लेह, लद्दाख, जम्मू और कश्मीर, भारत - ८ जुलाई, २०१४ - कालचक्र अभिषेक की प्रारंभिक शिक्षाओं के तीसरे दिन के प्रारंभ में 'अभिसमयालंकार' और 'मूलमध्यमकारिका', के मंगलाचरण छंदों के बाद धर्म के अविस्मरणीयता की एक इच्छा आयी।
"अनगिनत कल्पों के प्रयासों के बाद बुद्ध को अंततः प्रबुद्धता प्राप्त हुई;
उस बल से धर्म दीर्घ काल तक बना रहे"
परम पावन ने टिप्पणी की कि जहाँ बुद्ध के काय, वाक् और चित्त के कई गुण है, पर उनके प्रमुख गुण उनका प्रेम और करुणा है। इसलिए बौद्ध धर्म को करुणा पर आधारित एक प्रणाली के रूप में वर्णित किया जा सकता है। बोधिसत्व पथ, जिसमें करुणा और प्रज्ञा शामिल है, प्रबुद्धता प्राप्त करने का साधन है। सभी अच्छी बातें करुणा से आती है और सभी कमियाँ अपने आप को पोषित करने का परिणाम हैं। एक बड़े विश्व व्यापी स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय संघर्षों से लेकर परिवार के कलह तक, सब कुछ आत्म - पोषण से उत्पन्न होते हैं। 'रत्नावली' में आता है : "कि यदि आप केवल अपने को लेकर चिंतित हैं, तो प्रबुद्धता तो बहुत दूर, आप साधारण तौर पर भी सुखी नहीं होंगे।" एक बोधिसत्व की दो प्रेरणाएँ होती हैं: सभी सत्वों को मुक्ति दिलाना और उनके िलए प्रबुद्धता प्राप्त करना।
परम पावन ने घोषणा की कि चँूकि उन्होंने अभी तक 'रत्नावली' पूरी नहीं की, वह उसे जल्दी जल्दी पढ़ेंगे और यहाँ वहाँ रुकते हुए किन्हीं विशेष छंदों की व्याख्या करेंगे। उन्होंने शून्यता की शून्यता का उल्लेख करते हुए प्रारंभ िकया, जो इस भावना का विरोध करती है कि विश्लेषण की जा रही स्वभाव शून्यता संभवतः आंतरिक स्वभाव लिए अस्तित्व रखती है। जो पाया जाता है वह एक भ्रम की तरह है। परम पावन ने कहा कि शून्यता को समझना सरल नहीं है; इसे समझने के लिए समय और समर्पण लगता है।
शांतिदेव कहते हैं कि जहाँ हर कोई सुख पाने की इच्छा करता है, हममें से कई ऐसा करने में विफल रहते हैं, हम अपने सुख को इस प्रकार नष्ट करते हैं मानो वह हमारा शत्रु हो। दूसरी ओर बच्चे, आनंद से भरे हुए, एक दूसरे के साथ ईमानदारी और पारदर्शितापूर्ण व्यवहार करते हैं। परम पावन ने स्विट्जरलैंड में एक पेस्टालोज़्ज़ी गाँव में विभिन्न समुदायों के बच्चों को बड़ी सहजता के साथ एक दूसरे के संग खेलते हुए देखने का स्मरण किया, क्योंकि उनमें 'हम' और 'उन' की भावना का अभाव है, जो वे जैसे जैसे बड़े होते हैं विकसित होता है। उन्होंने कहा कि एक मनुष्य के रूप में हम सामाजिक प्राणी हैं, जिनमें स्नेह के लिए एक स्वाभाविक झुकाव, एक जैविक प्रवृत्ति है। यदि हम इसका विकास करें तो हम अधिक सुखी जीवन और अधिक शांति प्राप्त करेंगे। तर्क और बुद्धि का उपयोग कर हम अत्यधिक स्नेह की भावना को विकसित कर सकते हैं, जो हमारे शत्रुओं के भी सुख की कामना करता है।
पाठ में उल्लेख िकए नैश्रयस को प्राप्त करने के िलए बोधिचित्त के विकास के दो दृष्टिकोण हैं। सप्त हेतु फल उपदेश और परात्मसमपरिवर्तन। तीक्ष्ण इन्द्रियों वाले दूसरा उपाय पसन्द करते हैं, जिसमें न केवल अन्य सत्वों को बचाने की भावना, पर शून्यता की समझ भी शामिल है।
