अधिकतर अंग्रेजी में बोलते हुए परम पावन ने कहा कि सभी धार्मिक परम्पराओं में उनके विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों के बावजूद आम संदेश, प्रेम, करुणा, सहिष्णुता और आत्म अनुशासन का है। इस प्रश्न के उत्तर में कि 'धर्म क्या है? इसका उद्देश्य क्या है?' उन्होंने कहा यह वह है जो हमें दुख से बचाता तथा सुरक्षित करता है। यह सांख्यों, जैनों तथा बौद्धों पर भी लागू होता है जिनका एक सृजनकर्ता ईश्वर में कोई विश्वास नहीं और पारसियों, हिंदुओं, यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों पर भी जो विश्वास रखते है। वे विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोण रखते हैं क्योंकि लोगों की विभिन्न मनोवृत्तियाँ होती हैं। वे प्रेम के अभ्यास को सशक्त करने और उन तक पहुँचने के विभिन्न मार्ग अपनाते हैं।
परम पावन ने उल्लेख किया कि इन धार्मिक परम्पराओं के प्रति जिस रूप में वे सम्मान व्यक्त करते हैं, उनमें से एक तरीका है कि जब भी संभव हो एक तीर्थयात्री के रूप में उनके पवित्र स्थानों की यात्रा करें। ऐसी भावना से वह लूर्डेस, यरूशलेम और फातिमा की यात्रा कर चुके हैं।
वे उन १ अरब लोगों के प्रति भी चिंतित बने हुए हैं जो इस पर ज़ोर देते हैं कि उनका धर्म में कोई आस्था, विश्वास या रुचि नहीं है। उन्हें लगता है कि वे मनुष्य हैं जिनकी इच्छा भी सुखी रहने की है अतः उन्हें प्रेम तथा करुणा जैसे आंतरिक मूल्यों के बारे में जानने की आवश्यकता है। भारतीय परम्परा का आधार लेते हुए उनका सुझाव है कि सामान्य ज्ञान, सामान्य अनुभव और वैज्ञानिक निष्कर्षों के आधार पर शिक्षा में धर्मनिरपेक्ष नैतिकता को शामिल किया जा सकता है।
तिब्बती बौद्ध धर्म के उद्गम की ओर मुड़ते हुए, परम पावन ने समझाया कि शक्तिशाली तिब्बती सम्राट सोंगचेन गमपो ने एक नेपाली राजकुमारी और एक चीनी राजकुमारी से विवाह किया था। दोनों अपने साथ तिब्बत में बुद्ध की प्रतिमाएँ लेकर आईं जिसने बौद्ध धर्म के प्रति एक रुचि उत्पन्न कर दी। बाद के एक सम्राट ठिसोंग देचेन ने भारत के नालंदा विश्वविद्यालय से एक शीर्ष विद्वान को पढ़ाने के लिए तिब्बत आमंत्रित किया और अपनी वयोवृद्ध अवस्था के बावजूद शांतरक्षित ने अपनी सहमति दी। वे आए और तर्क और दर्शन के साथ ही विहारीय विनयों की भी शिक्षा दी।
परम पावन ने समझाया कि बुद्ध की देशनाओं का आधारभूत ढांचा चार आर्य सत्यों तथा ३७ बोधिपक्षीय धर्म के निर्देशों में पाया जा सकता है जो पालि और संस्कृत परंपराओं में समान हैं। ३७ धर्मों में, ४ स्मृत्युपस्थान, ४ सम्यकप्रहाण, ४ ऋद्धिपद, ५ बल, ५ इन्द्रियाँ तथा आर्य अष्टांग मार्ग शामिल हैं। तत्पश्चात उन्होंने उनके १६ आकारों के साथ चार आर्य सत्य की विशद व्याख्या की।
चार सत्य, दुख, समुदय, निरोध और मार्ग के विषय में बुद्ध ने सलाह दी - दुख को समझो, उसके समुदय पर काबू पाओ, निरोध प्राप्त करो और मार्ग का विकास करो। दुख के संदर्भ में चार आकार हैं, अनित्यता, दुःखता, शून्यता तथा नैरात्म्य। समुदय सत्य के चार आकार हैं, हेतु, समुदय, प्रभव और प्रत्यय। निरोध के संबंध में चार आकार हैं, निरोध, शांतता, प्रणीतत, निस्सरण। जबकि मार्ग सत्य के चार आकार हैं, मार्ग, न्यायता, प्रतिपत्ति, और नैय्यार्णिक। इन आकारों का अध्ययन प्रज्ञा में सहयोग करता है जो इस शरीर के स्रोत के प्रति हममें जो अज्ञानता है उसके विपरीत है।
प्रज्ञा से संबंधित परोपकारिता है, जिसके विषय में शांतिदेव ने सलाह दी है ः
ये केचिद् सुखिता लोके सर्वे ते अन्यसुखेच्छया
ये केचिद् दुःखिता लोके सर्वे ते स्वसुखेच्छया
