ऑक्सफोर्ड, इंग्लैंड, १३ सितम्बर २०१५ - कल भारत से आने के बाद, परम पावन दलाई लामा की नींद आज प्रातः ऑक्सफोर्ड की हल्की वर्षा में खुली। वर्षा शीघ्र ही थम गई जिससे वे मेगडालेन महाविद्यालय के मैदान में चलते हुए उद्यान के झाड़ियों और पेड़ों में रुचि लेते हुए महाविद्यालय के सभागार पहुँचे, जहाँ उन्होंने प्रेस से भेंट की। यह उल्लेख करते हुए कि इस जाने माने शिक्षा केन्द्र में आकर वे कितने प्रसन्न थे, उन्होंने तीन प्रतिबद्धताओं के बारे में समझाया जिसका पालन वे जहाँ कहीं भी जाते हैं वहाँ करते हैं।
"मैं ७ अरब जीवित लोगों में मात्र एक मानव हूँ। हम सभी समस्याओं का सामना करते हैं, जिनमें से कई हमारे स्वयंनिर्मित है। और चूँकि उन्हें हमने निर्मित किया है हममें निश्चित रूप से उन्हें हल करने की क्षमता है। मैं कभी कभी इच्छा करता हूँ कि वयस्क मनुष्य और अधिक बच्चों की तरह होते, जो स्वाभाविक रूप से अधिक उन्मुक्त और दूसरों को स्वीकारते हैं। इसके बजाय जैसे जैसे हम बड़े होते हैं हम अपनी सहज क्षमता और अपनी मौलिक मानवीय मूल्यों की भावना को पोषित करने में असफल होते हैं। हम अपने बीच के गौण अंतर के बीच फँस जाते हैं और 'हम' और ‘उन’ के संदर्भ में सोचने लगते हैं। जिस तरह शिक्षा और बुद्धि इसमें परिवर्तन ला सकता है उस तरह प्रार्थना इसे बदल नहीं सकती। हमें क्रोध तथा मोह जैसे भावनाओं, जो कि विनाशकारी हैं, और सकारात्मक भावना जैसे करुणा जो कि सुख का स्रोत है, में अंतर करना सीखने की आवश्यकता है।"
उन्होंने आगे समझाया कि एक बौद्ध भिक्षु के रूप में वे भारत के उदाहरण से प्रेरणा लेते हुए जहाँ सभी प्रमुख धर्म साथ साथ पनपते हैं, धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने का प्रयास करते हैं। उन्होंने समस्याओं और हिंसा का वर्णन करते हुए जो आज धार्मिक विश्वास से निकले जान पड़ते हैं, को अकल्पनीय बताया, चूँकि सभी धार्मिक परंपराएँ हमें करुणाशील, क्षमाशील और संतुष्ट होने की शिक्षा देते हैं। ये ऐसे गुण हैं, जो हमारे दैनिक जीवन के लिए प्रासंगिक हैं। उदाहरण के लिए सौहार्दता विश्वास उत्पन्न करता है, जो मैत्री की नींव है।
परम पावन ने समझाया वे एक तिब्बती हैं जिनका कई तिब्बतियों के प्रति उत्तरदायित्व है जो उन पर अपना विश्वास और आशा जमाए हुए हैं। वे तिब्बत के प्राकृतिक वातावरण, साथ ही इसकी करुणाशील अहिंसक बौद्ध संस्कृति के संरक्षण की चिंता रखते है।
यूरोप को प्रभावित करने वाले शरणार्थी संकट के विषय पर उनकी प्रतिक्रिया पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि वे सराहना करते हैं कि उनके कल्याण को गंभीरता से लिया जा रहा है, पर आगे कहा:
