कोपेनहेगन, डेनमार्क - १० फरवरी २०१५- आज प्रातः जब ट्रॉनहैम के चारों ओर के समुद्र पर अंधेरा छाया था, परम पावन दलाई लामा ने उन तिब्बतियों से भेंट की, जो उनसे िमलने आए थे।
"हम लोग लगभग ५६ वर्षों से निर्वासन में हैं," उन्होंने कहा, "जो एक सामूहिक लोगों के जीवन में इस तरह का एक लंबा समय नहीं है, पर एक व्यक्ति के लिए लंबा समय प्रतीत हो सकता है।" तिब्बत में तिब्बतियों की भावना अभी भी बहुत प्रबल है। एक चीनी मित्र ने मुझे सूचित किया कि वे कितने मजबूत हो गए हैं। इसका कारण है कि उन्हें सख्त नीतियों का सामना करना पड़ता है। यह संकीर्ण विचारधारा की सख्त नीति ही उनकी चीनियों से पृथक होने की भावना को हवा देती है।
"जैसे चीनी उनकी संस्कृति से प्यार करते हैं, हम तिब्बती अपनी संस्कृति और भाषा से प्रेम करते हैं और उन्हें संरक्षित करना चाहते हैं। कुछ चीनियों ने मुझे बताया, कि यद्यपि वे भी नागार्जुन के िवचारों के पालन का दावा करते हैं, पर वह जिस स्पष्टता से वह तिब्बती में रखी गई है वे उसे उस प्रकार समझाने में असमर्थ हैं। चीनी भी नालंदा परंपरा का पालन करते हैं पर उस सख्ती से नहीं जिस प्रकार हम करते हैं। जहाँ आज चीनी युवा अपने शास्त्रीय बौद्ध ग्रंथों को पढ़ भी नहीं पाते, हम विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों की व्याख्या कर सकते हैं। यह गर्व करने योग्य बात है।"
परम पावन ने जीयन स्थान देखने का भी स्मरण किया, जहाँ से ल्हासा के शाक्यमुनि की प्रतिमा आई थी। वहाँ वह रिक्त स्थान था जहाँ यह बैठती थी। उन्होंने शहर की दीवार पर वह जगह भी देखी, जिस स्थान पर ७६३ ईसवी में तिब्बती सेना रुक गई थी जब उन्होंने शहर पर कब्जा कर लिया और अपने स्वयं के सम्राट को स्थापित किया। परम पावन ने कहा कि यद्यपि तिब्बती सैन्य शक्ति का ह्रास हुआ और देश राजनीतिक रूप से खंडित हुआ पर धार्मिक दृष्टिकोण से तिब्बती एकजुट रहे ः
"चीन में स्थितियाँ परिवर्तित हो रही है। हमें अपनी मातृभूमि लौटने का अवसर मिलेगा। हम सभी ने कड़ा परिश्रम किया है और वह सुबह आएगी। दिल छोटा न करें।"
ट्रॉनहैम बौद्ध एसोसिएशन, जो विभिन्न देशों से बौद्धों को एक साथ लाता है, ने परम पावन से भेंट की। उनमें थाईलैंड, बर्मा और वियतनाम के भिक्षु, भिक्षुणियाँ और उपासक शामिल हैं। उन्होंने उनसे कहाः
"यहाँ हम यूरोप के उत्तरी किनारे पर हैं। एशिया में कुछ ईसाई हैं किन्तु बर्मा, थाईलैंड, श्रीलंका, लाओस और कंबोडिया, चीन, कोरिया, जापान, वियतनाम, तिब्बत और मंगोलिया पारंपरिक रूप से बौद्ध हैं। मैं बौद्ध धर्म का प्रचार करने का कोई प्रयास नहीं करता, पर मैंने मंगोलिया जैसे देशों में मिशनरियों को देखा है। मैंने उनसे कहा कि यह बहुत अच्छा है यदि आप इन लोगों की सहायता कर सकते हैं, पर वे बौद्ध हैं और उनका धर्म परिवर्तन अनुचित है।"