परम पावन ने स्पष्ट किया कि यहाँ नागार्जुन, जिन कुशल कार्यों के संग्रह की चर्चा करते हैं, मिथ्या दृष्टि के अपवाद को छोड़कर, सभी अन्य आध्यात्मिक परंपराओं में समान हैं। उन पर चिन्तन शिष्य को अनमोल मानव जीवन और इसकी दुर्लभता की समझ की ओर ले जाता है। उन्होंने कहा िक अपने 'मार्ग के तीन प्रमुख आकार’ में जे चोंखापा वर्णन करते हैं कि किस प्रकार इस और परा जन्मों के सुखों के प्रति आकर्षण पर काबू पाकर शिष्य मुक्त होने की दृढ़ता का विकास कर सकता है और बोधिचित्त का उत्पाद कर सकता है। दूसरे अध्याय के अंत और तीसरे के प्रारंभ में नागार्जुन जिस राजा के लिए लिख रहे हैं उसके िलए बुद्ध के शरीर के ३२ लक्षण और ८० अनुव्यंजन और वे पुण्य, जो उन्हें जन्म देते हैं, की सूची देते हैं। उन्होंने यह भी दोहराया कि बोधिचित्त केवल कुछ सत्वों की मुक्ति की मंशा नहीं रखते, पर अंतरिक्ष के विस्तार में सभी प्राणियों की मुक्ति चाहते हैं। उनका अभिप्राय सभी को प्रबुद्धता की स्थिति में रखना है।
यह टिप्पणी करते हुए कि शिक्षा सम्पूर्ण विश्व में महत्वपूर्ण है, जबकि हममें से अधिकांश आत्मा की भ्रांत धारणा लिए अपना जीवन आत्म पोषण की प्रेरणा से जीते हैं, परम पावन ने स्पष्ट किया कि एक लामा होने के लिए प्रशिक्षण और शिक्षा की आवश्यकता है। उन्होंने पुनः जे चोंखापा को उद्धृत करते हुए कहा कि दूसरों को शांत करने से पहले शिक्षकों को पहले स्वयं को शांत करना होगा। इसलिए धर्म की कुछ समझ पर्याप्त नहीं है; एक आध्यात्मिक शिक्षक को भी शील, समाधि और प्रज्ञा में प्रशिक्षण की आवश्यकता है।
परम पावन ने सूचना दी कि कुछ वर्ष पूर्व चीनी बौद्धों ने उन्हें बताया था कि तिब्बती शिक्षकों बड़े नामों के साथ चीन में आए और जिज्ञासु शिष्यों को आकर्षित किया। बाद में शिष्यों को यह जानकर निराशा हुई कि इन तथाकथित लामाओं की प्रमुख रुचि पैसे और सेक्स में थी। उन्होंने परम पावन से कुछ करने को कहा, पर उन्होंने उत्तर दिया कि वह भारत से कुछ अधिक नहीं कर सकते। उन्होंने सलाह दी कि स्वयं को प्रतिबद्ध करने से पहले शिष्यों को लामा की जाँच कर लेनी चाहिए कि क्या वह सही अर्थों में शांत, जानकार और करुणाशील है। उन्होंने सुझाया की कि उसके गुणों को सुनिश्चित करने के बाद ही वे एक लामा के प्रति स्वयं को प्रतिबद्ध करें। शिक्षाओं के संरक्षण के लिए एक शिक्षक को पारदर्शी होने की आवश्यकता है। दूसरों को धोखा देना गलत है। चीनी में लामा के लिए शब्द का अर्थ 'जीवित बुद्ध' है, लेकिन संस्कृत में इसका सम शब्द गुरु है, अर्थात वह जो शिक्षा देने की योग्यता रखता हो।
जेचुन मिलारेपा का मारपा और नरोपा का तिलोपा के साथ संबंध की कहानियाँ गुरु और शिष्य के बीच के संबंधों के महत्व को स्पष्ट करती हैं। एक साधारण रूप में एक लामा का हमारे समक्ष प्रकट रूप उसे हमारे लिए सुलभ बना देता है और हमें सीखने का अवसर देता है।
परम पावन ने इंगित किया कि 'रत्नावली' के पाँचवे अध्याय में सात प्रकार के अहंकार, बोधिसत्व की दश भूमि और ४६५ छंद से बीस छंद जिसमें सप्तांग अभ्यास शामिल है का वर्णन है। उन्होंने सुझाया कि उनका नियमित पाठ अच्छा होगा। छंदों का अंत बोधिचित्त के सार द्वारा होता हैः
मैं सदा भोग की वस्तु होऊँ
सभी सत्वों के लिए उनकी इच्छानुसार
और बिना हस्तक्षेप के जैसे पृथ्वी,
जल, अग्नि, वायु, जड़ी बूटी, और अरण्य हैं।
मैं सत्वों के लिए उनके प्राण सम प्रियतम बनूँ