"अंततः हमें इन लोगों के देशों में हत्या और युद्ध को रोकना है जो शरणार्थी बनने के लिए उन्हें मजबूर कर रहा है, परन्तु बल के उपयोग के बिना। सैन्य बल कभी समस्याओं का समाधान नहीं कर पाएगा पर इसके बजाय अप्रत्याशित परिणाम का उत्पादन कर सकता है। पश्चिमी सभ्यता और इस्लाम के बीच संघर्ष की बात गलत है। मेरे मुसलमान मित्र मुझे बताते हैं कि एक सच्चे मुसलमान को रक्तपात नहीं करना चाहिए अपितु अल्लाह के सभी प्राणियों के प्रति सम्मान दिखाना चाहिए।"
नए दलाई लामा सेंटर फॉर कम्पेशन की आशाओं के संदर्भ में उन्होंने कहा, कि उनके विचार से यह एक सराहनीय प्रयास था, पर यह देखना बेहतर होगा कि यह कैसे विकसित हो सकता है। इस विषय पर, कि क्या भौतिक विकास के कारण तिब्बत में तिब्बतियों कोई लाभ हुआ है, उन्होंने सड़कों, हवाई अड्डों और रेलवे के रूप में इस तरह के बुनियादी ढांचे की सराहना की। उन्होंने यह भी कहा कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में कुछ अधिक यथार्थवादी प्रतीत होते हैं और भ्रष्टाचार से निपटने में साहसी हैं। जब तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र की घोषणा की ६०वीं वर्षगांठ के बारे में ज़ोर देकर पूछा गया तो उन्होंने टिप्पणी की, कि कई तिब्बती अधिकारियों के समक्ष यह दिखाते हैं कि वे सुखी हैं पर वास्तव में अंदर से बहुत दुःखी हैं।
जब एक पत्रकार ने उनसे पूछा कि क्या परम पावन सोचते हैं कि मीडिया के सदस्यों का जो वे रिपोर्ट करते हैं, उसको लेकर अधिक सकारात्मक होने का कर्तव्य है, उन्होंने टिप्पणी की, कि जहाँ वे स्वयं विश्व को बदल नहीं सकते वे ऐसा करने के लिए एक सकारात्मक योगदान दे सकते हैं।
अंदर मिलनर हॉल में वार्डन चार्ल्स कॉन द्वारा रोड्स हाउस में स्वागत किए जाने पर, उन्होंने तीन स्थानीय विद्यालयों के बच्चों का अभिनन्दन किया।
"नन्हें भाइयों और बहनों, समय सदैव चलता रहता है। हम अतीत को बदल नहीं सकते और भविष्य अभी आना बाकी है पर उसके कारण हमारे हाथों में हैं। हम भविष्य को परिवर्तित कर सकते हैं। २०वीं सदी की पीढ़ी, जिससे मेरा संबंध है, ने सभी प्रकार की समस्याओं को जन्म दिया, जिन्हें आपको सुलझाना है। आप हमारी आशाओं के स्रोत हैं, इसलिए संभवतः २१वीं सदी का अंत शांतिपूर्ण तथा और अधिक सुखी होगा। अपने बीच के गौण मतों पर ध्यान केन्द्रित करने के बजाय, हमें सोचने की आवश्यकता है कि हम किस तरह अन्योन्याश्रित हैं और सभी मुनष्य एक बड़े परिवार से संबंध रखते हैं।
"विसैन्यीकरण और निरस्त्रीकरण एक स्वप्न की तरह प्रतीत हो सकता है, पर आप इसे वास्तविक बना सकते हैं और एक अधिक खुशहाल और अधिक शांतिपूर्ण विश्व बना सकते हैं। भविष्य आपके हाथों में हैं, पर इसे अधिक शांतिपूर्ण और सुखी बनाने के लिए करुणा की भावना और दूसरों के कल्याण को लेकर चिंता की आवश्यकता है। इसे एक वास्तविकता बनाने के लिए शिक्षा में धर्मनिरपेक्ष नैतिकता, सार्वभौमिक मूल्यों को लाना शामिल है।"
