलन में भाग ले रहे थे। जापान एसोसिएशन ऑफ टिब्बटेन स्टडीस के अध्यक्ष यासाहीरो नागानो ने कुछ स्वागत टिप्पणी की। योइचि फुकुदा ने फिर कार्यवाही का प्रारंभ किया जो 'जापान में तिब्बती अध्ययन के अतीत और भविष्य' के एक दिलचस्प सर्वेक्षण के साथ, तिब्बती, जापानी और अंग्रेजी के एक मिश्रण के साथ आयोजित की गई थी। इसके बाद अकीरा सैइतो की प्रस्तुति 'वर्तमान जापान और विदेशों में मध्यमक अध्ययन' हुई।
उन्होंने समझाया कि वह विगत ३० वर्षों से भारतीय मध्यमक दर्शन पर काम कर रहे हैं। हाल ही में और अधिक मूल ग्रंथों की खोज हुई है और उन्हें मान्यता दी गई है। इनमें चन्द्रकीर्ति की 'प्रसन्नपदा', बुद्धपालित के मौलिक कार्य, जिसका १/५ वां भाग मिला है और हाल ही में प्रकाशित हुआ है और भावविवेक का एक ग्रंथ शामिल है। पोतल संग्रह ग्रंथों के बीच 'मध्यमकवतार 'की पहचान हो गई है, जबकि प्रसन्नपद की १६ पांडुलिपियाँ अब उपलब्ध हैं जिनमें से १ और १७वां अध्याय अब प्रकाशित किया जा चुका है।
शोर्यू कटसुरा ने अपने 'जापान में बौद्ध तर्क के अध्ययन' में समझाया कि तिब्बत के विपरीत, जहाँ तर्क तथा कारण पर व्यापक संख्या में ग्रंथ हैं, वहाँ जापान में हुएनसांग द्वारा चीनी में अनूदित मात्र चार ग्रंथ पहुँचे। उन्होंने प्रमाणों का उल्लेख किया कि एक समय जापानी भिक्षु तर्क में लगे हुए थे।
सुगुहितो ताकेइयुचि ने अपनी प्रस्तुति 'तिब्बती सभ्यता की सार्वभौमिक प्रकृति - पुराने तिब्बती मूल ग्रंथ के अध्ययन से एक परिप्रेक्ष्य' में यह कहते हुए कि उनका क्षेत्र भाषाविज्ञान का था, स्वयं को बौद्ध ज्ञान से अनभिज्ञ घोषित किया। उन्होंने दुनहुआंग, लोबनोर और कोटन जो सभी दक्षिणी रेशम मार्ग में हैं, में पाए गए तिब्बती ग्रंथों का उल्लेख किया जिनमें सरकारी दस्तावेजों के साथ शास्त्र भी शामिल हैं। उन्होंने कहा कि प्रमाण हैं कि तिब्बती भाषा तिब्बती साम्राज्य के विखंडन के बाद ११वीं शताब्दी तक जारी रही।
पहले सत्र के अंत में परम पावन ने टिप्पणी की, कि उन्होंने जो सुना था वह अद्भुत और बहुत रुचिकर था। दूसरा सत्र तत्काल ही यूनिकोड के संस्थापकों में से एक, ली कोलिन्स से प्रारंभ हुआ जिन्होंने समझाया कि किस प्रकार यह डिजिटल पाठ का आधार बन गया है। यह खोज और संदर्भ की स्थापना करने में विद्वानों को सक्षम करता है। उन्होंने प्रेरणा के एक स्रोत के रूप में हृदय सूत्र की भूमिका से पंक्तियाँ उद्धृत की। बुद्ध कहते हैंः
"मैं सभी सत्वों, मानव और गैर मानव की भाषा में धर्म सिखाता हूँ।"
पुनः परम पावन ने प्रशंसा और सराहना व्यक्त की, पर साथ ही यह स्वीकार किया कि इस प्रकार की तकनीक उनके परे थी।