"फिर भी, मैं सदा जिन बौद्धों से मिलता हूँ उनसे कहता हूँ कि हमें २१वीं शताब्दी का बौद्ध होने का प्रयास करना चाहिए। मात्र अंजलिबद्ध होकर और बिना समझे कि बुद्ध, धर्म और संघ या चार आर्य सत्य क्या हैं, बहुत सहायक नहीं होते। हमें यह जानने की आवश्यकता है कि निरोध क्या है और मार्ग के चरण क्या हैं। हमें सृजनकर्ता ईश्वर में कोई विश्वास नहीं है, हम अपने स्वयं के स्वामी हैं। पर बुद्ध हमें अनुभूति नहीं दे सकते, वे केवल मार्ग का संकेत कर सकते हैं जिसके द्वारा हम उसका पालन कर सकते हैं। इसी कारण मैं अपने चीनी भाइयों और बहनों और साथ ही तिब्बतियों से कहता हूँ कि अमिताभ की प्रार्थना अथवा मणि का जाप करना पर्याप्त नहीं है। हमें बुद्ध की शिक्षाओं को समझने की आवश्यकता है, अतः हमें अध्ययन करना होगा।"
परम पावन ने कहा कि पालि या थेरवाद परम्परा के अनुयायी बुद्ध के वरिष्ठ छात्र हैं। परन्तु संस्कृत परंपरा में, और संभवतः पालि परम्परा में, यह उक्त है कि बुद्ध ने अपने अनुयायियों को सलाह दी कि वे अंध भक्ति से उनकी शिक्षाओं को स्वीकार न करें, पर यह देखने हेतु कि क्या उनमें सत्यता है उनका परीक्षण, विश्लेषण और जाँच करें। इन विषयों में प्रयोगों को प्रयोगशाला में नहीं अपितु चित्त में करना है।
आइएसएफआइटि के छात्र ट्रॉनहैम हवाई अड्डे पर परम पावन को विदा देने आए जब वे कोपेनहेगन के लिए एक विमान में सवार हो रहे थे। जैसे ही गंतव्य निकट आया, बर्फ से ढँकी भूमि के स्थान पर हाल ही में जोते खेत दिखाई पड़े और सूर्योदय हुआ। विमान से उतरने पर लाखा रिनपोछे के नेतृत्व में स्वैच्छिक संघ के सात डेनिश संगठनों के प्रतिनिधियों और भारतीय दूतावास के एक प्रतिनिधि ने उनसे भेंट की। हवाई अड्डे से होटल, जो कि सम्मेलन केन्द्र जहाँ वे बोलने वाले हैं, पास में है, के रास्ते की यात्रा छोटी थी। आगमन पर तिब्बतियों ने उनका अभिनन्दन किया और उनका पारम्परिक ढंग से स्वागत किया गया।
मध्याह्न भोजनोपरांत परम पावन ने आयोजकों और तिब्बत समर्थक के सदस्यों के साथ भेंट की। उन्होंने लाखा रिनपोछे और उनकी पत्नी द्वारा भारत और डेनमार्क में किए गए सक्रिय कार्य की सराहना की और उनका धन्यवाद व्यक्त किया। उन्होंने पुरातत्व और रूनिक वर्णमाला के उद्गम जिसके प्रारंभिक उदाहरण का समय १५० ईसवी का है, पर चर्चा की।
होटल के द्वार पर शुगदेन समर्थक दल के प्रदर्शनकारियों के साथ एक भेंट ने परम पावन को शुगदेन विषय पर बोलने के िलए प्रेरित किया।
