हैमबर्ग, जर्मनी २४ अगस्त २०१४ - वृक्षों के बीच से छन कर आती सूर्य की किरणों के बीच अपने होटल से बाहर आते हुए परम पावन दलाई लामा ने तिब्बतियों और अन्य शुभचिंतकों का अभिनन्दन करने के िलए समय निकाला, जो उनके प्रति सम्मान और समर्थन व्यक्त करने के लिए एकत्रित हुए थे।
कांग्रेस केंद्र हैमबर्ग के मंच पर पहुँच कर उनका पहला कार्य एक १०४ वर्षीय महिला को सम्मान जताना था जिसे उनके पास लाया गया था। श्रोता भावुक हो गए जब व्हीलचेयर पर बैठी उस लगभग निष्क्रिय वृद्ध महिला का मुख एक संतोष भरे मुस्कान से खिल उठा।
"आज नालंदा परंपरा के अनुसार बुद्धधर्म की व्याख्या होगी", परम पावन ने प्रारंभ किया। "तिब्बती बौद्ध परंपरा का जन्म तिब्बती सम्राट, ठिसोंग देचेन द्वारा ८वीं शताब्दी में नालंदा विश्वविद्यालय के तात्कालीन प्रमुख विद्वान शांतरक्षित के तिब्बत आमंत्रण के साथ प्रारंभ हुआ। चीन में बौद्ध धर्म का परिचय कुछ चार सदियों पहले ही हो चुका था, एक परम्परा जो ह्वेन त्सांग द्वारा नालंदा से जोड़ी गई थी जिन्होंने धर्मपाल के साथ वहाँ शिक्षा ग्रहण की थी। प्रचलित दार्शनिक दृष्टिकोण मुख्य रूप से चित्तमात्र और माध्यमक परम्परा से संबंधित था। जहाँ चीन प्रमुख रूप से चित्तमात्र परम्परा के अनुयायी थे, शांतरक्षित ने तिब्बत में माध्यमक परम्परा की प्रतिस्थापना की जो नागार्जुन की परम्परा से संबंधित थी।"
अपने आप को नालंदा परंपरा का एक कनिष्ठ छात्र बताते हुए परम पावन ने कहा कि शांतिदेव के 'बोधिसत्वचर्यवतार' और थोगमे संगपो के 'बोधिसत्व के ३७ अभ्यास' की चर्चा करने का अवसर पाकर वे अत्यंत प्रसन्न हैं। उन्होंने चार सत्रों में सब कुछ समझाने की कठिनाई की ओर संकेत किया, पर अपने श्रोताओं को अपने साथ पुस्तक ले जाकर उसे स्वयं पढने तथा अध्ययन करने के िलए प्रोत्साहित किया।
उन्होंने समझाया कि शांतिदेव, जो ईसा की ८वीं शताब्दी में रहते थे, ने दो ग्रंथों की रचना की 'शिक्षा समुच्चय' और 'बोधिसत्वचर्यावतार' जो एक दूसरे के पूरक हैं। शांतिदेव ने चन्द्रकीर्ति द्वारा प्रतिपादित प्रासंगिक माध्यमक सिद्धांत का अनुशीलन किया, जो इस पर बल देता है कि जहाँ वस्तुओं का कोई वस्तुनिष्ट अस्तित्व नहीं होता, पर वे फिर भी वे सांवृतिक स्तर पर अस्तित्व रखती हैं।
"बुद्ध पाप को जल से धोते नहीं,
न ही जगत के दुःखंो को अपने हाथों से हटाते हैं;
न ही अपने अधिगम को दूसरों में स्थान्तरण करते हैं;
वे धर्मता सत्य देशना से सत्वों को मुक्त कराते हैं।"
परम पावन बोधिचर्यावतार की नवें अध्याय प्रज्ञा की ओर मुड़े और कहा कि बुद्ध की सभी ८४,००० उपदेशों की शिक्षा दी गई, ताकि लोग वास्तविकता की समझ का विकास कर सकें जिससे वे सभी क्लेशों से अपने चित्त को विशुद्ध कर सकें। अज्ञानता पर काबू पाने के लिए जो कि सभी अशांत करने वाली भावनाओं का आधार है, हमें वस्तुएँ जैसी है उसी रूप में उनका ज्ञान होना चाहिए। परम पावन ने अमरीकी मनोचिकित्सक हारून बेक की सलाह को याद किया कि जब हम क्रोधित अथवा किसी वस्तु से बहुत लगाव रखते हैं तो हमारे क्रोध अथवा लगाव का ९०% मानसिक प्रक्षेपण होता है, ऐसा कथन जो नागार्जुन के साथ मेल खाता है। हमें जिस रूप में वस्तुएँ दिखाई देती हैं, उसके वास्तविक रूप को देखने के बजाय हम उसके दिखने वाले स्वरूप में फँस जाते हैं।
