बाइलाकुप्पे, कर्नाटक, भारत - २ जनवरी २०१ - अपनी सार्वजनिक गतिविधियों के अतिरिक्त जैसे कि उनके द्वारा दिए जा रहे लमरिम प्रवचन, परम पावन दलाई लामा, प्रवचन के पहले, बीच में अथवा प्रवचन सत्र के बाद लोगों से भी मिलते हैं। ये विभिन्न स्थलों से आए दल, व्यक्तिगत भिक्षु या लामा हो सकते हैं। उदाहरणार्थ आज प्रवचन स्थल में आने से पूर्व उन्होंने एक सौ से अधिक भारतीय नव बौद्धों के एक दल और भूटान के एक दल से भेंट की। दोनों ही अवसरों पर उन्होंने बल देकर कहा, जो वह प्रायः अन्य स्थानों पर कहते हैं कि बौद्ध धर्म के प्रमुख उद्देश्यों में से एक हमारे क्लेशों का परिवर्तन है। इसे प्राप्त करने के लिए सरल विश्वास पर्याप्त नहीं है। २१वीं सदी के बौद्धों को जिसकी आवश्यकता है, वह है अध्ययन, जिसका अर्थ है प्रवचनों को पढ़ना अथवा सुनना और उन पर उस समय तक चिंतन करना जब तक आप उन्हें समझ न जाएँ। दोनों दलों ने उनकी सलाह पर उत्साह भरी रुचि दिखाई।
जिन तीन लमरिम ग्रंथों का वे पाठ कर रहे थे 'मंजुश्री मुखागम','दक्षिण परम्परा' और 'द्रुत मार्ग', उनमें परम पावन ने शमथ से संबंधित भाग को समाप्त कर लिया था, पर विपश्यना के विषय में अभी भी पढ़ रहे थे। उन्होंने कहा कि तीन धर्म चक्र प्रवर्तनों में प्रज्ञा पारमिता की शिक्षाएँ, द्वितीय धर्म चक्र प्रवर्तन, सर्वोपरि हैं। हृदय सूत्र, जिस का पाठ अभी अभी हुआ और जिसका संदर्भ उन्होंने २५ छंद प्रज्ञा पारमिता सूत्र के रूप में दिया, बुद्ध और अवलोकितेश्वर दोनों का वर्णन ध्यान में डूबे रूप में हुआ है। अपने प्रारंभिक शिक्षण में बुद्ध ने शिक्षा दी कि हम किस प्रकार भव चक्र में चालित हो जाते हैं पर वह नहीं जो चालित होता है। हृदय सूत्र सिखाता है कि न केवल व्यक्ति (पुद््गल) शून्य है, पर पाँच स्कन्ध जो इसके आधार हैं, वे भी शून्य हैं।
परम पावन ने कहा कि महत्त्वपूर्ण शब्द 'भी' जो कि हृदय सूत्र के तिब्बती अनुवाद में पाया जाता है, पर जापानी, कोरियाई या वियतनामी संस्करणों में नहीं, ये संकेत देता है कि धर्म (वस्तुएँ) और पुद्गल (व्यक्ति) निस्वभाव हैं। प्रज्ञा पारमिता सूत्र सिखाते हैं कि किसी में कोई सार नहीं, सभी स्वभाव से शून्य हैं और मात्र ज्ञापित हैं, और नाम मात्र रूप से अस्तित्व रखते हैं।
"वस्तुओं की प्रकृति की अज्ञानता के कारण हम भव चक्र में बंधे हुए हैं। करुणाशील महान ने विभिन्न प्रकार से सत्वों को इसकी समझ तक पहुँचाया। उन्होंने यह स्पष्ट करने के लिए, कि वस्तुएँ निस्वभाव होती है, प्रतीत्य समुत्पाद के विषय में शिक्षा दी। गेलुगपा परंपरा के संस्थापक, जे चोंखापा, नागार्जुन जैसे महान भारतीय आचार्यों का उदाहरण देते हैं जिन्होंने लिखा िक अज्ञान और उससे निकलने वाले दुख पर काबू पाने के लिए शून्यता की समझ आवश्यक है। और यह जो भी उन्होंने लिखा है उसे समझने के िलए हमें अध्ययन की आवश्यकता है।"
"हमारे यहाँ शिक्षा के तीन पीठ हैं जहाँ तर्क और ज्ञान - मीमांसा का गहन अध्ययन हो रहा है। कदमपा, जिन्होंने तिब्बत में प्रारंभ में अतीश का अनुपालन किया, ने तीन परम्पराएँ दीः शास्त्रीय परंपरा, मौखिक संचरण और महत्वपूर्ण निर्देश परम्परा। तीन पीठ विशेष रूप से शास्त्रीय या विद्वत्तापूर्ण परंपरा को बनाए रखते हैं।"
