लेह, लद्दाख, जम्मू और कश्मीर, भारत ,३० जुलाई २०१५ - आज जब परम पावन दलाई लामा स्पितुक विहार से रवाना हुए तो भोर की हवा ताजी थी और हल्का प्रकाश सुदूर चोटियों को आभामंडित कर रहा था। वे और कई हज़ारों लेह घाटी के दूसरी ओर शिवाछेल प्रवचन स्थल की ओर जा रहे थे। आगमन पर उन्होंने लामाओं, गणमान्य व्यक्तियों और अतिथियों का अभिनन्दन किया और श्वेत तारा अभिषेक की तैयारी हेतु सिंहासन पर अपना आसन ग्रहण किया। नीचे मंच के समक्ष भिक्षु उत्साहित रूप से शास्त्रार्थ में लगे थे।
वह स्थल जहाँ परम पावन ने दो बार कालचक्र अभिषेक दिया है, शनैः शनैः लोगों से भर गया। अंत में लोगों की अनुमानित संख्या ५०,००० की थी, जिनमें से अधिकांश दहकते सूर्य से स्वयं को बचाने के लिए छाते के नीचे बैठे थे।
प्रथागत बुद्ध शाक्यमुनि की स्तुति पाठ के उपरांत परम पावन ने जनसमुदाय को संबोधित किया:
"आज हम यहाँ एक पिकनिक के लिए नहीं आए हैं, अपितु यह सीखने के िलए, कि अपने चित्त को किस प्रकार शांत किया जाए, किस प्रकार चित्त की शांति प्राप्त की जाए। आज जीवित सभी ७ अरब मनुष्य समान हैं, जो सुख चाहते हैं और दुखी न होने के इच्छुक हैं। हम सभी में एक ही प्रकार का मस्तिष्क है और पीछे एक खंड है जो हमारी भावनाओं का स्थान है। हाल के वर्षों में वैज्ञानिकों ने खोज की है, कि मस्तिष्क का जिस रूप में उपयोग किया जाए, वह उसके अनुकूलनीय है, जो न्यूरोप्लास्टिसिटी नाम से जाना जाता है। तो हम जो कर रहे हैं, उसके विषय में ध्यान से सोचने की आवश्यकता है। मनुष्यों में बुद्धि और विवेकशील जागरूकता की एक विशेष गुणवत्ता है। इसी ने मनुष्य द्वारा की गई प्रगति और भौतिक विकास की उपलब्धियों को जन्म दिया। जानवरों में ऐसी क्षमता नहीं है।
"भौतिक विकास और तकनीकी प्रगति ने हम सबके जीवन को प्रभावित किया है। हमारा स्वास्थ्य बेहतर है, हम दीर्घायु तक जीते हैं और अतीत की तुलना में और अधिक आराम से हैं, पर प्रश्न यह है कि क्या हम वास्तविक रूप से अधिक सुखी हैं। यदि केवल भौतिक विकास दीर्घकालीन सुख देता तो अत्यधिक विकसित देशों में रहने वाले लोगों को पूरी तरह से सुखी होना चाहिए। पर ऐसा नहीं है। हममें से कई लोग अभी भी दुख और असहजता का सामना करते हैं। हमारी मानव बुद्धि का एक अन्य पहलू, स्वयं के और जो हमारे निकट हैं, उनके विषय में सोचने की, अतीत का स्मरण और भविष्य के बारे में अटकलें लगाने की हमारी क्षमता है। परिणाम यह कि, हम सोच व चिंताओं से घिरे रहते हैं जो हमारी चित्त की शांति भंग करते हैं।"
परम पावन ने आगे कहा कि विश्व में धन की राशि के बावजूद, धनवानों और निर्धनों के बीच एक बड़ा अंतर है। उन्होंने सुझाव दिया कि इसका कारण यह है क्योंकि हम गलत तरीके से सोचते व कार्य करते हैं, हममें दूसरों के लिए सच्चे प्रेम और करुणा की कमी है। यह एक भूल है। विज्ञान ने दिखाया है कि भय, क्रोध और चिंता जैसी नकारात्मक भावनाएँ हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को गिराती हैं, जबकि प्रेम, करुणा और दूसरों के प्रति चिंता की तरह सकारात्मक भावनाएँ वास्तव में हमारे शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार लाती हैं। उन्होंने कहा:
