नई दिल्ली, भारत - १९ मार्च २०१५ - विगत एक सप्ताह से धर्मशाला की ठिठुरती ठंड और गीले मौसम के बाद परम पावन दलाई लामा कल जब दिल्ली पहुँचे तो दिल्ली का तापमान आरामदायी था। आज प्रातः उन्होंने श्रीलंका के स्थविरों, वरिष्ठ भिक्षुओं के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ चर्चा के लिए, जिसमें विनय या विहार संबंधित अनुशासन भी शामिल है, भेंट की। उनका सौहार्दपूर्ण रूप से स्वागत करने के बाद उन्होंने घोषित किया:
"हम सभी एक ही बुद्ध के अनुयायी हैं। ऐसे समय जब कुछ वैज्ञानिक मानसिकता रखने वाले लोग धर्म को लेकर शंका व्यक्त कर रहे हैं, उनमें से कई बुद्ध की शिक्षाओं के पहलुओं पर रुचि व्यक्त कर रहे हैं। बुद्ध ने न केवल आगामी जीवन के विषय में शिक्षा दी पर यह भी कि इसी जीवन में हम सुखी मनुष्य हो सकते हैं और यही कारण है कि जो शिक्षा उन्होंने दी वह धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के साथ सुसंगत है। जैसा कुछ विद्वानों ने कहा है, बौद्ध धर्म को मानवता की एक शाखा के रूप में देखा जा सकता है।"
परम पावन ने समझाया कि किस प्रकार जब वे अन्य लोगों से मिलते हैं, चाहे वे कोई भी हों, वे स्वयं को उन्हीं से समान एक अन्य इंसान के रूप में देखते हैं। अपने आपको कुछ विशिष्ट समझ उनसे अलग मान कर देखना, अपने तथा दूसरों के बीच एक दूरी और अवरोध उत्पन्न करना है जो अलगाव और एकाकीपन को जन्म दे सकता है। अपनी बात रखते हुए श्रीलंका स्थविरों ने स्पष्ट किया कि उनके बीच श्रीलंका बौद्ध धर्म के तीन प्रमुख परंपराओंः रमन्या, शियम और अमरापुरा निकाय, असगिरि अध्याय के सदस्य और महाबोधि सोसाइटी के अध्यक्ष के प्रमुख धार्मिक प्रतिनिधि हैं। उनके प्रवक्ता ने कहा:
"कल पूरे दिन हमने विनय पर चर्चा की। हमने थेरवाद और मूलसर्वास्तिवाद, जो कि क्रमश: श्रीलंका और तिब्बत की विनय परम्पराएँ हैं, की तुलना की और उन दोनों के मध्य कोई महत्वपूर्ण अंतर नहीं पाया।"
स्थविरों ने एक सर्वसम्मत इच्छा व्यक्त की, जो कि श्रीलंका में लोगों की एक बड़ी संख्या की भी है, कि परम पावन उनके देश की यात्रा करें। उन्होंने उत्तर दिया कि न केवल उन्हें यात्रा करने में प्रसन्नता होगी, पर उन्हें प्रसन्नता होगी यदि श्रीलंका के भिक्षु आएँ और तिब्बती भिक्षुओं के साथ विचारों का आदान-प्रदान करें। उन्होंने कहा अब जब सामान्य रूप में उनका स्वास्थ्य अच्छा है, पर घुटनों को लेकर उन्हें कष्ट है जो उन्हें सीढ़ियों से ऊपर नीचे जाने में बाधित करती है और यदि आवश्यकता पड़े तो एक व्हीलचेयर से बात करने की इच्छा व्यक्त की। अपनी विदेश यात्रा के संबंध में उन्होंने कहा:
"मैं गैर बौद्ध देशों में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने का प्रयास कभी नहीं करता, आंशिक रूप से अन्य धार्मिक परंपराओं के लिए मेरे सम्मान के कारण और आंशिक रूप से अंतर-धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने की इच्छा से। २१वीं शताब्दी के बौद्ध के रूप में, हम सबको जो जानने की आवश्यकता है वह यह कि नैतिकता, एकाग्रता और प्रज्ञा क्या है। हमें यह जानने की आवश्यकता है कि नैरात्म्य की शिक्षा क्वांटम भौतिकी के विचारों से किस तरह मेल खाती है।"
जब परम पावन ने उल्लेख किया कि अपने आचार्य की उपाधि के लिए उन्होंने केवल १३ वर्षों का अध्ययन किया था, अन्य २० वर्षों तक अध्ययन करते हैं, जबकि अतीत में तिब्बत में यह असामान्य नहीं था कि परीक्षा के पूर्व आचार्य २०- ३० वर्षों तक अध्ययनरत रहते थे। श्रीलंका के भिक्षुओं ने उत्तर दिया कि उनकी व्यवस्था में ऐसी उपाधियाँ हैं जो इस तरह वरिष्ठता को इंगित करती हैं, १० वर्षों के पश्चात एक स्थविर थेरो बनते हैं और २०- ३० वर्षों के बाद महाथेरो। सभी विचारों का आदान-प्रदान करने के लिए और अधिक बार बैठक करने के महत्व पर सहमत हुए।
परम पावन ने साधारण लोगों को इस वास्तविकता की शिक्षा, कि सुख का परम स्रोत हमारे अंदर निहित है और आंतरिक मूल्य चित्त शांति का स्रोत है, देने के उपायों को खोजने की अपनी इच्छा व्यक्त की। उन्होंने चार आर्य सत्यों के आधारभूत प्रज्ञा और कैसे संस्कृत परम्परा, उनके १६ विशिष्टताओं की व्याख्या करती है, की प्रशंसा की। श्रीलंका के वरिष्ठतम थेरो ने िवचारों के आदान प्रदान का अनुमोदन िकया और सुझाव दिया कि यदि द्विमासिक देशना और पोषध अनुष्ठान का अधिक सख्ती से पालन किया जाए तो विहारवासी समुदाय की गुणवत्ता में सुधार होगा।
जब परम पावन ने प्रश्न किया कि प्रज्ञा के विकास के िलए श्रीलंकाई किस विशिष्ट ग्रंथ पर निर्भर रहते हैं, तो उन्होंने बुद्धघोष के विशुद्धमार्ग का उल्लेख किया। उन्होंने टिप्पणी की:
"हम शाक्यमुनि बुद्ध के अनुयायी के रूप में आध्यात्मिक बंधु हैं, पर आप वरिष्ठ छात्र हैं। मैं प्रायः उल्लेख करता हूँ कि बुद्ध की शिक्षाओं के अध्ययन में चीनी भी हमारे लिए वरिष्ठ हैं। परन्तु तिब्बतियों ने अपने अध्ययन और समझ की गहनता से अपने कनिष्ठ स्थिति के बावजूद अपना स्थान बना िलया है। मैं आश्वस्त हूँ कि हम एक दूसरे से सीख सकते हैं और यह एक अच्छी शुरुआत हुई है।"
गुजरात से एक प्रतिनिधिमंडल तीर्थ स्थानों के रूप में प्राचीन बौद्ध स्थलों को विकसित करने के लिए एक परियोजना के बारे में परम पावन दलाई लामा और श्रीलंका के स्थविरों के विचार जानना चाहता था। परम पावन ने उनसे कहा:
"चूँकि ये बौद्ध स्थल हैं तो अच्छा होगा यदि आज मौजूद बौद्ध देशों का प्रतिनिधित्व करने के उपाय ढूँढे जाएँ। आप दिखा सकते हैं कि भारत में बुद्ध के जीवन और शिक्षा के २६०० वर्षों के बाद भी उनकी शिक्षा कई विभिन्न देशों में पनप रही है। और तीर्थ यात्रियों और पर्यटकों के लिए यात्रा स्थल निर्मित करने के स्थान पर अध्ययन के लिए अवसर हेतु शिक्षा केंन्द्रों के निर्माण कहीं अधिक मूल्यवान होगें जहाँ लोग बौद्ध धर्म की पालि और संस्कृत परम्परा के विषय में अधिक सीख पाएँगे।"
