चेन्नई, तमिलनाडु, भारत - १० नवंबर २०१५ - विगत एक दो दिनों से भारी वर्षा व आँधी, जो चेन्नई को प्रताड़ित कर रही थी, में तनिक कमी आई जब आज प्रातः परम पावन दलाई लामा गाड़ी में शहर से होते हुए गुज़रे। उन्हें एक्सट्रा-म्यूरल लेक्चर सीरीज़ के भाग के रूप में आई आई टी मद्रास के छात्रों को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया था। आई आई टी का परिसर पहले आसपास के गिंडी राष्ट्रीय उद्यान का हिस्सा था, यह वृक्षों से भरा है और वहाँ कई प्रकार के हिरण चरते हुए देखे जा सकते हैं।
परम पावन के आगमन पर निदेशक भास्कर राममूर्ति और छात्र प्रतिनिधियों ने उनका स्वागत किया। परम पावन ने पूछा कि आई आई टी में कितने छात्र हैं और उन्हें बताया गया कि कुल ८००० छात्र हैं जिनमें से ३००० सभागार में उन्हें सुनने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सभागार में प्रवेश करने से पहले उनकी यात्रा के उपलक्ष्य में उन्हें एक बोधि वृक्ष (पीपल) के रोपण के लिए आमंत्रित किया गया।
श्रोताओं को परम पावन का परिचय कराते हुए, निदेशक ने उल्लेख किया कि उन्होंने परम पावन को प्रथम बार उस समय सुना था जब वे १९८० में सांता बारबरा में एक छात्र थे। उन्होंने कहा कि यह कुछ ऐसा था जिसे वे आजीवन स्मरण रखेंगे।
"आदरणीय बड़े भाई और भाइयों और बहनों," परम पावन ने प्रारंभ किया, "मेरे लिए इस प्रसिद्ध संस्था के छात्रों के साथ भेंट करना एक महान सम्मान की बात है। पर जो भी हो जब भी मैं अन्य लोगों से मिलता हूँ तो मैं अपने आपको मात्र एक अन्य मानव समझता हूँ। फिर भी, बौद्ध शिक्षाओं में यह समझाया गया है कि हम सबमें बुद्ध प्रकृति है, हमारे अंदर बुद्धत्व का बीज है। वैज्ञानिक खोजों ने स्पष्ट किया है कि आधारभूत मानव स्वभाव करुणाशील है। यह देखने में आया है कि शिशु, इसके पहले कि वे बात करने में सक्षम हों उनकी लोगों की एक दूसरे को सहायता करते हुए चित्रों को देख सकारात्मक प्रतिक्रिया होती है और दूसरी ओर उन चित्रों से जिसमें लोग एक दूसरे को बाधित करते हैं, से वे बचना चाहते हैं। इस बीच चिकित्सा अनुसंधान ने पाया है कि निरंतर भय और क्रोध हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को हानि पहुँचाता है, अतः एक अधिक स्नेहपूर्ण, करुणाशील दृष्टिकोण हमारे शारीरिक स्वास्थ्य के लिए प्रत्यक्ष रूप से लाभदायी है।
"बौद्ध भी चेतना की चर्चा सूक्ष्मता के विभिन्न स्तरों के संदर्भ में करते हैं। ऐन्द्रिक अनुभवों की सामान्य जाग्रत अवस्था अपेक्षाकृत स्थूल है। स्वप्नावस्था सूक्षमतर है जबकि गहन सुषुप्ति की अवस्था उससे भी सूक्ष्म है। जब हम बेहोश होते हैं तो चेतना बहुत सूक्ष्म होती है परन्तु सूक्ष्मतम चेतना वह है जो मृत्यु के समय बनी रहती है। ऐसे व्यक्ति हैं जो उस सूक्ष्मतम चेतना पर ध्यान केंद्रित कर नैदानिक रूप से मर चुके हैं। उनके मस्तिष्क रुक गए हैं पर फिर भी उनके शरीर ताजे रहते हैं। यह ऐसी घटना है जिस पर कुछ वैज्ञानिकों ने खोज प्रारंभ की है। वह सूक्ष्मतम चेतना विशुद्ध रहती है, यह विनाशकारी भावनाओं से ढँकती नहीं। वही बुद्ध प्रकृति है , प्रबुद्धता का सार।