बच्चों के तीन दलों ने प्रश्न पूछे। पहली सीरियाई शरणार्थियों के बारे में था। परम पावन ने सराहना व्यक्त की कि उनकी समस्याओं को गंभीरता से लिया जाना प्रारंभ हो गया है। उन्होंने उल्लेख किया कि व्यावहारिक होना आवश्यक है, क्योंकि उन्हें लेते हुए लम्बे समय में उन्हें शिक्षा, सहायता और रोजगार प्रदान करना आवश्यक है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि उनके अपने देशों में उनकी समस्याओं का समाधान ढूँढना, जिनके कारण उन्हें शरणार्थी बनना पड़ा है। दूसरे दलों के छात्रों ने परम पावन को बताया कि उनके तीन नियम था:
"दयालु रहो, दयालु रहो और दयालु रहो" परम पावन ने यह कहते हुए सहमति व्यक्त की:
"यह ठीक है, क्योंकि हमारा अपना कल्याण अन्य मानवता के कल्याण से जुड़ा है। हमें सभी मानव लोगों के कल्याण के बारे में सोचना है।"
तीसरे दल ने उन्हें उन मुर्गियों के अंडों का एक टोकरा दिया जिनकी देख रेख उन्होंने की थी।
दलाई लामा सेंटर फॉर कम्पेशन (DLCC) के अध्येताओं को सम्बोधित करते हुए परम पावन ने सुझाया कि २१वीं सदी की शुरुआत होने के बावजूद, हम सोच के पुराने तरीकों से बाधित हो रहे हैं जो मानव निर्मित समस्याओं को जन्म देते हैं। उन्होंने उदाहरण दिया कि, किस प्रकार हाल में रूस और चीन ने सैन्य ताकत के प्रदर्शन की मुहिम शुरू की है और गर्व से अपने हथियारों का प्रदर्शन कर रहे हैं।
"हमें यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि हम सभी सुखी होना चाहते हैं और दुःख नहीं चाहते। वह करने के लिए हमें शिक्षा में सुधार लाने और जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता है।"
इस सुझाव पर कि शीघ्र ही एक गोली लेने से दर्द समाप्त करना संभव हो पाएगा, परम पावन ने स्वयं को शंकाकुल घोषित किया कि क्या उसी प्रकार मानसिक व्याकुलता दूर हो पाएगी। उन्होंने कहा:
"मुझे शंका है कि यह हमारे व्याकुल करने वाली भावनाओं पर काबू पाने की अनुमति देगा। वे चित्त का भाग हैं और उन्हें चित्त के अंदर सुलझाने की आवश्यकता है। और जो बहुत अधिक महत्वपूर्ण है, वह है भावनाओं की पूरी व्यवस्था को समझना। इस विषय पर प्राचीन भारतीय मनोविज्ञान की गहरी पैठ थी। तिब्बतियों ने इसे पोषित किया और इस ज्ञान को जीवित रखा है।"
परम पावन ने परंपरागत बौद्ध साहित्य की सामग्री के तीन वर्गों की बात कीः विज्ञान, दर्शन और धर्म। इनमें से जहाँ शैक्षणिक स्तर पर विज्ञान और दर्शन, किसी की भी रुचि का हो सकते है पर धार्मिक पक्ष बौद्धों का व्यापार है। उनका अंतिम सुझाव था, कि खोज की जाए कि किस प्रकार करुणा को वास्तविकता की एक उचित समझ के साथ जोड़ा जा सकता है।
मध्याह्न भोजन के पश्चात, ऑक्सफोर्ड तिब्बती अध्ययन विभाग के सदस्यों के साथ बैठक में, सबसे पहले उन्होंने उन्हें एक पुस्तक प्रस्तुत की जो गंभीर रूप से अस्वस्थ एंथोनी ऐरिस के प्रति श्रद्धांजलि थी और जिन पर उन सब ने हस्ताक्षर किए थे।