८ देशों में कार्यरत अमरीकी राजनयिकों से भेंट करते हुए जो एक कार्यशाला के लिए एकत्रित हुए थे, परम पावन ने कहा:
"मैं प्रायः अपने विचार स्पष्ट करता हूँ कि संयुक्त राज्य अमेरिका मुक्त विश्व का अग्रणी देश है। वहाँ मेरी पिछली यात्राओं में से एक के दौरान यूरोप से अमेरिका की उड़ान में, मैंने समाचार पत्र में लेख पढ़ा जिसके अनुसार अमरीकी अर्थव्यवस्था पतन पर थी जबकि चीन की अर्थव्यवस्था में वृद्धि हुई थी। मैंने राष्ट्रपति ओबामा से इसका सम्पूर्ण मुक्त विश्व पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर चिंता व्यक्त की। उन्होंने मुझसे कहा कि चिंता की कोई बात नहीं और कहा कि कुछ लोगों के ऐसे चिंतन के बादजूद अमरीकी अर्थव्यवस्था अभी भी प्रबल है और चीनियों की तुलना में अभी भी सशक्त है, जिससे मुझे कुछ आश्वासन प्राप्त हुआ।"
"भारत भी दुनिया के सर्वाधिक जनसंख्या वाले लोकतंत्र के रूप में बहुत महत्वपूर्ण है। यह एक जटिल राष्ट्र है जिसने दिखाया है कि धार्मिक सद्भाव में रहना एक वास्तविक संभावना है। अंत में, जापान एशिया का सबसे अधिक औद्योगिक लोकतंत्र है। इन तीनों राष्ट्रों के बीच के संबंध बहुत महत्वपूर्ण हैं, इसका उद्देश्य चीन पर आक्षेप डालना नहीं है। मेरा विश्वास है कि अंततः चीन मुक्त विश्व में शामिल हो जाएगा, पर अभी इसमें कुछ दशक लग सकते हैं।"
श्रोताओं से प्रश्न आमंत्रित कर उनका उत्तर देते हुए, परम पावन ने समझाया कि जहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि नास्तिक चीनी साम्यवादी उनके पुनर्जन्म में उनकी तुलना में उनसे अधिक रुचि दिखा रहे हैं, पर उनकी रुचि और विश्वसनीय होगी यदि वे दलाई लामा के िवषय में सोचने की बजाय माओ और देंग के पुनर्जन्मों को मान्यता दें। उन्होंने १९६९ में जो कहा था उसे दोहराया, कि अगले दलाई लामा होंगे अथवा नहीं वह तिब्बती लोगों की इच्छा पर निर्भर होगा।
हाल की घटनाओं का तिब्बती लोगों और उनकी परम्पराओं पर पड़े प्रभाव के संबंध में उन्होंने कहा कि इस विषय में कुछ कहना अत्यंत जल्दबाजी होगी। पर उन्होंने अपनी परम्परा के प्रति अत्यधिक जुड़ाव के प्रति चेतावनी दी, जो 'हम' और 'उन' के संबंध में पक्षपाती बँटवारे को जन्म दे सकता है, जिसके विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं। उन्होंने अपने श्रोताओं से कई मुस्लिम देशों में सुन्नी और शिया समुदाय के बीच संघर्ष को देखने के लिए कहा। दबी हँसी में उन्होंने टिप्पणी की कि तिब्बती बौद्धों के बीच भी इस प्रकार के विभाजन हैं जहाँ शुगदेन वर्ग उन पर 'झूठे दलाई लामा' होने का आरोप लगा रहा है। उन्होंने कहा कि किस प्रकार उन्होंने उनका एक मुस्लिम टोपी पहने चित्र के साथ एक पोस्टर बनाया, जिसको लेकर वे बता रहे थे कि वे एक बौद्ध नहीं, अपितु मुसलमान हैं। उनकी अपनी व्याख्या यह है कि वे अन्य लोगों के पूजा स्थलों में जाने के इच्छुक है और जब आप एक मस्जिद में जाएँ, तो अपने सिर को ढँाकना उचित रूप से सम्मानजनक है। उन्होंने कहा:
"मैंने भी गलती से १९५१ से १९७० तक दोलज्ञल की तुष्टि की थी। फिर मैंने परीक्षण किया तथा पाया कि ५वें दलाई लामा ने एक दुरात्मा के रूप में इसे परित्यक्त कर दिया था। मैंने अनुभव किया कि यदि मैंने शुगदेन लोगों के मार्ग का पालन किया तो मैं निश्चित रूप से अपने पूर्ववर्तियों की परंपराओं के विपरीत पालन करता हुआ एक 'झूठा दलाई लामा' होऊँगा।"
मध्यमक दृष्टिकोण का पालन करने वाले और सम्पूर्ण तिब्बत की स्वतंत्रता के अधिवक्ताओं के बीच संतुलन के विषय में पूछे जाने पर परम पावन ने कहा कि, अधिकांश युवा शिक्षित तिब्बती जो एक यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाते हैं मध्यमक दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं जबकि अन्य आदर्शवादी बने रहते हैं। उन्होंने बल दिया कि ७वीं, ८वीं और ९वीं शताब्दी में तीन अलग साम्राज्य थे ः चीनी, मंगोलियाई और तिब्बती। बाद में, चीनी कट्टरपंथियों ने एक असंगत दावा किया कि १३वीं शताब्दी में जब दोनों, मंगोलियाई नियंत्रण में आए तो तिब्बत चीन का भाग बन गया। समय के चलते जियांग जेमिन ने कहा कि उन्हें सीधा दावा करना चाहिए कि तिब्बत प्रारंभिक काल से चीन का अंग रहा था।
"यदि वे तिब्बत का भौतिक लाभ सुनिश्चित करें तो चीन के भीतर बना रहना हमारे हित में हो सकता है पर तभी जब वे हमें तिब्बती संस्कृति को संरक्षित करने की स्वतंत्रता दें जो शांति और करुणा की संस्कृति के रूप में उपयोगी और सहायक है।"
उन्होंने एक स्वतंत्रता वकील के साथ हुई बातचीत के बारे में सूचना दी जिसमें वे सहमत हुए थे कि चीन स्वयं स्वतंत्रता नहीं देने वाला, तिब्बतियों को इसके लिए लड़ना होगा। उसके बाद प्रश्न यह था कि वे किस प्रकार हथियार प्राप्त कर पाएँगे और यदि उन्हें स्रोत मिल भी गया तो वे उसका मूल्य किस प्रकार चुका पाएँगे। और यदि वे उन्हें प्राप्त हो गए तो वे शस्त्र किस प्रकार तिब्बत पहुँचाए जाएँगे? न भारत अथवा नेपाल होते हुए और संभवतः न हीं, भूटान होकर। और यदि वह भी संभव हो गया तो तिब्बती नुकसान कैसे झेल पाएँगे, जबकि १००० की क्षति भी उनके लिए महत्वपूर्ण होगी, जबकि १००,००० के नुकसान से भी चीनियों को कोई अंतर न पड़ेगा। परम पावन ने कहा कि जाते जाते वह संवाददाता रो पड़ा।
यह पूछे जाने पर कि क्या अन्य लोगों के विवादों पर कोई सकारात्मक प्रभाव संभव है, परम पावन ने दोहराया कि उनके बीच अंतर पर ध्यान देने के स्थान पर हमें एक मानव के रूप में क्या समानताएँ हैं, उन पर बल देना चाहिए। उन्होंने यथार्थवादी होने तथा सामान्य ज्ञान के महत्व पर बल दिया तथा लोकतंत्र की दिशा में संयुक्त राज्य अमरीका और अन्य लोगों द्वारा नेतृत्व के उत्तरदायित्व को दोहराया।