"चूँकि आधारभूत मानव स्वभाव करुणाशील है, क्लेश जो हमें हत्या, नुकसान करने और दूसरों का शोषण करने के लिए प्रेरित करते हैं, उनका कारण माध्यमिक कारक हैं। और यह तथ्य कि मानव स्वभाव सकारात्मक है, आशा का एक स्रोत है। इस आधार पर ही मेरा यह विश्वास है कि यदि हम दृष्टि और आत्मविश्वास के साथ प्रयास करें तो हम २१वीं सदी को शांति व करुणा का एक युग बना सकते हैं, सच्चे सुख का युग।"
परम पावन ने टिप्पणी की, कि यद्यपि २०वीं सदी बहुत अधिक विकास और प्रगति का एक समय था, यह बहुत अधिक रक्तपात की अवधि भी थी। उन्होंने कहा कि दुख की बात है कि उस हिंसा का कुछ अंश इस सदी में भी छलक गया है। इसके विपरीत, भारत में अहिंसा की एक दीर्घकालीन परम्परा और धर्मनिरपेक्ष नैतिकता की एक प्रणाली है, ऐसे मूल्य जो सभी धर्मों के प्रति विश्वास को और उनके विचारों को भी जिनकी कोई आस्था नहीं है, प्रतिबिम्बित करते हैं।
उन्होंने उनके जीवन की तीन प्रतिबद्धताओं का उल्लेख किया:
"सबसे प्रथम, एक मनुष्य के रूप में हम सब एक समान हैं, शारीरिक रूप से मानसिक रूप से और भावनात्मक रूप से। हम सब एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं, और हम सभी को ऐसा करने का अधिकार है। पर हम सब भावनाओं के आधीन हैं। मेरी पहली प्रतिबद्धता सभी मनुष्यों की एकता को बढ़ावा देने की है, जिसके आधार पर हत्या व शोषण का कोई धरातल नहीं रह जाता। जलवायु परिवर्तन और वैश्विक अर्थव्यवस्था ये दो बातें अब राष्ट्रीय सीमाओं तक सीमित नहीं हैं। बल्कि वे हमें यह सोचने के लिए प्रोत्साहित करते हैं कि हम सब एक मानव परिवार के हैं। आप युवा जो २१वीं सदी के हैं, वो पीढ़ी हैं जो एक बेहतर विश्व का निर्माण कर सकते हैं, पर आपको उत्तरदायित्व, दृढ़ संकल्प और दूरदृष्टि की भावना की आवश्यकता होगी।"
इसके बाद परम पावन ने चर्चा की, कि क्यों ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्ध ने अलग अलग समय पर लोगों के विभिन्न समूहों के लिए अलग अलग शिक्षाएँ दी। उन्होंने कहा कि स्पष्ट रूप से वे स्वयं भ्रमित नहीं थे और न ही वह दूसरों को भ्रमित करने का प्रयास कर रहे थे। उन्होंने वास्तव में जो उन्हें सुन रहे थे उनके स्वभाव और उनकी क्षमता के अनुसार शिक्षा दी। इसी तरह, हमारे अन्य विभिन्न धार्मिक परम्पराओं के विभिन्न दार्शनिक विचार है, पर फिर भी वे प्यार का समान संदेश देते हैं। वे भी स्वीकार करते हैं कि प्रेम के अभ्यास में सहनशीलता, क्षमा और संतोष के समर्थन की आवश्यकता हैं। इन परम्पराओं में से प्रत्येक का एक ही उद्देश्य है, पर उसके लिए वे अलग दृष्टिकोण अपनाते हैं।
इस भूमि पर विकसित हुई परम्परा के अतिरिक्त भारत कई परम्पराओं का घर है जिनका जन्म भारत के बाहर हुआ हैः पारसी, यहूदी, ईसाई, इस्लाम इत्यादि। इसमें विश्व के लिए एक उदाहरण है कि धार्मिक परम्पराएँ साथ साथ एक दूसरे के साथ शांति की भावना लिए रह सकती हैं।
