गिफू, जापान , ८ अप्रैल २०१५ -आज प्रातः कई व्यक्तिगत दर्शनों के अतिरिक्त परम पावन दलाई लामा ने जापानी पत्रकारों, असाही शिमबुन समाचार पत्र के तेत्सुओ कोगुरे और केन्टारो इसोमुरा और लाइव व्यूइंग जापान के माकी ओसानाइ को एक साक्षात्कार दिया। उन्होंने यह स्मरण करते हुए प्रारंभ किया कि परम पावन के नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्ति के बाद २५ से अधिक वर्षों में आतंकवाद फैला है। उन्होंने उनसे पूछा कि वह स्थिति को कैसे देखते हैं। उन्होंने उत्तर दिया:
"बर्लिन दीवार के गिरने के पश्चात सोवियत संघ ढह गया और वारसा संधि समाप्त हो गई। वारसा संधि के कई पूर्व सदस्य लोकतांत्रिक राज्यों के रूप में उभरे। परमाणु संकट शांत हुआ जिसके परिणाम स्वरूप विश्व अधिक सुरक्षित बना। यह सच है कि कई आतंकवादी घटनाएँ हुई हैं पर फिर भी वे एक परमाणु विनिमय की तुलना में हल्की हैं। सबसे दुखद पहलू यह है कि आतंकवाद धार्मिक आस्था से जोड़ा गया है। इसमें शामिल लोगों तक पहुँचने के लिए हमें अपने प्रयासों को दुगुना करने की आवश्यकता है। अतीत में सभी धर्मों ने लाखों लोगों को सांत्वना प्रदान की है और वे ऐसा करना जारी रखेंगे। हमें स्वीकार करना होगा कि व्यापक विश्व में कई धर्म और कई सत्य हैं।"
पत्रकारों ने संकेतित किया कि इस प्रकार के संवाद का प्रारंभ अत्यंत कठिन हो सकता है। परम पावन ने सहमति व्यक्त की, पर इस बात पर बने रहे कि यद्यपि संभव है कि कुछ कट्टरपंथियों पर कोई प्रभाव न पड़ेगा, पर अन्य उचित दलों द्वारा उचित पहल करने की संभावना है। उन्होंने जॉर्डन में मिले मुसलमान जो अच्छी तरह से शिक्षित हैं और विश्व का ज्ञान रखते हैं, और भारतीय मुसलमान, जो एक बहु-धार्मिक समाज में रहने से परिचित हैं, का उल्लेख किया जो उनके साथी मुसलमानों पर एक सकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं।
"इसके समाधान का बस यही एकमात्र तरीका है। मात्र अधिक बम फेंकने से कुछ न होगा।"
पत्रकारों ने परम पावन से पूछा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक स्वतंत्रता के बीच किस प्रकार एक संतुलन खोजा जाए। उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता का यह अर्थ नहीं कि आप लोगों को मार सकते हैं। उन्होंने सूचित किया जो वे पहले सूचित कर चुके हैं कि मुसलमान मित्रों ने उन्हें बताया है कि जब कोई मुसलमान रक्तपात प्रारंभ करता है तो वह एक उचित मुसलमान नहीं रह जाता। इसी प्रकार उनके मित्रों ने स्पष्ट किया है कि प्रायः जिहाद शब्द का गलत अर्थ लगाया जाता है। यह अन्य लोगों को नुकसान पहुँचाने के बारे में नहीं है, यहाँ संघर्ष जिस रूप में संदर्भित होता है वह अपने उद्वेलित करने वाली भावनाओं के साथ संघर्ष है। और उस दृष्टिकोण से सभी धार्मिक परम्पराएँ जिहाद में संलग्न हैं।
"अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है, परन्तु इसका प्रयोग एक सकारात्मक रूप में किया जाना चाहिए। इस तरह की स्वतंत्रता इस समझ पर आधारित है कि मानवीय प्रकृति अनिवार्य रूप से सौम्य है और मनुष्यों में ऐसी बुद्धि होती है जिसका उपयोग रचनात्मक रूप से किया जा सकता है।"
"आप वास्तव में क्या प्राप्त करना चाहते हैं? क्या वास्तव में आपका इस्लाम में विश्वास है? क्या आप में इस्लाम की प्रतिष्ठा के लिए कोई चिंता नहीं है?"