और वे मेरे लिए भी प्रिय हों
उनके अकुशल कार्य मुझ पर परिपक्व हों,
और मेरे सारे पुण्य उन पर हों परिपक्व ।
जब तक कोई सत्व
कहीं भी मुक्त न हो
मैं (इस जगत) में उस सत्व के लिए बना रहूँ
यद्यपि मुझे परम प्रबुद्धता प्राप्त हो गई हो।
'रत्नावली' के अपने पठन को पूरा करने के बाद परम पावन 'सुहृल्लेख' की ओर मुड़े जिसके बारे में भी उन्होंने कहा कि वह उसे जल्दी जल्दी पढ़ेंगे। उन्होंने संकेत दिया कि इसमें कहाँ आठ लोक धर्मों का वर्णन हुआ है और कहाँ जानवरों, भूखे प्रेतों और नरक के स्थलों का सर्वेक्षण किया गया है। उन्होंने कहा कि कर्म और भ्रम के कारण भव चक्र की प्रकृति व्यापक दुख है। इस कारण जब तक हम प्रबुद्धता प्राप्त करने की इच्छा करते हैं, हमें नैरात्म्य पर ध्यान करना होगा, पर जब तक कि हम वास्तव में ऐसा नहीं करते, कोई परिवर्तन नहीं होगा।
ग्रंथ के अंत में आता है कि बुद्ध के शब्दों के निधि के भीतर प्रतीत्य समुत्पाद की व्याख्या जैसा कुछ अनमोल नहीं है। अविद्या से संस्कार आता है और उस से विज्ञान आता है । वहाँ से नाम और रूप प्रकट होते हैं। बुद्ध द्वारा देशित प्रतीत्य समुत्पाद के ये द्वादशांग हैं। स्पर्श से वेदना आती है और वेदना के आधार पर तृष्णा प्रकट होती है। पुनः तृष्णा से उपादान जन्म लेता है, फिर भव और उसके परिणामस्वरूप जन्म होता है।
एक बार जन्म हो तो वहाँ अनकहा दुख है: रोग, वृद्धावस्था, निराश कामनाएँ, मृत्यु और क्षय है; संक्षेप में दर्द का एक बड़ा ठोस रूप। यदि जन्म को रोक दिया जाए तो यह नहीं होगा।
परम पावन ने पाठ का उद्धरण दिया जो संकेत देता है कि समाधान आर्य अष्टांगिक मार्ग को अपनाने में है, जिसका पालन करने के लिए सजगता, प्रयास और अच्छे आचरण की आवश्यकता है। राजा के लिए नागार्जुन का प्रमुख सलाह एक शांत चित्त के विकास करने की है, क्योंकि चित्त ही धर्म का मूल है। अपने समापन सलाह में परम पावन ने कहा:
"यद्यपि नागार्जुन के दो ग्रंथों की और अधिक अच्छी तरह व्याख्या करने के लिए समय नहीं है, पर आप को संचरण प्राप्त हो गया है और आपके पास पुस्तकें हैं तो आप स्वयं उन्हें पढ़ सकते हैं। उसके पश्चात सोचें कि उनका अर्थ क्या है। आप आपस में भी उनके विषय में विचार विमर्श कर सकते हैं। मैं खुश हूँ कि पिछले तीन दिनों से हम इस धर्म प्रवचन का संचालन करने में सक्षम हुए हैं। विनम्र हों और दूसरों का सम्मान करें और केवल अपने आप के बारे में न सोचें।
"परसों हम मंडल में प्रवेश और प्रारंभिक अभिषेकों से कालचक्र अभिषेक प्रारंभ करेंगे। यदि दोपहर गर्म हो तो सूर्य से अपने सिर को बचाने के लिए सावधान रहें। आम लोग छातों का उपयोग कर सकते हैं और भिक्षु अपने ऊपरी वस्त्र से अपने को बचा सकते हैं।"
मध्याह्न में पिछले दिनों की तरह परम पावन ने कालचक्र अभिषेक से संबंधित प्रार्थनाओं और अनुष्ठानों में भाग लिया। रेत मंडल का निर्माण पूरा कर लिया गया था और उस पर लंबे समय से काम कर रहे नमज्ञल विहार के भिक्षुओं अपने उपकरण अंदर रख िदए थे। प्रार्थनाएँ और अनुष्ठान जल्दी दोपहर में भी जारी रहेंगी, सबसे पहले, नमज्ञल भिक्षुओं द्वारा समर्पण नृत्य प्रदर्शित किया जाएगा, पर जिसमें में अन्य भिक्षु और आम समूहों को भी भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया है।