"मैं यहाँ जो कुछ कह रहा हूँ उसका धर्म के साथ कोई लेना देना नहीं है, अपितु व्यावहारिक बातें हैं जो हमारे दिन प्रतिदिन के जीवन को प्रभावित करती हैं। आज एक बढ़ती आम सहमति है कि हमारी शिक्षा प्रणाली भौतिक विकास पर बहुत अधिक केन्द्रित है जिसमें आंतरिक मूल्यों के लिए बहुत कम स्थान है।"
उन्होंने उल्लेख किया कि बौद्ध धर्म सहित, कई प्राचीन भारतीय परंपराएँ ध्यान तथा विपश्यना के विकास के लिए कई अभ्यासों का प्रयोग करती हैं। परिणामस्वरूप उन्होंने चित्त के कार्यों के संबंध में ज्ञान का भंडार प्राप्त किया है। उन्होंने कहा कि पर केवल उन्हें स्वीकार करना अथवा उनकी प्रशंसा करना पर्याप्त नहीं है, वे तभी प्रभावी होंगे जब उन्हें चर्या में लाया जाएगा। उन्होंने समझाया कि वे किस प्रकार बौद्ध ग्रंथ की विषय सामग्री को तीन श्रेणियों में देखना पसंद करते हैं ः विज्ञान, दर्शन और धर्म। धार्मिक वर्ग केवल बौद्धों के लिए रुचिकर है, परन्तु विज्ञान, विशेषकर चित्त विज्ञान तथा दर्शन के प्रति एक सार्वभौमिक आकर्षण है। कोई भी उनका अध्ययन कर उनसे लाभान्वित हो सकता है क्योंकि वे तर्क और वैज्ञानिक अवलोकन पर आधारित हैं।
बुद्ध के कथन कि बुद्ध सत्वों के अकुशल कर्मों को जल से नहीं धोते, न ही उनके दुखों को अपने हाथ से दूर करते हैं, को उद्धृत करते हुए परम पावन ने दोहराया कि बुद्ध की दया वास्तविकता और मुक्ति के मार्ग को प्रकट करना है। उन्होंने उल्लेख किया कि बुद्ध की शिक्षा का आधार चारआर्य सत्य हैं, दुःख सत्य, दुख के कारण, दुख निरोध तथा उसका मार्ग। द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन का केन्द्र प्रज्ञा- पारमिता की शिक्षाएँ हैं, जो मूलतः अंतिम दो सत्य, निरोध तथा मार्ग की व्याख्या करती हैं। तृतीय धर्म चक्र प्रवर्तन के दौरान बुद्ध ने चित्त की प्रकृति पर शिक्षण दिया जो स्पष्टता व जागरूकता है। प्रभास्वरता का चित्त, हममें निहित सबसे सूक्ष्म जागरूकता का प्रयोग, तंत्र में होता है।
"जो मुख्य रूप से हमारे चित्त की शांति को आकुल करते हैं और हमें दुःख देते हैं वे तीन विष या उद्वेलित करने वाली भावनाएँ, कामना, घृणा और अज्ञान हैं। हमें सीखना है कि इन तीनों से किस प्रकार निपटा जाए और ऐसा करने के लिए हमें प्रज्ञा विकसित करने के लिए अपनी बुद्धि का प्रयोग करने की आवश्यकता है। हम बिना िवश्लेषण के जो अध्ययन या पढ़ कर सीखते हैं, वह सतही है। यदि हम उस पर चिन्तन करें और उसका िवश्लेषण करें तो हमारी समझ स्थिर और दृढ़ हो जाएगी और फिर यदि हम उस पर ध्यान करें जो हमने समझा है, तो हम आस्था का विश्वास प्राप्त कर पाएँगे। विश्लेषण को लागू करने के उपायों में सबसे शक्तिशाली उपाय, जैसा हमने कल और आज देखा, शास्त्रार्थ है। इस विधि को नालंदा, विक्रमशील और ओदन्तपुरी में विकसित किया गया पर अधिकतर नालंदा में, और बाद में कठोर अनुशासन के साथ तिब्बत में संरक्षित किया गया।"
