हैमबर्ग, जर्मनी - २५ अगस्त २०१४ - परम पावन दलाई लामा ने आज प्रातः हैमबर्ग में मानव जाति विज्ञान के संग्रहालय का दौरा किया। इस समय यहाँ 'तिब्बत - संकट में खानाबदोश' नामक एक प्रदर्शनी लगी हुई है। उन्होंने वहाँ लगे चित्रों की सराहना की, जिनमें खानाबदोशंो की जीवन शैली, परम्पराओं और वे खतरे, जिनसे उनका जीवन संकट में पड़ सकता है, को प्रदर्शित किया गया है। उन्होंने वनों की कटाई, खनिजों के लिए लापरवाह खनन और खानाबदोशों को जबरदस्ती आवासीय बनाना, जो अंततः उनके लिए हानिकारक है, के नकारात्मक प्रभावों के बारे में बात की।
तिब्बती ध्वजों के चित्रों से प्रेरित होकर उन्होंने वह चेयरमैन माओ ज़ेदोंग की कहानी सुनाई कि िकस प्रकार उन्होंने उसे फहराने की अनुमति दी थी। उन्होंने बंदी किए गए नोबेल पुरस्कार विजेता लियू ज़ियाओबो की एक और तस्वीर का उल्लेख किया, जबकि याक की एक तस्वीर ने उन्हें स्मरण िदलाया कि पर्वतों पर घोड़ों की तुलना में याक की सवारी करते हुए वे कितना अधिक सुरक्षित अनुभव करते हैं क्योंकि उनके खुर उन्हें और अधिक स्थिरता देते हैं।
संग्रहालय के पुराने लिफ्ट में कुछ खराबी के कारण प्रवचन के दूसरे दिन कांग्रेस केंद्र पहुँचने में परम पावन को निर्धारित समय से किंचित विलंब हुआ। जब वे और श्रोता अपने स्थानों पर बैठ गए तो उन्होंने उन्हें प्रश्न पूछने के लिए आमंत्रित किया। पहला व्यक्ति जो आगे बढ़ा वह एन के टी/आई एस सी प्रदर्शनकारी निकला, जिसने कठोर स्वर में परम पावन पर यह आरोप लगाते हुए चुनौती दी कि जब ठिजंग रिनपोछे ने शुगदेन को एक प्रबुद्ध सत्व कहकर वर्णित किया था तो उन्होंने अपने ही गुरु का विरोध करते हुए झूठ क्यों बोला था।
परम पावन हँसे और कहा:
"पर वह केवल कहानी का आपका पक्ष है। मैं जीवन भर एक बौद्ध भिक्षु रहा हूँ और अब मैं लगभग ८० साल का हूँ। एक भिक्षु के अनुशासन का महत्वपूर्ण पहलू झूठ न बोलना है; मेरे सभी कार्य पारदर्शी रहे हैं ... "
अपनी बात को रखने का अवसर देने के बावजूद, प्रश्नकर्ता ने परम पावन के उत्तर को सुनने की शिष्टता नहीं बरती, अपितु यह कहना जारी रखा कि वे झूठ बोल रहे हैं। चूँकि वह सभा को भंग कर रहा था, सुरक्षा कर्मियों ने चुपचाप सभागार से उसे हटा दिया।
अगले प्रश्नकर्ता जानना चाहते थे कि, हम एक ऐसी दुनिया में कैसे रह सकते हैं जहाँ इतने सारे बच्चे गरीबी और खतरे में जीवन जीते हैं। परम पावन ने उत्तर दिया कि हिंसा, अकल्पनीय हत्याएँ और समाचारों में भ्रष्टाचार की बातें जो हम सुनते हैं वह नैतिक सिद्धांतों के अभाव के स्पष्ट संकेत हैं। उन्होंने शिक्षा के माध्यम से व्यापक रूप से धर्मनिरपेक्ष नैतिकता को पोषित करने की आवश्यकता की अपने सुनिश्चय को दोहराया, जिससे २१वीं सदी का उत्तरार्ध और अधिक शांतिपूर्ण और करुणाशील हो सकता है।
गाजा, इराक और सीरिया में हिंसा के बारे में इसी तरह के एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि एक बार लोगों की भावनाएँ भड़क जाएँ तो उनसे तर्क करना कठिन है। परन्तु एक दूरगामी दृष्टिकोण अपनाकर हम भविष्य में इस प्रकार की स्थिति की पुनरावृत्ति से बचने का प्रयास कर सकते हैं। एक अन्य सुझाव, कि दूसरे लोगों के दुख की शून्यता के विषय में सोचना कठिन है, परम पावन ने स्पष्ट किया कि सकारात्मक भावनाएँ एक स्वतंत्र लक्ष्य की खोज में नहीं रहती, अतः हम सभी सत्वों के प्रति करुणा का विकास कर सकते हैं, पर उन सभी पर क्रोधित नहीं हो सकते। नकारात्मक भावनाएँ वास्तविक अस्तित्व की भ्रांति पर आधारित है और शून्यता की समझ उसका प्रतिकारक है।
