क्योतो, जापान, ११ अप्रैल २०१४ - जापान की पूर्व राजधानी क्योतो में वैज्ञानिकों और मननशील विद्वानों और अभ्यासियों के बीच 'चित्त के मानचित्रण' पर आज एक दो दिवसीय संवाद प्रारंभ हुआ। माइंड एंड लाइफ इंस्टिट्यूट के अध्यक्ष आर्थर ज़ाजोंक और कोकोरो अनुसंधान केन्द्र के निदेशक सकीको योशिकावा की परिचयात्मक टिप्पणी संक्षिप्त थी। उन्होंने परम पावन दलाई लामा को कार्यवाही प्रारंभ करने के लिए आमंत्रित किया।
"आध्यात्मिक शिक्षकों, वैज्ञानिकों और भाइयों और बहनों, मैं हमेशा इस भावना की आवश्यकता पर बल देता हूँ कि हम सभी एक मानव परिवार के सदस्य हैं। उस दृष्टिकोण से हम सभी भाई और बहने हैं। मैं बहुत खुश हूँ कि यह बैठक जापान में यहाँ हो रही है। माइंड एंड लाइफ की बैठकें पिछले २५ से अधिक वर्षों से हो रही है, पर मैं यह चाहता हूँ कि ये बैठकें एक एशियाई देश में भी आयोजित की जाए, जहाँ बौद्ध विचार ऐतिहासिक रूप से संस्कृति का भाग हैं। चित्त के विषय में वैज्ञानिकों के साथ हमारी चर्चा में, चित्त का बहुत अधिक ज्ञान प्राचीन भारत से आता है। मेरी अपनी समझ चित्त के बौद्ध विज्ञान पर आधारित है। इसका यह अर्थ नहीं कि हमने पूर्व और परा जीवन, मुक्ति या शून्यता के बारे में बात की है, ये विषय बौद्धों से संबंधित हैं। हमने अपने को चित्त, मस्तिष्क इत्यादि की चर्चा तक सीमित किया है और इस लिए मेरा विचार है कि हम बौद्ध विज्ञान और आधुनिक विज्ञान के बीच बातचीत का उल्लेख कर सकते हैं।"
उन्होंने समझाया कि सभी धार्मिक परंपराएँ प्रेम, करुणा, संतोष और सहिष्णुता के बारे में बात करती है और उनके विभिन्न दार्शनिक विचारों का उद्देश्य इन मूल्यों के अभ्यास के समर्थन करना है। उन्होंने सुझाया कि एक बौद्ध देश के लोग प्राचीन भारतीय मनोविज्ञान से आए विचारों के प्रति ग्रहणशील हो सकते हैं, जो शमथ तथा विपश्यना के अभ्यास से संबंधित हैं। उन अभ्यासों में आगे बढ़ने के लिए, आप को चित्त और वह किस प्रकार कार्य करता है उसके बारे में कुछ जानना होगा। उन्होंने कहा कि बौद्ध दृष्टिकोण से देखने पर एक सृजनकर्ता की कोई भूमिका नहीं है, न ही एक स्वतंत्र, स्थायी आत्मा का कोई अर्थ है। सब कुछ प्रतीत्यसमुत्पाद के कारण अस्तित्व में आता है, दूसरे शब्दों में, सभी वस्तुओं का अस्तित्व अन्य कारकों पर निर्भर है।
चित्त का मानचित्रण, एक व्यापक परिप्रेक्ष्य लेते हुए, चित्त और भावनाओं की पूरी व्यवस्था के बारे में जानकारी प्राप्त करने का विषय है। यह हमें अपनी समस्याओं का सामना करने में सहायक हो सकता है। अनुवादकों के लिए तिब्बती शब्द का मोटे तौर पर अर्थ है, 'लोक को देखने के सक्षम चक्षु'। इन दिनों यह भूमिका निष्पक्ष, खुला और वस्तु निष्ठ वैज्ञानिकों द्वारा पूरित की जाती है।
बौद्ध धर्म के एक जापानी विद्वान योशियो इमाएडा ने प्रस्तुतियाँ प्रारंभ की। उन्होंने स्मरण किया कि यह जानकर कि उनके पिता को कुछ पता न था कि वे अपने बौद्ध वेदी के समक्ष क्या पाठ कर रहे हैं, उन्हें अत्यंत आश्चर्य हुआ। न तो जो भिक्षु महीने में एक बार घर आता था वह समझा पाया और न ही उनके स्कूल के शिक्षक। स्पष्ट था कि बौद्ध धर्म को समझा जाना नहीं, केवल उसका पालन किया जाना चाहिए। उन्होंने स्वयं ही खोज करने का निश्चय किया। उन्होंने पाया कि न केवल तिब्बतियों