"मनुष्यों के बीच", परम पावन ने टिप्पणी की, "ऐसे लोग हैं जो वास्तविकता का परीक्षण करने के लिए अपने चित्त का प्रयोग करते हैं जिन्हें ग्रंथ योगियों के रूप में संदर्भित करता है और जो केवल अपना दैनिक जीवन का पालन करते हैं। आज हम कह सकते हैं कि वैज्ञानिक योगियों की तरह हैं कि वे वस्तुओं को यथावत देखने की कोशिश करते हैं। पर योगियों के बीच भी समझ के अंतर हैं।"
परम पावन ने आगे टिप्पणी की कि बोधिचर्यावतार के नवें अध्याय में वास्तविकता के विभिन्न दृष्टिकोणों की व्याख्या अत्यंत जटिल है पर उनका िवश्लेषण बहुत सहायक है। इस तरह के विश्लेषण का उद्देश्य अज्ञान को निर्मूल करना है जो सभी अशांत भावनाओं के मूल में है। उन्होंने ध्यान दिलाया कि केवल १५ वर्ष पूर्व ही उन्होंने वास्तव में शून्यता में रुचि लेना प्रारंभ किया। जब वे ३० वर्ष के थे तो उन्होंने सही अर्थों में अध्ययन करने का और उन्होंने जो समझा उसे अभ्यास में लाने का प्रयास किया।
"केवल जब आप शून्यता की कुछ समझ का विकास करते हैं तो आप वास्तव में बुद्धत्व की प्राप्ति की संभावना के प्रति जागरूक होते हैं। यद्यपि हम सभी बुद्ध, धर्म तथा संघ में शरण और बोधिचित्तोत्पाद के छंद का पाठ करते हैं, पर साधारणतया हम नहीं समझ पाते कि इसका अर्थ क्या है। यदि आप इसके विषय में बारीकी से सोचें तो आप चित्त को बोधिचित्त के रूप में परिवर्तन करने की प्रक्रिया को समझ सकते हैं।"
जब मध्याह्न के भोजन के लिए सत्र को विराम दिया गया तो परम पावन ने सलाह दी:
"अपने आप से पूछें, कि यह 'मैं' कौन है जो भोजन करता है? यह कहाँ है? 'मैं' शरीर नहीं है और न ही यह मन है। यह कहाँ है? यह भूखा व्यक्ति कौन है? इस तरह हम मध्याह्न के भोजन को भी उपयोगी बना सकते हैं।"
बाद में तिब्बत केंद्र हैमबर्ग के सदस्यों के साथ हुई बैठक में परम पावन ने उन्हें उसे शिक्षा के केन्द्र बनाने के िलए प्रोत्साहित किया, न केवल बौद्ध धर्म के लिए, अपितु चित्त के प्रकार्यों के व्यापक ज्ञान के लिए भी। उन्होंने हाल ही में कांग्यूर तथा तेंग्यूर से निकाले गए तिब्बती भाषा में विज्ञान की पुस्तक के प्रकाशन का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि अंग्रेजी अनुवाद वर्ष के अंत तक पूरा हो सकता है और केंद्र से अनुरोध किया कि वह जर्मन भाषा में अनुवाद करने में शामिल हो। उन्होंने यूरोप में लगभग ६५० तिब्बतियों आवासियों से बात की। उन्होंने उल्लेख किया कि शरणार्थियों के रूप में वे ५५ वर्षों से निर्वासन में हैं। उन्होंने तिब्बत में रहने वाले लोगों की प्रशंसा की जिनकी भावना इसी अवधि में पीढ़ियों के परिवर्तन के बावजूद दृढ़ बनी हुई है। उन्होंने उनसे तिब्बतियों की नम्रता और ईमानदारी का सुनाम बनाए रखने में सावधान रहने के लिए प्रोत्साहित किया।
