नासिक, महाराष्ट्र, भारत - ३ जनवरी २०१५ - परम पावन दलाई लामा के प्रस्थान के पूर्व उनके मेजबान श्री गोविंद ढोलकिया सूरत में आने के लिए उन्हें पुनः एक बार धन्यवाद देने अपने परिवार के साथ आए। परम पावन ने प्रत्युत्तर में उन्हें धन्यवाद दिया और उनके अच्छे कार्य को बनाए रखने, उनके व्यापार और उनके परोपकार के लिए उन्हें प्रोत्साहित किया।
सूरत से हवाई उड़ान में कुछ अशांति थी और नासिक आगमन पर मौसम कुछ अप्रत्याशित रूप से धुँध और मेघों से भरा था। भारत-तिब्बत मंगल मैत्री संघ के प्रतिनिधियों द्वारा हवाई अड्डे पर उनका स्वागत िकए जाने के पश्चात, परम पावन गाड़ी से शहर गए जहाँ अनुमानतः ४५०० से अधिक संख्या में तिब्बती और भारतीय उन्हें सुनने के लिए धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा कर रहे थे। वे बर्मी, भारतीय और श्रीलंकाई बौद्ध भिक्षुओं और ईसाई पुजारियों के साथ मंच पर शामिल हो गए और अपने हाथ ऊपर उठाकर बताने के िलए कहा कि कितने श्रोताओं को हिंदी अनुवाद की आवश्यकता थी, जो लगभग दर्शकों में से आधी थी। और अधिक औपचारिकता को समाप्त करते हुए उन्होंने प्रारंभ िकया ः
"भाइयों और बहनों, मैं फिर से यहाँ उपस्थित हूँ क्योंकि आप में से कुछ ने मुझे आमंत्रित किया है। मैं यहाँ पुनः आप के साथ होने पर बहुत प्रसन्न हूँ। मैं देख पा रहा हूँ कि आयोजकों ने व्यवस्था करने में बहुत परिश्रम किया है और मैं आभारी हूँ। जहाँ भी मैं बात करता हूँ मैं सोचता हूँ कि किस प्रकार एक मानव के रूप में हम सभी एक समान हैं, हम सभी ७ अरब लोग। हम सब में अच्छा करने तथा हानि पहुँचाने की क्षमता है तो हमारा महत्वपूर्ण कार्य, यदि हम एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं तो वह हम जो करते हैं उसमें नकारात्मक को कम करने और सकारात्मक में वृद्धि करना है।"
"मैं जहाँ भी जाता हूँ अपनी दो प्रतिबद्धताओं को ध्यान में रखता हूँ। पहला एक मानव होने के नाते यह कि एक सुखी जीवन को प्राप्त करने का सबसे प्रभावशाली उपाय के प्रति जागरूकता का प्रसार करना, जो कि आधारभूत मानव मूल्यों, आंतरिक मूल्यों को व्यवहार में लाना है। दूसरा, एक बौद्ध भिक्षु के रूप में, मैं अंतर्धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए उत्सुक हूँ। मैं यहाँ बौद्ध, ईसाई और हिंदुओं को देख कर खुश हूँ, क्या कोई मुसलमान नहीं हैं? धार्मिक सद्भाव महत्वपूर्ण है क्योंकि सभी प्रमुख धार्मिक परंपराओं का उद्देश्य आंतरिक शांति लाना है, पर प्रायः वे क्रोध और घृणा को बढ़ावा देने के लिए उपयोग में लाए जाते हैं। हम सब यहाँ शांति से हैं पर विश्व के अन्य भागों में धर्म के नाम पर संघर्ष और हिंसा हो रही है - इसी कारण हमें आपस में सद्भाव बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए।"
परम पावन ने कहा कि सभी सत्व, जिनमें जानवर और कीड़े मकोडे शामिल हैं, जो आनंद व पीड़ा का अनुभव करते हैं, सुख की खोज में हैं। सभी ७ अरब मनुष्य एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं और हममें से प्रत्येक का ऐसा करने का अधिकार है। उन्होंने उल्लेख किया कि हमारे ऐन्द्रिक अनुभव, जो कि जानवरों में भी हैं, के अतिरिक्त मनुष्यों में अत्यधिक विकसित मस्तिष्क भी हैं, जो भविष्य की दृष्टि को सामने लाने के साथ-साथ अतीत की शक्तिशाली यादों को लाने में सक्षम हैं। एक तरह से यह बहुत अच्छा है क्योंकि यह हमें समस्याओं का समाधान करने की क्षमता देता है पर दूसरी ओर यह हमें भविष्य को लेकर चिंता में और अतीत को लेकर पश्चाताप में उलझाता है।