एक युवा ने कहा कि वह स्वीकार करता है कि शून्यता की समझ चित्त की नकारात्मक स्थितियों को समाप्त कर सकती है और पूछा कि उसके िलए ऐसा करना बेहतर होगा अथवा लोगों की सहायता। परम पावन ने उससे कहा कि ३१ साल की आयु में सम्मान तथा सकारात्मक प्रेरणा के साथ दूसरों की सहायता करना अधिक व्यावहारिक होगा जो पुण्य संभार करेगा जिससे बाद में शून्यता की समझ और सरल होगी।
शांतिदेव के 'बोधिचर्यावतार' की व्याख्या पर पुनः आते हुए परम पावन ने कहा कि वे परोपकारिता और बोधिचित्त के विषय पर बात करेंगे। उन्होंने प्रथम अध्याय से छंद चुने जो स्पष्ट करते हैं कि जो सत्वों की कठिनाइयों को दूर करने की इच्छा रखते हैं उन्हें बोधिचित्त का परित्याग नहीं करना चाहिए। जो बोधिचित्त का उत्पाद करता है वह सुगतों का पुत्र कहलाता है और सम्मान का पात्र बन जाता है। उन्होंने विमुक्तिसेन को उद्धृत करते हुए कहा बोधिचित्त का मार्ग चित्त को करुणा और सत्वों पर केन्द्रित करता है। और तो और साधारण गुण केले के वृक्ष की भाँति क्षीण हो जाते हैं, पर बोधिचित्त बिना अंत के पनपता है। ग्रंथ कहता है कि बोधिचित्त के दो प्रकार हैं ः एक जो मात्र इच्छा वाला है और दूसरा जिसमें सक्रिय रूप से शामिल होने की भावना रहती है।
मध्याह्न भोजन के अंतराल के समय परम पावन ने आधुनिक समाज में धर्म और संवाद के बारे में बात करने के लिए प्रोफेसर डॉ वोलफ्राम वेइस द्वारा बुलाई हैमबर्ग विश्वविद्यालय के एक दल के साथ भेंट की। प्रोफेसर ने पूछा कि क्या अन्य आध्यात्मिक परंपराओं के साथ संवाद बौद्ध धर्म का एक स्वाभाविक भाग था। परम पावन ने उत्तर दिया:
"अपने जीवन में बुद्ध की भेंट कई अन्य विद्वानों और अभ्यासियों से हुई, पर क्या उनके बीच कोई संवाद हुआ यह मैं नहीं जानता। दूसरी ओर ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने परिस्थितियों के अनुसार और जिन्हें वे शिक्षा प्रदान कर रहे थे उनके अनुसार विभिन्न दृष्टिकोणों से शिक्षा दी। हमारे अपने समय में यह उल्लेखनीय है कि पोप जॉन पॉल द्वितीय ने असीसी अंतर्धर्म बैठकें प्रारंभ कीं और बहुवचन में धर्मों का संदर्भ दिया।"
प्रवचन सभागार में वापस लौटते परम पावन ने पुनः फिर से श्रोताओं से प्रश्न आमंत्रित किए। एक महिला ने बौद्ध परंपरा के लिए प्रेम व्यक्त किया पर उसमें संलग्न होने को अत्यंत आलसी पाया। परम पावन ने उनसे कहा कि वे स्वयं भी आलसी हो जाते हैं, पर उन्होंने पाया है कि जब लक्ष्य अस्पष्ट होता है तो आलसी होना सरल होता है पर जब लक्ष्य स्पष्ट होता तो उसकी प्राप्ति अपेक्षाकृत सरल होती है। एक और महिला जानना चाहती थी कि पाठशाला में बच्चों और वयस्कों को किस तरह पढ़ाया जाए और शून्यता पर किस प्रकार ध्यान किया जाए और उन्होंने उत्तर दिया:
"बेहतर यह होगा कि बच्चों को प्रेम और करुणा के विषय में शिक्षा दी जाए। और मात्र शब्दों के माध्यम से शिक्षा देना पर्याप्त नहीं है; आप को एक उदाहरण स्थापित करने की भी आवश्यकता है। यदि आप एक कड़े चेहरे के साथ करुणा सिखाने की कोशिश करेंगे तो कौन कुछ सीखेगा?"