अन्य स्थानों में भी संघर्ष है जिसका उत्तर मध्यस्थता हो सकता है। उन्होंने बर्मा के बौद्ध-मुस्लिम संघर्ष का और वहाँ के बौद्धों के प्रति उनका आग्रह कि जब वे स्वयं को टकराव में पाएँ तो बुद्ध के मुख की भावना करें, का उल्लेख किया। उन्होंने अपने विश्वास को पुनर्कथित िकया कि यदि बुद्ध उस स्थिति में उपस्थित होते तो जिन मुसलमानों पर आक्रमण हुआ है उन्हें सुरक्षा प्रदान करते।
पत्रकारों ने केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (सीटीए) और चीनी अधिकारियों के बीच बातचीत की संभावनाओं के बारे में पूछा। परम पावन ने उत्तर दिया कि सीधा संपर्क १९७९ में प्रारंभ हुआ था और १९९३ में फिर से शुरू किया गया था, परन्तु अभी तक कोई ठोस परिणाम नहीं आए। उन्होंने कहा कि कम्युनिस्ट अधिकारियों के बीच कट्टरपंथी इस बात पर बल देने में लगे हुए कि तिब्बती अलगाववादी हैं जो कि चीन से तिब्बत को अलग करने लगे हुए हैं, जबकि विश्व जानता है कि वे स्वतंत्रता की मांग नहीं कर रहे। उन्होंने टिप्पणी की कि शी ज़िनपिंग अधिक यथार्थवादी और भ्रष्टाचार से निपटने के लिए अपने प्रयासों में अधिक सच्चे लगते हैं। इस बीच, साधारण चीनियों के बीच तिब्बतियों के लिए समर्थन बढ़ता प्रतीत होता है।
अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि बुद्ध के बाद २६०० वर्ष बीत चुके हैं और जापान जैसे देशों में उनकी शिक्षा का पनपना जारी है। इस बीच आज गैर-बौद्ध देशों में यह जानने के प्रति रुचि बढ़ रही है कि बौद्ध धर्म चित्त के विषय में क्या शिक्षा देता है। उन्होंने कहा कि चूँकि बौद्ध धर्म और अन्य धार्मिक परम्पराएँ मानव कल्याण के लिए योगदान देती हैं, हममें उन सभी के लिए सम्मान होना चाहिए।
"बुद्ध देशना का एक अनूठा कारक प्रतीत्य समुत्पाद की धारणा है, पर इसका यह अर्थ नहीं कि बौद्ध धर्म, अन्य परंपराओं की तुलना में बेहतर है, क्योंकि चाहे यह अथवा वह परम्परा उपयुक्त है, वह व्यक्ति के स्वभाव पर निर्भर करता है। बुद्ध ने स्वयं श्रोताओं की अलग प्रकृति के कारण विभिन्न अवसरों पर विभिन्न शिक्षा दी। कुछ स्थानों पर उन्होंने समझाया कि आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, जबकि अन्य स्थानों पर उन्होंने शिक्षा दी कि पञ्च मनोवैज्ञानिक शारीरिक समुच्चय एक बोझ की तरह हैं और व्यक्ति उसका वाहक है, जिससे ऐसा लगता है कि स्वतंत्र अस्तित्व है। इन सभी धार्मिक परंपराओं का आम संदेश प्रेम, करुणा और संतोष है।"
"बुद्ध देशना के चार आर्य सत्य और प्रबुद्धता के ३७ कारक पालि और संस्कृत परंपराओं के लिए आम हैं। प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाएँ, द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन का अंग हैं। प्रज्ञा के विकास के लिए वे हमसे विश्लेषण तथा परीक्षण की अपेक्षा रखती हैं। इसमें आधार, मार्ग तथा परिणाम शामिल थे। आधार प्रज्ञा से परिचय की स्थापना है। मार्ग पर हम ध्यान द्वारा उसे गहन करते हैं और परिणामस्वरूप हम प्रबुद्धता की प्राप्ति करते हैं।"
उन्होंने समझाया कि प्रज्ञा के संबंध में बौद्ध दृष्टिकोण में श्रवण, चिन्तन और मनन शामिल है। हम निर्देशों को सुनकर अथवा उसके विषय में पढ़कर सीखते हैं। हम उसकी समझ को चिन्तन से गहन करते हैं और भावना में उस समझ से परिचित होकर हम अंतर्दृष्टि प्राप्त करते हैं। उन्होंने इसे तीन अधिशिक्षाओं से जोड़ा। शील की अधिशिक्षा में सिद्धांत तथा विनय आते हैं। भावना के लिए शमथ आवश्यक है और प्रज्ञा में विपश्यना का विकास आवश्यक है।