तदुपरांत परम पावन स्तुति के एक पाठ, जिसकी रचना उन्होंने स्वयं की है, की ओर मुड़े जिसमें नालंदा के १७ महान पंडितों का गुणगान किया गया है, जिसके विषय में उन्होंने कहा कि वे एक मौखिक संचरण देंगे। बुद्ध, जिन्होंने पहली बार प्रतीत्य समुत्पाद की शिक्षा दी, की स्तुति के एक पद के पश्चात रचना नागर्जुन की प्रशंसा तक जाती है, जिन्होंने इसे आगे व्याख्ययित किया तथा मध्यमक विचारों की प्रतिस्थापना की। स्तुति में अनुयायियों आर्यदेव, बुद्धपालित, भावविवेक, चन्द्रकीर्ति, शांतिदेव, शांतरक्षित और कमलशील की प्रशंसा है। उन्होंने समझाया कि प्रतीत्य समुत्पाद की शिक्षा, कि सभी वस्तुएँ अन्य कारकों पर आश्रित हैं अतः उनकी स्वतंत्र सत्ता या स्वभावगतसत्ता नहीं होती, एक ऐसा सिद्धांत है जो हमारे चित्त को वास्तविकता की ओर खोलता है।
परम पावन ने समझाया कि बौद्ध पथ के दो पहलू हैं, प्रज्ञा, प्रतीत्य समुत्पाद की समझ और स्वभावगत सत्ता की शून्यता और उपाय, जिसमें प्रेम व करुणा से जुड़ी चर्या सम्मिलित है। उस वंशज से सम्बधित नालंदा आचार्यों में असंग तथा वसुबंधु शामिल हैं। तर्क और ज्ञान-मीमांसा के लिए किए गए योगदान में दिङ्नाग और धर्मकीर्ति का उल्लेख हुआ है, प्रज्ञा पारमिता के भाष्यों के स्पष्टीकरण के लिए - विमुक्तिसेन और हरिभद्र, और विनय की समझ के योगदान के लिए गुणप्रभा और शाक्यप्रभा। अंतिम उल्लेख अतीश का है, वे आचार्य जो तिब्बत आए और सिखाया कि किस प्रकार प्रज्ञा व उपाय या गहन और व्यापक तीन व्यक्तिओं के मार्ग के संबंध में व्याख्यायित किए जाते हैं।
'श्रद्धात्रय प्रकाश' के अपने पाठ को पूरा करने के पश्चात परम पावन ने त्वरित रूप से 'चित्त शोधन के अष्ट पदों' का पाठ किया। उन्होंने टिप्पणी की, कि चित्त शोधन तथा बोधिचित्तोत्पाद की कई चर्याएँ हैं, जैसे कि परात्मसमपरिवर्तन का अभ्यास। बोधिचित्तोत्पाद के विकास के उपाय सभी १७ नालंदा आचार्यो के ग्रंथों में पाए जाते हैं, पर यह विशेषकर शांतिदेव के 'बोधिसत्वचर्यावतार' में है।
परम पावन ने श्वेत तारा अभिषेक दिया, जो दीर्घायु पर केन्द्रित है, जिस दौरान उन्होंने एकत्रित जनसमुदाय का प्रणिधान बोधिचित्त के विकास समारोह में नेतृत्व किया। जब अभिषेक समाप्त हुआ तो परम पावन के लिए दीर्घायु समर्पण समारोह प्रारंभ हुआ। प्रमुख स्थानीय लामा, गदेन ठि रिनपोछे, ठिकसे रिनपोछे, तोगदेन रिनपोछे, बकुला रिनपोछे और छुनगोन रिनपोछे ने परम पावन के लिए प्रारंभिक मंडल समर्पण किया। समर्पण की शोभा यात्रा, जो कि समारोह का एक अंग है, में ११०० स्थानीय लोग शामिल थे, जिनमें से कई अपने श्रेष्ठ पोशाकों में आए थे। उनमें सुन्नी और शिया मुस्लिम समुदाय और ईसाई समुदाय के नेता और प्रतिनिधि भी शामिल थे।