के पास महायान ग्रंथों का सबसे व्यापक संग्रह है, पर तिब्बत में हुई त्रासदी के बाद भी तिब्बती बौद्ध धर्म एक जीवंत परंपरा बनी हुई है। उन्होंने जापानी भिक्षुओं को बहुत पेशेवर बताया, विशेषकर अंतिम संस्कार की व्यवस्था के संबंध में और जापानी बौद्धंों को भावनात्मक और भावुक पर तर्कसंगत नहीं। उन्होंने नए वर्ष पर बौद्ध मंदिर जाने का स्मरण करते हुए बताया कि उनका बेटा पढ़ाई में उत्कृष्ट होने की प्रार्थना कर रहा था, उनकी बेटी परिवार के अच्छे स्वास्थ्य की कामना कर रही थी, जबकि उनके अन्य तिब्बती मित्र ने कामना की सभी सत्व बुद्धत्व को प्राप्त हों।
परम पावन ने हँसते हुए कहा:
"यह एक आत्म - आलोचना सत्र की तरह लगता है। आप को जानना चाहिए कि ६ लाख तिब्बतियों में से ९९% को भी कुछ ज्ञान नहीं कि बौद्ध धर्म क्या है। २१वीं सदी में बौद्ध होने के लिए हमें अध्ययन की आवश्यकता है। केवल भिक्षु ही नहीं पर भिक्षुणियाँ भी। विगत ४० वर्षों में, भिक्षुणियाँ अध्ययन कर रही है और अब उच्चतम उपाधि प्राप्त करने में सक्षम हैं। कठोर अध्ययन का यह रूप नालंदा के महान विद्वान और तर्कशास्त्री शांतरक्षित के काल से चला आ रहा है, जिन्होंने तिब्बत में बौद्ध धर्म की स्थापना की। "
अपनी प्रस्तुति में, थुपतेन जिमपा ने धम्मपद उद्धृत किया जिसके अनुसार 'चित्त हमारा अपना विश्व बनाता है' और उदानवर्ग का कथन कि, 'एक अनुशासित चित्त एक सुखी चित्त है। चित्त की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है।' उन्होंने न केवल अभिधर्म के सार्थक ज्ञान की क्षमता की बात की, पर दिगनाग, धर्मकीर्ति तथा शांतरक्षित के लेखन में बौद्ध ज्ञान - मीमांसा के विषय में भी बताया, जो कि ज्ञान की प्रकृति और व्यापकता पर प्रकाश डालते हैं। परम पावन ने टिप्पणी की कि जहाँ चीन में दिगनाग का एक छोटा ग्रंथ ही उपलब्ध था और इसलिए जापान तथा तिब्बत के पास ज्ञान - मीमांसा का प्रचुर साहित्य था।
उन्होंने स्मरण किया कि एक बार अपनी किशोरावस्था में जब उन्होंने धर्मकीर्ति का अध्ययन प्रारंभ किया तो उनका चित्त और अधिक प्रश्न करने वाला और शंकायुक्त हो गया।
आर्थर जाजोंक ने पूछा कि पहले क्या आता है अभ्यास अथवा अध्ययन। परम पावन ने प्रज्ञा के तीन रूपों का संदर्भ दिया। पहले श्रवण, पठन और अध्ययन, विश्वास और धारणा की ओर ले जाते हैं। आलोचनात्मक चिंतन विश्वास की ओर ले जाता है और उससे गहन परिचय वास्तविक समझ की ओर ले जाता है।
'चेंज यूओर ब्रेन बाइ चेंजिंग यूयोर माइंड' (अपने चित्त को बदलते हुए अपने मस्तिष्क को बदलो), इस विषय के अंतर्गत रिचर्ड डेविडसन ने न्यूरोप्लास्टिसिटि के निष्कर्षों के बारे में बात की, जिसमें चित्त को बदलने से मस्तिष्क को प्रभावित करना दिखाया जा सकता है, एपिजेनिटिक्स जिसमें चित्त को परिवर्तित करना कुछ जीन को सक्रिय अथवा निष्क्रिय करना है, चित्त/मस्तिष्क और शरीर और आंतरिक आधार अच्छाई के बीच द्विदिशिक संप्रेषण, ये खोज, कि शिशु आक्रामकता नहीं दया चाहते हैं। जब उन्होंने एम आर आई स्कैनर द्वारा ध्यान करने वालों का परीक्षण करने का संदर्भ दिया तो परम पावन ने आग्रह किया कि जापानी भिक्षु और ज़ेन ध्यानी भी इस अनुसंधान में भाग लें। जब डेविडसन ने अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिव डिसऑर्डर (ए डी एच डी) को लेकर बच्चों के साथ किए जा रहे कार्यक्रम का संदर्भ दिया, परम पावन जानना चाहते थे कि क्या यह पर्यावरण या आनुवंशिक प्रभावों का नतीजा लग रहा था और क्या चिंता और असुरक्षा की भावनाओं के साथ कोई संबंध था, और ऐसा था।