परम पावन ने ज़ोर दिया कि हममें प्रबुद्धता को प्राप्त करने की क्षमता है, जिसके लिए शून्यता की समझ आवश्यक है। परन्तु हमारे आज की समकालीन दुनिया में, चित्त के व्याकुल होने के कई प्रकार हैं, इसलिए हमारे लिए शिक्षा की सामान्य संरचना को समझने की आवश्यकता है।
"एक बार हममें धर्म और इसकी संरचना की समझ हो तो हम भव चक्र की प्रकृति को पहचानने में सक्षम हो जाएँगे। ठिजंग रिनपोछे ने मुझे बताया कि विभ्रांतियों के समक्ष आने पर उन्होंने उन्हें दुख के पहलुओं के रूप में देखा। शिक्षकों को इस प्रकार शिक्षा देनी चाहिए और अभ्यासियों को आगे बढ़ना चाहिए। दुनिया भर में लोग बौद्ध धर्म में अधिक से अधिक रुचि ले रहे हैं। हमें भारतीय शास्त्रों की परम्परा का समर्थन करना चाहिए जिसके लिए अध्ययन महत्त्वपूर्ण है। जो भी कारणों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है, उसे शून्य रूप में देखा जाता है।"
परम पावन 'दक्षिण परम्परा' और 'द्रुत मार्ग' लमरिम ग्रंथ और फिर से पुनः 'मंजुश्री मुखागम' की ओर मुड़े, जिनमें से प्रत्येक में शिष्य एकत्रित करने के चार उपाय के रूप समझाए गए हैं। उन्होंने प्रत्येक ग्रंथ का पाठ पूरा किया और तुरन्त 'अमृत का सार' ग्रंथ प्रारंभ किया, जिसमें से मध्याह्न के भोजन से पहले इसका एक छोटा भाग समाप्त किया और बाद में उसे जारी रखा। यह प्रारंभ होता है कि किस प्रकार आध्यात्मिक गुरु का सम्मान किया जाए। परम पावन ने स्मरण किया जब उन्होंने पहली बार यह शिक्षा और व्याख्या ली और जब वे इस बिंदु पर पहुँचे तो अपने ही शिक्षक की दयालुता के विचारों से द्रवित होकर उनके शिक्षक ठिजंग रिनपोछे आधे घंटे रोते रहे । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अपने शिक्षक की सलाह को अभ्यास में क्रियान्वित किया जाए और ऐसा करते हुए इस मानव जीवन को और सार्थक बनाया जाए।
मंगल कारणों से 'अमृत का सार' समाप्त करने के पश्चात परम पावन ने शमर पंडित के लमरिम ग्रंथ पढ़ना प्रारंभ किया, पर उन्होंने कहा:
"हम अगले प्रवचन के लिए कहाँ मिलेंगे अज्ञात है क्योंकि भविष्य देखा नहीं जा सकता। मैं अपने को भाग्यवान मानता हूँ कि ये प्रवचन देने में मैं सक्षम हो सका हूँ। मुझे स्वयं अभ्यास का अनुभव नहीं है, पर जो परम्परा मुझे मिली है उसे देने में मैं सक्षम हो पाया हूँ।"
परम पावन के स्पष्ट अनुरोध पर, मध्याह्न का अंतिम घंटा शास्रार्थ के लिए समर्पित किया गया। भिक्षुओं के दल ने न केवल परम पावन के समक्ष अपितु अन्य लोगों के समक्ष अपने कौशल का प्रदर्शन किया। दो उत्तरदाता जमीन पर बैठे थे और छह भिक्षुओं तक का एक दल खड़ा उन्हें चुनौती दे रहा था। प्रत्येक शास्त्रार्थ शांत रूप से प्रारंभ हुआ, पर जिस तरह एक बार आग पकड़ ले तो उसका गर्जन प्रारंभ हो जाता है, प्रत्येक प्रतियोगिता तेजी से कोलाहल से भरी और ऊर्जावान बन गयी। अंत में, जिन लोगों ने भाग लिया था उन सभी ने परम पावन के साथ तस्वीर खिंचवाई।
कल परम पावन प्रातः ६ः३० से तैयारियाँ प्रारंभ कर अवलोकितेश्वर की दीक्षा देंगे। प्रवचन की समाप्ति पर निर्वासित तिब्बती संसद के अध्यक्ष, पेंपा छेरिंग, धार्मिक और सांस्कृतिक मामलों के कलोन, पेमा छिनजोर, तथा पूर्व कलोन ठिपा, प्रो. समदोंग रिनपोछे श्रोताओं को संबोधित करेंगे।