कज़ुशी इवाओ 'जापान में तिब्बती अध्ययन में नई प्रवृत्तियाँ' प्रस्तुत करते हुए इस प्रकार के शोध को १८१२ तक ले गए। उन्होंने कहा कि एक भाषाविज्ञान-संबंधी दृष्टिकोण अब क्षेत्र आधारित अध्ययन से मिलाया जा रहा है। उन्होंने १० जापानियों की पहचान की जो तिब्बत पहुँच सके और उन्होंने चीनी घुसपैठ के पूर्व वहाँ के जीवन और अध्ययन का अनुभव किया। उन्होंने टिप्पणी की कि जापान एसोसिएशन ऑफ टिब्बटेन स्टडीस जो १९५४ में प्रारंभ हुई थी, विश्व में इस प्रकार की सबसे पुरानी संस्था है पर इसके बादजूद अब भी जापान में तिब्बती अध्ययन एक अलग अकादमिक क्षेत्र नहीं हैं।
'तिब्बती बौद्ध धर्म में तर्क, अभ्यास और काव्य' में हिरोशी नेमोटो ने जे चोंखापा की 'प्रतीत्य समुत्पाद स्तुति' में से व्यापक स्तर पर उद्धरण प्रस्तुत किए।
अपने समापन टिप्पणी में परम पावन ने पुनः एक बार प्रस्तुतियों के लिए अपनी सराहना और प्रशंसा व्यक्त की और छह अरब तिब्बतियों की ओर से विद्वानों के प्रति धन्यवाद अभिव्यक्त किया।
"हम इस बात को लेकर अत्यंत चिंतित हैं कि हम हमारी समृद्ध संस्कृति का संरक्षण किस प्रकार करें। आज, चीनी कट्टरपंथी मानते हैं कि तिब्बती संस्कृति के अनूठे गुण अलगाववाद के बीज का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिन चीनियों से मैं मिलता हूँ, मैं कहता हूँ, 'भारत की ओर देखो। उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम में लोग हैं, जो अलग अलग भाषाओं और विभिन्न लिपियों का उपयोग करते हैं, पर चूँकि इनमें से प्रत्येक दल के लोग अनुभव करते हैं कि उन्हें समान दर्जा और समान व्यवहार मिला है, वे खुशी से भारतीय संघ के भीतर रहते हैं'। यदि चीनी अपने सभी लोगों पर समान रूप से विश्वास करें तो उनके बीच का अंतर चिंता का कारण नहीं होगा।"
"मैं एक छात्र, नालंदा परम्परा का छात्र हूँ और मैं जब आपकी इन नई चीज़ों के बारे में सुनता हूँ तो युवा अनुभव करता हूँ।"
"आज, हम एक नैतिक और मानसिक संकट का सामना कर रहे हैं। हमें लोगों को नैतिकता, चित्त और भावनाओं की समझ में प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है, केवल कुछ हफ्तों के लिए नहीं, अपितु बाल विहार में अपनी शिक्षा के प्रारंभ से विश्वविद्यालय के अंत तक। हम ऐसा करने के लिए पाठ्यक्रम विकसित कर रहे हैं। परिणामस्वरूप भविष्य आप लोगों के हाथों में होगा जो २१वीं सदी के हैं। आपके पास एक बेहतर मानवता का निर्माण करने के लिए अवसर और उत्तरदायित्व है। इसका अर्थ सौहार्दता का विकास, किसी मुक्ति अथवा अपर जीवन के दृष्टिकोण से नहीं, पर इसी जीवन के संदर्भ में, यहाँ और अभी। तो, अपना शोध जारी रखिए, पर समय समय पर स्वयं से पूछते रहिए, 'मैं मनुष्यों को अधिक सुखी और अधिक शांतिपूर्ण बनाने में किस प्रकार योगदान दे सकता हूँ?'"