क्योंकि हमारी मानव बुद्धि हमें ऐन्द्रिक अनुभवों का आनंद उठाने, कठिनाइयों पर काबू पाने और एक सुखी जीवन व्यतीत करने की अनुमति देती है, यही परम पावन ने सुझाया कि हम ध्यान केंद्रित करें। हमें चित्त की शांति का विकास करने और उसे बनाए रखने में ध्यान देने की आवश्यकता है। परम पावन ने टिप्पणी की कि "जब हमें भूख लगती है तो प्रार्थना तथा ध्यान हमारा पेट नहीं भर सकते, इसीिलए इन भिक्षुओं को भिक्षाटन के िलए जाने की आवश्यकता होती है। पर यदि हम अपने शारीरिक सुख और पीड़ा की तुलना अपने मानसिक अनुभव के साथ करें तो मानसिक कहीं अधिक प्रबल है। एक शांत चित्त रखते हुए हम शारीरिक पीड़ा को सहन कर सकते हैं या उस पर काबू पा सकते हैं, पर मात्र शारीरिक सुख मानसिक असहजता को दूर नहीं कर सकता। मेरे धनाढ्य मित्र हैं, जिनके पास वो सब कुछ है जिनकी वे कामना कर सकते हैं, पर क्योंकि वे चिंतित हैं, वे सुखी नहीं हैं। यह स्पष्ट करता है कि हमें सुख देने के िलए भौतिक सुख अपने आप में पर्याप्त नहीं हैं। वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि क्रोध, भय और घृणा, हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को क्षति पहुँचाते हैं जबकि चित्त की शांति अच्छे स्वास्थ्य को पोषित करती है। क्या आधुनिक भौतिकवादी समाज अपने आप में एक शांतिपूर्ण, सुखी मानवता प्रदान कर सकता है? मुझे नहीं लगता। हमें यह करने की भी आवश्यकता है कि हम आंतरिक मूल्यों पर ध्यान दें जो चित्त की शांति को जन्म देते हैं।"
"हम सभी इन आंतरिक मूल्यों, प्यार, स्नेह, विश्वास आदि का अनुभव जैसे ही हमारा जन्म होता है, अपनी माँ की बाहों में करते हैं। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार माँ का स्पर्श हमारे जीवन के प्रारंभिक िदनों में हमारे मस्तिष्क के उचित विकास को प्रोत्साहित करने का प्रमुख कारक है। हममें से जिन्हें जब हम छोटे होते हैं, इस प्रकार का स्नेह प्राप्त होता है, वे अपने जीवन के बाद के दिनों में भी सुखी तथा सुरक्षित अनुभव करते हैं, जबकि वे जिन्हें िकसी कारण से इसका अभाव होता है, वे असुरक्षित अनुभव करते हैं और उन्हें दूसरों पर िवश्वास करने में कठिनाई होती है। यह हताशा का एक स्रोत हो सकता है क्योंकि हमारा जीवन बाकी के समुदाय पर निर्भर करता है।"
"जब हम बच्चे होते हैं तो हम धर्म, परिवार या राष्ट्रीयता के अंतर को लेकर बहुत अधिक परवाह नहीं करते, हम केवल साथ खेलते हैं। पर हम जैसे बड़े होते हैं हम उस आधारभूत मानवीय स्तर पर कम व्यवहार करते हैं और गौण अंतर जैसे धर्म, जाति, सामाजिक पृष्ठभूमि और शिक्षा के स्तर पर अधिक ध्यान देना सीखते हैं। एक दूसरे को 'हम' और 'उन' के रूप में देखते हुए हम संघर्ष का धरातल निर्मित करते हैं। हम 'हम' को जीतने के लिए और 'उन' की हार के िलए उपाय ढूँढते हैं। यही धौंस जमाने धोखाधड़ी और शोषण का आधार है, जो हिंसा, भ्रष्टाचार तथा धनवानों और निर्धनों के बीच की खाई को जन्म देता है। यह दूसरों की परवाह िकए बिना केवल अपने विषय में सोचने का परिणाम है। समय आ गया है, कि इसके स्थान पर हम मानवता की एकता को बढ़ावा दें ।"