डॉ. डेविडसन ने सूचना दी कि अल्पावधि करुणा प्रशिक्षण, जिसमें करुणा के प्रशिक्षण पर दो सप्ताह प्रतिदिन ३० मिनट का समय लगता है, उसके मस्तिष्क पर सकारात्मक प्रभाव दिखाया जा सकता है। अंत में यह बात मानते हुए कि युवा जो समय कंप्यूटर गेम पर लगाते हैं, उन्होंने एक ऐसे खेलों का विकास करने की पायलट परियोजना की सूचना दी, जो आक्रामकता के स्थान पर दया और सहानुभूति का विकास करे।
परम पावन ने मध्याह्न के भोजन के दौरान पैनल के सदस्यों के साथ चर्चा जारी रखी। दोपहर को जे गारफील्ड, जिन्होंने बौद्ध दार्शनिक ग्रंथों का व्यापक अध्ययन और अनुवाद किया है, ने चित्त को समझने के लिए आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता के बारे में बात की थी, पर संज्ञानात्मक भ्रम की कमियों के बारे में आगाह किया। उन्होंने स्पष्ट रूप से दृष्टि भ्रम की और यह कठिनाई कि, यह जानते हुए भी कि जो हम देख रहे हैं वह भ्रांति है, वह दृश्य बना रहता है, का प्रदर्शन किया। उन्होंने कहा कि हम अपने आत्मविश्लेषी अनुभव को मापने या जाँच करने में असमर्थ हैं। चित्त को जाँचने के िलए चित्त का ही प्रयोग उसे दूरबीन या माइक्रोस्कोप के रूप में एक साधन बन जाता है पर फिर भी इस मामले में वस्तु और साधन रहस्यमय हैं। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि चित्त के सिद्धांत के बिना, हम जो भी आँकड़े प्राप्त करते हैं उनको उसी रूप में मान नहीं सकते।
परम पावन ने उत्तर दिया कि चित्त की अपनी प्रकृति के बारे में जागरूक होने के लिए चित्त को विचार रहित बनाना उपयोगी है और चित्त के परीक्षण की क्षमता का विकास संभव है, उदाहरण के िलए जब हम क्रोध का निरीक्षण करते हैं।
क्वांटम भौतिकी में चित्त की भूमिका के बारे अपनी प्रस्तुति में आर्थर ज़ाजोंक ने बिना किसी आकार के कण का वर्णन कर परम पावन को आश्चर्य में डाल दिया। शिगेफुमी मोरी का गणित की कला से तुलना रहस्यमय प्रतीत हुआ जब उन्होंने मोनेट के प्रकाश के चित्रण के लिए बीजीय ज्यामिति के एक कथन की सुंदरता से संबद्ध करने की माँग की। उन्होंने कहा कि क्या होता है जब किसी समस्या का समाधान खोजने में असमर्थ होने पर अचानक अनामंत्रित समाधान आ जाता है। परम पावन ने कहा कि यह पहले से ही किए काम से जुड़ा है और सुझाव दिया कि वो समस्या जिसका दिन में हल नहीं किया जा सकता वह स्वप्न समय में हल किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि संभवतः स्वप्न समय में संवेदी चेतना निष्क्रिय हो जाती है।
आर्थर ज़ाजोंक ने इस अवसर पर विचारों की शक्ति, उसकी स्पष्टता और सटीकता की प्रशंसा की। उन्होंने इस ओर ध्यान आकर्षित किया कि आइंस्टीन का सापेक्षता का सिद्धांत का काम प्रयोगशाला में प्रयोग के एक परिणाम के रूप में नहीं आया था। वे विचारों की शक्ति के कारण अपने निष्कर्ष पर पहुँचे।
सत्र के अंत में यह पूछे जाने पर कि क्या वे कुछ और अधिक कहना चाहेंगे, परम पावन ने कहा कि उनके पास कहने के िलए कुछ और न था। बैठक कल पुनः जारी रहेगी।