अपनी टिप्पणी में परम पावन ने उल्लेख किया, कि जब बौद्ध धर्म तिब्बत आया तो वह प्रासंगिक और उपयोगी था। युद्धरत तिब्बती अधिक करुणाशील व शांतिपूर्ण हो गए। उन्होंने उन्हें सलाह दी कि वे सोचें कि आज तिब्बती अध्ययन में क्या प्रासंगिक होगा और एक पूर्व तिब्बती अधिकारी की कहानी सुनाई जो संयुक्त राज्य अमेरिका में सब्जियों को साफ करने का काम कर रहा था। उसके सहयोगियों ने ध्यान दिया कि वह कीड़े मकोडों को एक ओर रख देता था और अपने शिफ्ट के अंत में उन्हें स्वतंत्र करने के लिए बाहर ले जाता था। जब उन्होंने पूछा कि वह क्या कर रहा था तो उसने उन्हें बताया कि तिब्बतियों में जीवन के सभी रूपों के लिए एक गहरी श्रद्धा है और इन प्राणियों को मारने की कोई आवश्यकता नहीं है। शीघ्र ही उनमें से कई उसके उदाहरण का अनुसरण करने लगे।
"तिब्बतियों की अपनी संस्कृति है," परम पावन ने कहा। "यह चीनी संस्कृति नहीं है और यह संरक्षण के योग्य है। और तो और संस्कृति, भाषा और धर्म ने ही आज तिब्बतियों को एकजुट कर रखा है।"
दिन की अंतिम सभा में, डीएलसीसी के उद्घाटन के भाग में अपने पुराने मित्र एलेक्स नॉर्मन के साथ संवाद में, परम पावन अपने स्वयं के जीवन से कुछ शिक्षाओं का स्मरण किया। उन्होंने शिक्षा को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता पर बल दिया जो उनके अनुसार हमारी एकमात्र आशा है। उन्होंने कहा, कि जहाँ धर्म के धार्मिक और दार्शनिक पहलू काफी स्थिर हो सकते हैं, पर जहाँ सांस्कृतिक पक्ष तारीख से बाहर हैं, उन्हें बदलने की जरूरत है।
एक बार पुनः धर्म निरपेक्ष नैतिकता की आवश्यकता पर बल देते हुए उन्होंने उल्लेख किया कि जहाँ डॉ अम्बेडकर और भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद, गहन रूप से धार्मिक थे, परन्तु नव स्वतंत्र भारत के लिए जो संविधान उन्होंने बनाया वह सख्त रूप से धर्मनिरपेक्ष था। उन्होंने दोहराया कि इस प्रकार का एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण आज प्रासंगिक और उपयुक्त बना हुआ है। उन्होंने सुझाव दिया कि वैज्ञानिक निष्कर्ष संकेत देते हैं कि बुनियादी मानव प्रकृति करुणाशील है। इस बीच सहज ज्ञान हमें बताता है कि यद्यपि वह बहुत सम्पन्न न हों, पर वह परिवार जो अधिक दयालु तथा अधिक करुणाशील है, वह सुखी है। धनवान, जिनमें बुनियादी स्नेह का अभाव है और ईर्ष्या से पीड़ित हैं, वे दुखी हैं।
चुनौतीपूर्ण रूप से पूछे जाने पर, उन्होंने उत्तर दिया कि निश्चित रूप से धर्म की एक भूमिका है, पर चूँकि इस या उस धर्म का सार्वभौमिक आकर्षण कभी न होगा, अतः आज धर्मनिरपेक्ष नैतिकता अधिक प्रासंगिक है। उनके समक्ष लोगों के लिए एक अंतिम सलाह के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने उत्तर दिया:
"यथार्थवादी बनें। जब वृद्ध युवा होने का नाटक करें और मूढ़ बुद्धिमान होने का नाटक करें तो सिर्फ यथार्थवादी होना श्रेयस्कर है। विश्व को परिवर्तित करना हम पर है। यदि हम में से प्रत्येक प्रयास करे तो अगली पीढ़ी को एक अधिक सुखी, अधिक शांतिपूर्ण विश्व को उभरता देख सकती है। मैं यहाँ आपके साथ होते हुए प्रसन्न हूँ, धन्यवाद।"