जब समारोह समाप्त होने को आया, परम पावन पुनः बोले। उन्होंने कहा कि सबसे पहले वे उपस्थित बच्चों और छात्रों को मंजुश्री का मंत्र सिखाना चाहते थे, जिसका पाठ बुद्धि सुधार में सहायक है। श्रोताओ में, तिब्बतियों से उनसे अलग से न मिलने के लिए, क्योंकि उनकी यात्रा इतने कम समय के लिए थी, उन्होंने क्षमा याचना की। उन्होंने उनसे कहा कि यद्यपि २०११ में वह निर्वाचित नेतृत्व के पक्ष में सम्पूर्ण रूप से राजनैतिक उत्तरदायित्व से सेवानिवृत्त हो गए थे, इसका यह कारण नहीं था कि उनकी तिब्बत में रुचि समाप्त हो गई थी। उन्होंने स्वीकार किया कि तिब्बत के अंदर और निर्वासन में कई हैं जिन्होंने उन पर अपना विश्वास और आशा बनाए रखा है और वह उनके प्रति एक उत्तरदायित्व की भावना का अनुभव निरंतर करते हैं। उन्होंने टिप्पणी की, कि तिब्बती भावना हमेशा की तरह सशक्त है। उन्होंने तिब्बती भाषा के मूल्य और इसे जीवित रखने के महत्व का भी उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि बौद्ध विचारों को व्यक्त करने के लिए यह सर्वोचित भाषा है। यह शी जिनपिंग की टिप्पणी के संदर्भ में, कि चीनी संस्कृति में बौद्ध धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका और चीनी बौद्धों की बढ़ती संख्या है, और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है।
उन्होंने कहा, कि उन्हें बताया गया है कि नशा एक बढ़ती सामाजिक और स्वास्थ्य समस्या है और उन्होंने टिप्पणी की, कि नशा करना समस्या का हल नहीं है। एक और पूरी तरह से अलग मुद्दा जिसकी ओर डॉक्टरों ने ध्यान आकर्षित किया है, वह अंग दान है, जो उन्होंने कहा कि वे प्रोत्साहित करना चाहेंगे। उन्होंने कहा कि यह दूसरों के लिए लाभकारी होने का एक वास्तविक उपाय है और इस संबंध में एक वसीयतनामा बनाया जा सकता है कि आपके अंग को दूसरों को दिए जाएँ। एक प्रेरणादायक पारंपरिक उदाहरण के रूप में, उन्होंने खंगसर दोर्जे छंग का उदाहरण दिया जिन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था, कि उनके शरीर का दाह संस्कार न किया जाए, अपितु आकाश दफन किया जाए। उन्होंने कहा था कि संभव है कि उनकी हड्डियों पर अधिक मांस न हो, पर जो भी हो वह कुछ पक्षियों के लिए लाभदायी हो सकता था।
अंत में, परम पावन ने शिक्षा के क्षेत्र में सुधार और सहभागिता के लिए लद्दाखियों द्वारा उठाए जा रहे कदमों की सराहना की। उन्होंने शिक्षा के वास्तविक प्रभाव के लिए अध्ययन, मनन और ध्यान के त्रिरूपी दृष्टिकोण का पालन करने की आवश्यकता को दोहराया। अपने मेजबान स्थानीय लामाओं और स्थानीय प्रशासन के सदस्यों के साथ एक निजी मध्याह्न भोज के अंत में उन्होंने तेंग्यूर के एक संस्करण, जो कि भारतीय आचार्यों के ग्रंथों के अनुवाद का संग्रह है, को लेह जोखंाग को देने को अपने प्रस्ताव का स्मरण किया। उन्होंने अपने अतिथियों से कहा कि वह शिवाछेल फोडंग से अपनी निजी प्रति दान करना चाहेंगे, इस आशा में कि समय के चलते जोखंग एक पुस्तकालय और शिक्षण केंद्र बने।
कल, परम पावन तड़के ही लेह से दिल्ली के लिए हवाई जहाज से रवाना होंगे।