"यह कुछ नया नहीं है। यह सम्बद्धित आत्मा ५वें दलाई लामा के साथ कठिन संबंधों के कारण उभर कर आई। तब से १३वें दलाई लामा इसे आम तौर पर एक स्थानीय आत्मा माना जाता रहा और इसका महत्व कम था। फाबोंखा रिनपोछे ने इसके अभ्यास का प्रसार किया। वे उस पर अच्छे कारणों के लिए नहीं अपितु भय वश निर्भर रहे। अपने जीवन के प्रारंभिक भाग में उन्होंने एक गैर सांप्रदायिक दृष्टिकोण अपनाया था। ठिजंग रिनपोछे एक अवसर के बारे में मुझे बताया कि जब वे छोटे थे जब फाबोंखा रिनपोछे ने गुह्यतम हयग्रीव से संबंधित एकांतवास किया जिस दौरान उन्होंने गोलियाँ बनाईं। बाद में १३वें दलाई लामा ने उन्हें सावधान िकया कि यदि वे बहुत प्रबलता से इस आत्मा पर निर्भर रहे तो यह उनकी बौद्ध शरण प्रतिबद्धताओं का उल्लंघन होगा। परिणामस्वरूप १३वें दलाई लामा के जीवन के शेष काल में उनका अभ्यास कम महत्वपूर्ण बना रहा, पर जब उनका निधन हो गया तो उन्होंने उसे पुनः पुनर्जीवित कर दिया।"
"१९५१ में, यातुंग में मैंने इस अभ्यास को करने की त्रुटि की। बाद में १९६० के दशक में मैंने इसे अधिक बारीकी से देखा और जाना कि यह क्या था और इसे बंद कर दिया। मैंने अपने दोनों शिक्षकों को इस संबंध में सूचित किया और उन्होंने मुझे समर्थन दिया। मैं एक गैर सांप्रदायिक दृष्टिकोण अपनाता हूँ। मैं ञिङमा, सक्या, कर्ग्यू और गेलुग परम्पराओं से अभ्यास करता हूँ। मैं यह दृष्टि दूसरों को स्पष्ट करना अपना कर्तव्य़ समझता हूँ। लोग जो इन प्रदर्शनकारियों और प्रतिवादियों के साथ जोड़ तोड़ कर रहे हैं जो पूरी सूचना नहीं रखते, वे अपने स्वयं के कारणों के लिए ऐसा करते हैं। मुझे उनकी अज्ञानता पर दुख होता है।"
तिब्बतियों के एक समूह उनके परिवारों और मित्रों को सम्बोधित करते हुए परम पावन ने प्राचीन भारतीय ज्ञान की प्रशंसा की, विशेष रूप से चित्त और भावनाओं के विषय में, जिसे तिब्बतियों ने जीवित रखा है। इस ज्ञान को साझा कर तिब्बती विश्व में अपना योगदान दे सकते हैं। उन्होंने सुझाया कि तिब्बतियों को विनम्र, शिक्षित तथा ईमानदारी और करुणाशील हृदय होने की अपनी प्रतिष्ठा को बनाए रखना चाहिए। यह स्मरण कराते हुए कि १००० वर्ष पूर्व १० लाख की तिब्बती जनसंख्या का जो अनुमान डोमतोनपा ने लगाया था, उसमें गिरावट आई है, उन्होंने तिब्बतियों से अधिक बच्चे पैदा करने और उन्हें तिब्बती भाषी बनाकर बड़ा करना चाहिए।
उन्होंने उल्लेख किया कि चीन बदल रहा है, अब ४०० लाख चीनी बौद्ध जान पड़ते हैं, जिनमें से कुछ तिब्बती बौद्ध धर्म में रुचि ले रहे हैं । उन्होंने शी ज़िनपिंग की पेरिस और दिल्ली की टिप्पणी का उल्लेख किया कि चीनी संस्कृति को पुनर्जीवित करने में बौद्ध धर्म एक एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, एक प्रोत्साहजनक संकेत है।
इस कथन के साथ समाप्त करते हुए कि वे लगभग ८० वर्ष के हैं, पर डॉक्टरों का कहना है कि वे बिलकुल फिट हैं, उन्होंने अपने श्रोताओं को बताया कि उन्हें उनके विषय में चिंता नहीं करनी चाहिए। उन्होंने उन्हें खुश रहने की सलाह दी। कोपेनहेगन में निवास के दौरान परम पावन एक सार्वजनिक व्याख्यान देंगे और 'चित्त शोधन के अष्ट छंदों ' की व्याख्या करेंगे।