परम पावन ने कहा कि धार्मिक लोगों के बीच ऐसे लोग हैं, जो भगवान और उसके सृजन में विश्वास करते हैं और ऐसे हैं, जो नहीं मानते। पर ये सभी परम्पराएँ प्रेम का संदेश वहन करती हैं, जो सहनशीलता की आवश्यकता, क्षमा, सादगी, संतोष और आत्म अनुशासन द्वारा समर्थित है। उन्होंने कहा कि चूँकि इन सभी में यह आम है, अतः धार्मिक व्यक्तियों को एक दूसरे को वास्तविक रूप में आध्यात्मिक बंधु तथा और बहनों के रूप में देखना चाहिए। पर इस के बावजूद, कोई एक धार्मिक परम्परा, फिर चाहे वह िकतनी ही अद्भुत क्यों न हो हर किसी को संतुष्ट नहीं कर सकती।
विश्व की ७ अरब जनसंख्या में से १ अरब आस्थाहीन होने का दावा करते हैं। परम पावन ने कहा कि यदि हम धर्म के आधार पर उनसे नैतिकता के बारे में बात करें तो उनके द्वारा इसे अस्वीकार करने की संभावना है। यहाँ तक कि तथाकथित आस्थावानों के बीच भी कई ऐसे हैं जो वास्तव में सच्चे नहीं हैं, जिन्हें धार्मिक मूल्य इतने प्रभावित नहीं करते। इस संदर्भ में परम पावन का मानना है कि धर्मनिरपेक्षता के लिए आशा है, एक परंपरा जो कई सहस्रों वर्षों से भारत में बनी हुई है, जो सभी दृष्टियों को यहाँ तक कि आस्थाहीनों के विचारों को भी सम्मान के साथ देखती है।
"चूँकि २०वीं सदी रक्तपात का युग था", परम पावन ने कहा, "चूँकि संघर्ष की सम्भावना सदा रहेगी, हमें संवाद तथा सुलह की भावना में निहित समाधान ढूँढने की आवश्यकता है।"
अपने साथ बैठे विभिन्न परम्पराओं से संबंधित बौद्ध भिक्षुओं की ओर देख मुस्कुराते हुए, परम पावन ने समझाया कि बौद्ध धर्म के अंदर भी विभिन्न दृष्टिकोण हैं। उन्होंने कहा कि हम पूछ सकते हैं कि क्यों बुद्ध ने एक समय में अथवा एक स्थान में जो शिक्षा दी, वह किसी अन्य समय या अन्य स्थान पर दी गई शिक्षा का खंडन करती हुई प्रतीत होती है।
"क्या वे उलझे थे?" नहीं। क्या वह दूसरों को उलझाने का प्रयास कर रहे थे? नहीं। इसका कारण था कि लोग विभिन्न स्वभाव के होते हैं और वे उसी के अनुसार उन्हें शिक्षा देना चाहते थे। इससे हम लोगों की विभिन्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए धार्मिक परंपराओं के अलग अलग प्रकार के होने का मूल्य समझ सकते हैं। जो भी हो, मैंने हमारे सभी धार्मिक परंपराओं के उत्कृष्ट लोगों से भेंट की है, जिनकी आस्था प्रेरणा का एक स्रोत है और जो दूसरों के कल्याण के प्रति समर्पित हैं।"
परम पावन ने श्रोतागणों को प्रश्न पूछने के िलए और यदि वे उनके साथ तर्क करना चाहें तो उसके िलए आमंत्रित किया। पर उसके प्रारंभ होने से पूर्व नासिक नगर निगम के प्रतिनिधियों ने, उन्हें यह कहते हुए कि उन्हें अपने बीच पुनः पाकर वे गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं, अपने शहर में उनका स्वागत किया।
यह पूछे जाने पर कि धर्म की उत्क्रांति के लिए कौन अथवा क्या उत्तरदायी है, परम पावन ने उत्तर दिया कि यह आपके दार्शनिक दृष्टकोण पर निर्भर करता है। उन के अनुसार जो भगवान में विश्वास करते हैं, वे उत्तरदायी हैं। अन्य सोच सकते हैं कि यह ऐसा है जो मनुष्यों के बीच विकसित होता है। एक अन्य प्रश्नकर्ता जानना चाहता था कि शिक्षा प्रणाली में नैतिक मूल्यों को किस प्रकार लागू किया जाए और परम पावन ने उसे आश्वासित किया कि एक ऐसे पाठ्यक्रम का विकास करने पर कार्य चल रहा है, जो एक धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रणाली में एक धर्मनिरपेक्ष नैतिकता की शिक्षा देना संभव कर सके। दिल्ली, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप के विश्वविद्यालय भाग ले रहे हैं। उन्होंने एक युवती से कहा कि जो इस बात को लेकर चिंतित थी कि, उसकी पीढ़ी के कइयों ने धर्म में रुचि खो दी है, पर फिर भी वे एक ऐसा साझा मंच चाहते हैं जिस पर वे अपने मूल्य आधारित कर सकें और परम पावन की परिकल्पना है कि धर्मनिरपेक्ष नैतिकता ठीक यही करने में सक्षम होगा।