'बोधिचर्यावतार' के चौथे अध्याय में चेतनता शािमल है, अपने जीवन को सार्थक ढंग से जीना। पांचवें अध्याय में मनन और सजगता की बात आती है। धैर्य से संबंधित छठवें अध्याय में क्रोध और द्वेष की कमियों की व्याख्या शािमल है। "द्वेष के समान कोई दुर्गुण नहीं और धैर्य जैसा कोई अभ्यास नहीं है। इसलिए, मैं सच्चाई से विभिन्न उपायों द्वारा धैर्य का विकास करूँगा।" इसमें एक वास्तविक और व्यावहारिक सलाह भी शामिल है कि यदि आपकी द्वारा की गई समस्या का परीक्षण किसी समाधान को स्पष्ट करता है, तो चिंता या क्रोध का क्या अर्थ है? और यदि कोई समाधान नहीं तो चिंता अथवा क्रोध का कोई लाभ नहीं है। धैर्य के बड़े लाभ हैं कि यदि कोई आपको उकसाए तो भी आप क्रोध के वश में न होंगे, अपितु अपने चित्त की शांति बनाए रखेंगे।
सातवाँ अध्याय वीर्य या उत्साह का है और आठवाँ ध्यान का। शैथिल्य अथवा औदत्य जैसे दो बाधाओं से निपटने के लिए जागरूकता के लिए एकाग्रचित्तता को विकसित करने की सलाह है। यह बोधिचित्तोत्पाद से भी संबंधित है। एक दृष्टिकोण सप्तांग कार्य कारण का है परन्तु शांतिदेव नागार्जुन का अनुशीलन करते हुए परात्मसमता और परात्मपरिवर्तन का उपाय प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि "एकांत के लाभ पर ध्यान कर और अपने असंबद्ध विचारों को शांत करने के पश्चात आपको बोधिचित्तोत्पाद करना चाहिए।" क्यों?
"मुझे दूसरों का दुःख दूर करना चाहिए क्योंकि यह जो दुख है जो मेरे ही दुःख के समान है। मुझे दूसरों का ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि मैं भी एक सत्व हूँ।"
"जब सुख दूसरों तथा मुझे एक समान प्रिय है तो मुझ में ऐसी क्या विशिष्टता है कि मैं केवल अपने सुख के लिए प्रयास करूँ?"
"जब भय और दुख दूसरों को तथा मुझे समान रूप से अप्रिय है तो मुझ में ऐसी क्या विशिष्टता है, कि मैं स्वयं की रक्षा करता हूँ, दूसरों की नहीं।"
परम पावन ने यहाँ वहाँ किसी बिंदु को स्पष्ट करने के लिए रुकते हुए तेज़ी से पठन जारी रखा तथा शांतिदेव के सारांश के साथ समापन किया ः
"कोई जो अपने सुख के साथ दूसरों के दुःख का आदान प्रदान नहीं करता, निश्चित रूप से बुद्धत्व को प्राप्त नहीं करता। वह संसार में भी कैसे सुख प्राप्त कर सकता है?" इसके बाद उन्होंने तिब्बती आचार्य थोगमे संगपो द्वारा विरचित लघु ग्रंथ 'बोधिसत्व के ३७ अभ्यास' का द्रुत गति से पाठ किया। उनके लिए ज्ञलसे अर्थात जिनपुत्र अथवा बोधिसत्व विशेषण का प्रयोग होता था। वे महान विद्वान बुतोन रिनछेन डुब के समकालीन थे, जो ईसा की १४वीं शताब्दी के थे। परम पावन ने ध्यानाकर्षित किया कि लमरिम की तरह यह पाठ अधम, मध्यम और उत्तम प्रकार के पुरुषों के विकास का पालन करता है तथा छह पारमिताओं के अभ्यास की व्याख्या करता है। चूँकि वह ग्रंथ की शिक्षा तिब्बती में दे रहे थे, जब उन्होंने अंत तक पाठ कर लिया तो उन्होंने अपने दुभाषिया को जो उन्होंने पढ़ा था उसका जर्मन में अनुवाद न करने का निर्देश दिया, क्योंकि श्रोताओं के पास ग्रंथ की प्रतिलिपि थी।
परम पावन ने स्पष्ट किया कि वह कल अवलोकितेश्वर अभिषेक करने से पूर्व बोधिचित्तोत्पाद और बोधिसत्व व्रतों के एक समारोह का नेतृत्व करेंगे। जहाँ अभी तक उन्होंने जो शिक्षा दी, वह सभी के िलए खुली है, उन्होंने उल्लेख किया कि एक विशुद्ध गुरु शिष्य संबंध निर्मित करने और बनाए रखने के लिए वे अनुरोध करते हैं कि जो दोलज्ञल आत्मा को तुष्ट करने में लगे हुए हैं, जो कि पूरी तरह से उनका चयन है, वे कल की शिक्षाओं में भाग न लें और उन्होंने सुझाया कि उनके श्रोता तैयारी के रूप में आज शाम बोधिचित्त तथा शून्यता की उनकी अपनी समझ पर चिन्तन करें।