"मैं साधारणतया स्वयं को भारत के एक दूत के रूप में वर्णित करता हूँ क्योंकि मैं अहिंसा और अंतर-धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देता हूँ। मैं स्वयं को भारत का पुत्र भी कहता हूँ, क्योंकि जो ज्ञान मेरे मस्तिष्क को भरता है उन सबका उद्गम नालंदा परम्परा में हुआ। और तो और पिछले ५५ वर्षों से भी अधिक मेरा शरीर भारतीय चावल, दाल और चपाती द्वारा पोषित हुआ है।
"मेरी तीसरी प्रतिबद्धता का संबंध मेरे तिब्बती होने से है। तिब्बत के ९५% तिब्बती मुझ पर अपना विश्वास और आशा बनाए हुए हैं, इसलिए जो मैं कर सकता हूँ वह मुझे करना है। इन दिनों मैंने अपने राजनैतिक उत्तरदायित्व से त्यागपत्र दे दिया है, पर मैं तिब्बती प्राकृतिक पर्यावरण के बारे में चिंतित हूँ। एक चीनी विशेषज्ञ ने कहा कि चूँकि तिब्बती पठार उत्तर और दक्षिण ध्रुव के समान महत्वपूर्ण है, उसने उसे तीसरे ध्रुव के रूप में संदर्भित किया। एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि जहाँ राजनीतिक परिवर्तन रातों-रात प्रभावित किया जा सकता है, पर तिब्बती पर्यावरण पर किए गए किसी भी नुकसान को पुनः पहली जैसी स्थिति में लाने में एक लंबा समय लग जाएगा। वैसे भी, उत्तर भारत और मध्य और दक्षिण-पूर्व एशिया तिब्बत की नदियों पर निर्भर हैं, जिसके एक अरब लोग पीने के पानी की आपूर्ति के लिए उन पर निर्भर हैं। और जैसे दूसरों के लिए हमारी नदियों का जल महत्वपूर्ण है, शांति, करुणा और अहिंसा की हमारी संस्कृति भी संरक्षण के योग्य है।"
छात्रों द्वार तैयार प्रश्नों में परम पावन से पूछा गया कि कार्य के संबंध में समर्पण और उससे लगाव में किस प्रकार भेद किया जा सकता था। उन्होंने उत्तर दिया कि सब आपकी प्रेरणा पर निर्भर करता है। यदि आप वास्तव में स्वार्थी हैं, तो लगाव उत्पन्न होगा। अगला प्रश्न था कि क्या परम पावन निराश होते हैं जब विदेशी नेता उनसे भेंट करने से मना कर देते हैं। उन्होंने उत्तर दिया कि वे सदा जनता से मिलने को सबसे महत्वपूर्ण समझते हैं। मानवता में परिवर्तन धरातल के उन जैसे लोगों से जिनसे आज वे बात कर रहे थे, से प्रारंभ होता है। उन्होंने सफलता को एक सार्थक जीवन जीना कहकर परिभाषित किया जिसमें उन्होंने समझाया दूसरों के जीवन में सुख और आनन्द लाना है।
छात्रों के प्रवक्ता ने कहा हम सभी के पालन करने के लिए एक अनुकरणीय व्यक्ति होते हैं, जब आप छोटे थे तो क्या आप किसी को अपना आदर्श मानते थे और परम पावन ने उत्तर दिया:
"मेरा पहला आदर्श मेरी माँ थी। वे एक अनपढ़, अशिक्षित किसान की पत्नी हो सकती हैं पर वह वास्तव में दयापूर्ण थीं। बाद में जब मैंने अध्ययन प्रारंभ किया तो बुद्ध और अन्य गुरुओं की कहानियों ने पालन करने के लिए मुझे आदर्श प्रदान किए, और बाद में वह महात्मा गांधी थे।"