"धर्मनिरपेक्ष नैतिकता सभी के लिए आकर्षित हो सकती है, क्योंकि वह हर किसी के हित में है।"
एक और अधिक दार्शनिक प्रश्न का उत्तर था कि हमें दृश्य तथा वास्तविकता के बीच की खाई से निपटना है। बुद्ध ने शिक्षा दी कि एक आत्मा है, पर वह जैसी दिखाई देती है उस रूप में एक स्वतंत्र अस्तित्व लिए हुए नहीं होती। वह मात्र शरीर और चित्त के आधार पर ज्ञापित होकर अस्तित्व रखती है। यह पूछे जाने पर, कि क्या अशोक के साम्राज्य का सुशासन आज हमें कुछ शिक्षा दे सकता है, परम पावन ने उत्तर दिया कि दुर्भाग्यवश आधुनिक भारत में प्राचीन भारत की समृद्ध और गहन ज्ञान के प्रति बहुत कम सराहना की भावना है। उन्होंने सलाह दी यदि उस ज्ञान के सार को आधुनिक विकास के साथ जोड़ा जाए, भारत न केवल अधिक सुखी होगा, पर विश्व के लिए एक उदाहरण का रूप बन जाएगा।
अचानक सभी सुनने के िलए मौन हो गए जब एक नन्हीं बच्ची ने छोटी सी आवाज़ में प्रश्न पूछा ः "आप बुद्ध कैसे बनते हैं, और बुद्ध बनकर कैसा अनुभव होता है?" परम पावन ने उससे पूछा कि वह कितने वर्ष की थी और उसने उत्तर दिया, "छह"। वे हँसे और कहा कि उस उम्र में उन्होंने ऐसा प्रश्न कभी नहीं किया था। उन्होंने उससे कहा कि चित्त को परिवर्तित कर आप बुद्ध बन सकते हैं। और आप को अपनी बुद्धि का उपयोग करने की आवश्यकता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि उस पर लगे रहा जाए। उन्होंने उससे कहा कि यदि वह सीख ले कि चित्त को िकस प्रकार परिवर्तित किया जाए तो, जब तक वह १६ वर्ष की हो जाएगी तो वह बेहतर समझ पाएगी कि किस प्रकार किया जा सकता है। जब वह २६ साल की होगी तो वह और अधिक जान पाएगी। जब वह ३६ साल की होगी तो उसने बहुत अनुभव अर्जित कर लिया होगा। इसी प्रकार िकया जा सकता है। जहाँ तक इसका सम्बध है कि बुद्ध बनकर कैसा अनुभव होता है, परम पावन ने उससे कहा कि उसे बुद्ध शाक्यमुनि से पूछना होगा।
जब श्रोतागणों में से एक अन्य ने पूछा कि क्या एक जीवन में प्रबुद्धता प्राप्त करना संभव है, परम पावन ने उत्तर दिया कि कुछ ग्रंथ कहते हैं कि आप कर सकते हैं, पर वे इसे लेकर शंकाकुल हैं। उन्होंने कहाः
"जब मैं छोटा था मैं फूल उगाने का प्रयास करता था। मैं बीजारोपण करता और फिर उन्हें सींचता और उन्हें जल्दी विकसित होने का प्रयास करता। वह सफल न हुआ, इस प्रकार की वस्तुएँ अपना समय लेती हैं। चित्त का परिवर्तन भी अपना समय लेता है। ज्ञान के तीन स्तर हैं, जो हम व्याख्याओं को पढ़कर अथवा सुनकर सीखते है, जो कि काफी मोटा और स्थूल है। उसके बाद है जो हम विश्लेषण के परिणाम स्वरूप समझते हैं जो कि गहन और अधिक स्थिर है। और अंत में एक दीर्घकाल और ध्यान केन्द्रित परिचय के कारण जो हम जानते हैं, जिसमें अनुभव की गुणवत्ता होती है। हम इस दृष्टिकोण को सत्य द्वय, चार आर्य सत्य तथा अष्टांगिक मार्ग पर लागू कर सकते हैं। मेरे अनुभव में यदि आप ५ या ६ दशकों तक इसे बनाए रखें, तो आपके पास अंत में दिखाने के लिए कुछ होगा।"
परम पावन ने मध्याह्न में स्थानीय बौद्धों से भेंट की और वे कल दिल्ली लौटेंगे।