संसार में जो भी सुख है
वह सब दूसरों के सुखों की कामना से आता है
और संसार में जो भी दुःख है
वह स्वयं के सुख की कामना से आता है
परम पावन ने उल्लेख किया कि के चित्त शोधन के अष्ट पद के लेखक गेशे लंगरी थंगपा, कदमपा गेशे पोतोवा के शिष्य थे और इनका जीवन काल १०५४- ११२३ तक का था। उन्होंने कहा कि जब वे युवा थे तो उन्होंने छंद कंठस्थ कर लिए थे और वे प्रतिदिन उनका पाठ करते हैं और उन पर चिन्तन करते हैं ।
पहला छंद स्पष्ट करता है कि सभी परम वस्तुएँ जो हम प्राप्त करते हैं, जैसे सुगति, प्रबुद्धता दूसरे सत्वों पर निर्भर होकर हमें प्राप्त होती हैं। दूसरा हमें सलाह देता है कि हम अन्य सत्वों को स्वयं से श्रेष्ठ मानें। परम पावन ने स्वयं को एक कीट के रूप में तुलना करने का उदाहरण दिया। वह क्षुद्र हो सकता है और हममें एक बड़ा मस्तिष्क हो सकता है, पर हम अपने मस्तिष्क का उपयोग अत्यंत विध्वंसात्मक उद्देश्यों के लिए कर सकते हैं जो कि वह कीट कभी न करेगा, जो हमें निम्न बनाता है। घृणा, क्रोध, और अन्य विनाशकारी भावनाएँ आत्म केन्द्रितता के संबंध में उत्पन्न होती हैं।
तीसरा पद बताता है कि जहाँ स्वार्थ हानिकारक है, परोपकारिता पारस्परिक रूप से लाभप्रद है। परन्तु हमारे दैनिक जीवन में हम विनाशकारी भावनाओं के प्रभाव के आदी हैं। हमें उनसे निपटने की आवश्यकता है ताकि जब क्रोध उत्पन्न होने वाला हो हम उसकी ओर ध्यान दें और उसे रोकें। चौथा पद हमें सलाह देता है कि हम स्वयं को निम्नतम मानें, पर इसका यह अर्थ नहीं कि हम हतोत्साहित हो जाएँ। आत्म केन्द्रितता का सामना करने के िलए हमें साहस और आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है। इसका मतलब यह है कि हमें लोगों को अपराधियों, कोढ़ी या एड्स रोगियों की तरह की निम्न दृष्टि रखकर नहीं देखना चाहिए।
पाँचवा और छठवाँ पद हमें बताता है कि जब कोई हमारी आलोचना करे, तो हमें उनके प्रति करुणा बनाए रखना चाहिए। उन पर जो दोष पड़े वे हम अपने ऊपर ले लें और उन्हें विजय दे दें। इसी प्रकार वे, जिन की हमने सहायता की हो हमारे विरुद्ध हो जाएँ तो हमें धैर्य तथा क्षांति की सीख देने के लिए हमें उनका आभारी होना चाहिए। सातवाँ पद दूसरों को लाभ और सुख समर्पित करने की विधि को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करता है। आठवाँ पद जिसका विषय प्रज्ञा है, हमें बताता है कि यद्यपि वस्तुएँ अपना स्वतंत्र अस्तित्व िलए जान पड़ती हैं ,पर वास्तविक तथ्य ऐसा नहीं है। जब हमें ऐसी अनुभूति होती है तो हम उन्हें मरीचिकी या मायोपम सा देखें। इस संदर्भ में परम पावन ने टिप्पणी की कि जब लोग उनसे पूछते हैं कि शून्यता की समझ कहाँ से प्रारंभ की जाए, वे क्वांटम भौतिकी के अध्ययन का सुझाव देते हैं।
परम पावन ने उनके िलए, जिन्होंने उनके प्रवचन को रुचिकर पाया सिफारिश की कि वे अन्य महान भारतीय बौद्ध आचार्यों के ग्रंथों का अध्ययन करें। "उन्हें बार बार पढ़ें। उन्हें पढ़ें और आप ने जो पढ़ा है उस पर चिन्तन करें। यदि आप नालंदा परम्परा में रुचि रखते हैं, तो निरन्तर अध्ययन करें और परिवर्तन होगा। अध्ययन करें, पर अपने लिए अवास्तविक अपेक्षाएँ न रखें। शुभ रात्रि।"
कई आयोजकों की ओर से लाखा लामा रिनपोछे ने परम पावन के वहाँ आने तथा प्रवचन देने के िलए आभार ज्ञापित किया। उन्होंने अत्यंत बारीकी से डेनिश और अंग्रेज़ी में प्रस्तुत करने के िलए अनुवादकों का और सभी स्वयंसेवकों को इस अवसर को सक्षम करने के लिए धन्यवाद दिया। सभागार सौहार्दपूर्ण तथा सम्मान भरी करतल ध्वनि से गूँज उठा।
कल परम पावन भारत लौटने के लिए यात्रा करेंगे।