जब हृदयसूत्र मंत्र में, बुद्ध कहते हैं 'तद्यथा गते गते पारगते परासंगते बोधि स्वाहा' तो वे अपने अनुयायियों को पाँच मार्ग से होते हुए आगे जाने के लिए कह रहे हैं
गते - संभार मार्ग,
गते - प्रयोग मार्ग,
पारगते - दर्शन मार्ग,
पारसंगते -भावना मार्ग,
बोधि स्वाहा - अशैक्ष्य मार्ग
एक और छोटी बच्ची ने उनसे पूछा कि वे कहाँ पुनर्जन्म लेना चाहेंगे और उन्होंने 'बोधिसत्वचर्यावतार' के अपने सबसे प्रिय श्लोक को उद्धृत करते हुए कहा ः
जब तक अंतरिक्ष स्थित है
और जब तक सत्व बने हुए हैं
तब तक मैं भी बना रहूँ
संसार के कष्टों को दूर करने के लिए।
जब एक युवक, जिसने भूटान में समय बिताया है, ने सुख के विषय में पूछा, तो परम पावन ने इंद्रिय जनित सुख तथा चैतसिक सुख के बीच अंतर को स्पष्ट किया और कहा कि चैतसिक सुख चित्त के प्रशिक्षण से प्राप्त किया जा सकता है। हाथों में बच्चा थामे एक युवा माँ ने पूछा कि बच्चों का पालन करते समय क्या याद रखना सबसे आवश्यक है, परम पावन की तत्काल प्रतिक्रिया थी कि वे नहीं जानते, पर उन्होंने कहा ः
एक अंतिम संस्कार के निदेशक जानना चाहते थे कि जो मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं हम उनकी सहायता के लिए क्या कर सकते हैं और परम पावन ने उससे कहाः
"चूँकि हम बौद्ध एक सृजनकर्ता ईश्वर में विश्वास नहीं करते, हमारे साथ जो होता है, वह हमारे ही हाथों में है। यदि मृतक ने सद्कार्य किए हों तो उसे सद्गति प्राप्त होगी। बुद्ध ने कहा 'आप स्वयं अपने स्वामी हैं' और उनका अर्थ था कि हमारा भाग्य हम पर और हम जो करते हैं, उस पर निर्भर है। यदि जो व्यक्ति मर गया है वह आपके परिवार का एक सदस्य है, तो आप उनकी ओर से समर्पण दे सकते हैं। यदि वह आपके माता-पिता में से एक थी या था, तो आप उनके लिए पुण्य कार्य कर सकते हैं। और यदि वह आपका शिक्षक अथवा शिक्षिका थी तो आप उनके लिए प्रार्थना कर सकते हैं। फिर आप किस प्रकार के अंतिम संस्कार का आयोजन करेंगे वास्तव में उससे कोई अंतर नहीं पड़ता।"
एक महिला जो वेदियाँ बेचती हैं, जो जापानी मृतकों की स्मृति में बनाए रखते हैं, ने परम पावन से पूछा कि उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण शिक्षण क्या है। उन्होंने उत्तर दियाः
"बोधिचित्त और शून्यता। भावना द्वारा शून्यता की समझ धर्म काय को जन्म देती है जो दूसरों के लिए लाभकारी है। यह उपाय और प्रज्ञा के अभ्यास के फल हैं, जिनकी चर्या सत्य द्वय की समझ के संदर्भ में होनी चाहिए। जैसे नागार्जुन की 'रत्नावली' में आता है ः
'यदि मुझे और यह विश्व
अनुत्तर बोधि प्राप्त करने की इच्छा हो तो,
'उसका मूल बोधिचित्त है
जो शैलेन्द्रराज सम दृढ़ हो,
दिगन्त पर्यन्त करुणा,
और ज्ञान, जो द्वैत पर निर्भर नहीं है।'
कार्यक्रम का समापन महिला के सामूहिक वृन्द द्वारा ऊँ मणि पद्मे हुँ का पाठ सरल गान के रूप में हुआ। ए जे एस पी वाइ ए के अध्यक्ष ने परम पावन को एक परम्परागत छतरी भेंट की और सौहार्दपूर्ण तालियों की गड़गड़ाहट के बीच उन्होंने सभागार से प्रस्थान किया