कांग्रेस केन्द्र सभागार में लौटकर परम पावन ने श्रोताओं के कई प्रश्नों के उत्तर दिए, जिनमे एक आध्यात्मिक शिक्षक चुनने के िलए मार्गदर्शन का अनुरोध था। उनकी सलाह शास्त्रों में वर्णित इस तरह के शिक्षक की योग्यता की सूची से परामर्श लेने की और यह देखने की थी, कि क्या भावी शिक्षक उन योग्यताओं को पूरा करता है, ऐसी प्रक्रिया जिसमें वर्षों लग सकते हैं। उन्होंने सलाह दी कि उस शिक्षक के प्रति पूर्ण रूप से आश्वस्त होने पर ही आप उसके प्रति प्रतिबद्ध हों।
'बोधिचर्यवतार' के नवें अध्याय के अपने सर्वेक्षण पर लौटते हुए उन्होंने समझाया कि अज्ञान, शून्यता की समझ रखने वाले प्रज्ञा द्वारा दूर किया जा सकता है क्योंकि अज्ञान तथा प्रज्ञा, प्रकाश और अंधकार के समान साथ साथ नहीं रह सकते। और बिना ज्ञान के सहयोग से अज्ञान दुर्बल होता है। परम पावन ने कहा:
"नवां अध्याय बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि शून्यता की एक सच्ची अंतर्दृष्टि के आधार पर ही हम इस भावना का विकास कर सकते हैं कि दुख से मुक्ति संभव है और अशांत करने वाली भावनाओं को समाप्त किया जा सकता है। उस समझ से ऐसी मुक्ति प्राप्त करने की कामना उत्पन्न होती है। फिर सत्वों की दुर्दशा के विषय में सोच हम बोधिचित्तोत्पाद और उनकी सेवा करने की इच्छा का विकास करते हैं।"
उन्होंने आगे कहा कि यह समझते हुए कि बुद्ध क्या है और धर्म सच्चा मार्ग और सच्चा निरोध है, बौद्धों को २१वीं सदी के बौद्ध होने की कामना करनी चाहिए।
'बोधिचर्यावतार' के प्रथम अध्याय की ओर मुड़ते हुए, उन्होंने कहा वह बोधिचित्त को समझाता है जो कि अन्य सत्वों की सहायता करने की परम इच्छा है। इसमें प्रबुद्धता को प्राप्त करने की प्रेरणा है जो मात्र इच्छाधारी सोच नहीं अपितु इस जानकारी पर आधारित है कि अन्य सत्वों की सच्ची सहायता करना संभव है।
परम पावन ने दिन के प्रवचन का यह कहते हुए औपचारिक रूप से समापन किया कि कल वे औपचारिक तौर से बोधिचित्तोत्पाद की प्रक्रिया में जाएँगे। उन्होंने हँसी में कहा कि इस प्रकार पाठ करना कुछ कुछ बुज़ुर्गों का खाने के प्रति व्यवहार जैसा है, केवल उस को उठाना जो कि चबाने में आसान हो। उन्होंने बोधिचित्त के लघुकालीन तथा दीर्घकालीन लाभ का उल्लेख किया, जिसमें अधोगति से मुक्ति, उच्च रूप में पुनर्जन्म प्राप्त करना और अंततः प्रबुद्धता। पर, उन्होंने कहा अपने आप को परिवर्तित करने की इस प्रक्रिया में समय लगता है। उन्होंने स्मरण किया कि जब वे धर्मशाला में बागवानी करते थे और चूँकि वह शीघ्र ही फूलों को खिलते देखना चाहते थे, उन्होंने उस प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने की कोशिश की और ऐसा करते हुए बीज को क्षतिग्रस्त कर दिया। उन्होंने समापन किया:
"हमें विकास को समय देने की आवश्यकता है।"