परम पावन ने एक प्रश्न का कि क्या आगामी दलाई लामा एक स्त्री होंगी, उत्तर देते हुए कहा कि वर्षों पूर्व एक पेरिस पत्रिका द्वारा यह पूछा गया था। उनका उस समय का और अब का उत्तर यह है कि यदि यह अधिक उपयोगी हो तो यह बहुत संभव होगा कि दलाई लामा एक स्त्री हों। उन्होंने ज़ोर देते हुए कहा कि वे अनुभव करते हैं कि और अधिक स्त्रियों को नेतृत्व की भूमिका लेनी चाहिए और अनुमान लगाया कि यदि विश्व के अधिक राष्ट्रों का नेतृत्व स्त्रियाँ करें तो विश्व एक और अधिक शांतिपूर्ण स्थान हो सकता है।
उन्होंने छात्रों को बताया कि उनकी सबसे बड़ी खोज बौद्ध विज्ञान और आधुनिक विज्ञान के बीच में समानता थी। उन्होंने भारतीय परमाणु भौतिकविद् राजा रामण्णा को उद्धृत किया जिन्होंने उनसे कहा था कि उन्होंने क्वांटम भौतिकी जो कहना चाहता है और लगभग २००० वर्ष प्राचीन नागार्जुन की रचनाओं के बीच एक प्रबल गूंज पाई थी।
मंच छोड़ने से पहले, परम पावन ने दर्शकों से आग्रह किया:
"कृपया जो मैंने कहा है उसके बारे में सोचें। यदि यह आपको सार्थक लगता है तो उसे कार्यान्वित करने का प्रयास करें। पर यदि इसमें कोई तथ्य दिखाई नहीं पड़ता तो इसे भूलना ठीक होगा।"
निदेशक और प्रातःकालीन कार्यक्रम के आयोजकों के साथ मध्याह्न का भोजन करने से पहले परम पावन ने चेन्नई में अध्ययन या काम कर रहे लगभग १५० युवा तिब्बतियों के साथ संक्षिप्त भेंट की। उन्होंने उनसे कहा:
"मैं सभी प्रकार की पृष्ठभूमि वाले लोगों से मिला हूँ और उनसे बात की है। मैंने कोई आधुनिक शिक्षा प्राप्त नहीं की, पर मैं नालंदा परम्परा से अच्छी तरह परिचित हूँ और उसने मुझे आधुनिक वैज्ञानिकों के साथ बातचीत में शामिल करने के लिए लैस किया है। माओत्से तुंग का विचार था कि धर्म और विज्ञान को एक दूसरे का खण्डन करते हैं। १९५४/५ में उन्होंने मुझसे कहा कि उन्हें लगा कि मेरा एक वैज्ञानिक चित्त था और टिप्पणी की, कि धर्म विष है। मुझे बड़ा अटपटा लगा। मैं बुद्ध की सलाह चित्त में रखता हूँ कि यदि कुछ उपयोगी है, तो उसका उपयोग करो।
"बहुत से वैज्ञानिकों में जो मैं चित्त के एक बौद्ध तार्किक रूप में देखता हूँ, निहित है। दूसरी ओर थाई बौद्ध शिक्षकों के एक समूह से जिनसे मैंने बात की, ने मुझे बताया कि जब वे चार आर्य सत्यों की शिक्षा देते हैं तो वे तर्क के स्थान पर ग्रंथ के प्रधिकार पर निर्भर रहते हैं।
"चीनी भी नालंदा परम्परा में भाग लेते हैं पर वे एक कड़े पाठ्यक्रम का पालन नहीं करते जैसा हम करते हैं। नालंदा परम्परा हमारी निधि है। हमें इसका अध्ययन करना चाहिए। इसे मात्र विहारीय अध्ययन तक सीमित रखना पर्याप्त नहीं है, २१वीं सदी के बौद्ध के रूप में हमें भी अध्ययन करना चाहिए। यद्यपि मैं ८० वर्ष का हूँ, पर मैं अभी भी एक छात्र हूँ। जब भी मुझसे बन पड़ता है मैं पठन व अध्ययन करता हूँ। यह एक गर्व की बात है।"
परम पावन ने तिब्बतियों के साथ तस्वीरें खिंचवाने के लिए पोज़ किया। इसके बाद उन्होंने दिल्ली उड़ान भरने के लिए गाड़ी से हवाई अड्डे रवाना होने से पहले बोस आइंस्टीन गेस्ट हाउस में मध्याह्न का भोजन किया।