पुणे, महाराष्ट्र, भारत - ३१ दिसंबर २०१४- महाराष्ट्र के दूसरे प्रमुख शहर, पुणे में चाणक्य मंडल परिवार (सी एम पी) के संस्थापक निदेशक अविनाश धर्माधिकारी ने परम पावन दलाई लामा को आमंत्रित किया था। सी एम पी एक नेटवर्क संगठन और पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट है, जो आजीविका मार्गदर्शन, प्रतियोगी परीक्षा के प्रशिक्षण, उद्यमिता निर्माण और व्यक्तित्व विकास के क्षेत्र में काम कर रहा है।
परम पावन इसके नए भवन के उद्घाटन अवसर पर मुख्य अतिथि थे। आगमन पर उन्होंने प्रवेश द्वार पर एक संकेत और एक स्मारक पट्टिका का अनावरण किया और लॉबी में दीप प्रज्ज्वलित िकया।
सभागार में ऊँ अक्षर के मंत्र स्वर के पाठ के साथ एक छोटी उपासना या ध्यान आयोजित किया गया था। इसके बाद पूर्ववर्ती छात्र, जो अब सक्रिय सेवा में रत हैं वे २९ जल निकायों, जो मानसरोवर से लेकर ब्रह्मपुत्र के तक का था, जल की छोटी छोटी मटिकयाँ लेकर आए और मंच के समक्ष रखे एक कलश में उन्हें डाल दिया। तीन प्रतिनिधि अधिकारियों ने आज के अवसर के ऐतिहासिक मांगल्य पर टिप्पणी करते हुए, अपने अनुभवों की बात की। यह उद्घाटन महत्वपूर्ण था क्योंकि जहाँ इस अवसर पर परम पावन उपस्थित थे वहीं सफेद धन से वित्त पोषित की गई एक परियोजना की पूर्ति भी हुई थी।
"सम्माननीय बड़े भाई और बहनों, और छोटे भाइयों और बहनों," परम पावन ने प्रारंभ िकया, "मुझे आपके द्वारा इस स्थान को ज्ञान के एक मंदिर के रूप में संबोधित करना बहुत अच्छा लगा। प्रायः हमारे मंदिर अपने श्रद्धा को साकार करने हेतु केवल पूजा के लिए उपयोग में लाए जाते हैं, पर मात्र श्रद्धा हमारे चित्त के परिवर्तन में सहायक नहीं हो सकती। वैसा करने के लिए हमें अपनी मानव बुद्धि का उपयोग करना होगा। हमें वस्तुओं को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में तथा एक दीर्घ कालिक दृष्टि में रखकर देखना होगा। साधारणतया यह देश अत्यंत धार्मिक है, अधिकांश परिवार गणेश, सरस्वती या शिव जी को दैनिक प्रसाद और प्रार्थना समर्पित करते हैं। पर यह श्रद्धा संदेश की वास्तविक समझ का विकल्प नहीं है। उसे प्राप्त करने के लिए अध्ययन अनिवार्य है।"
"नई दिल्ली में हाल ही में हुए विश्व हिंदू कांग्रेस में मैंने उल्लेख किया था कि प्रार्थना और पूजा अपने आप में पर्याप्त नहीं हैं। नालंदा के पंडितों के लेखन से स्पष्ट होता है कि विश्वविद्यालय में विद्वानों के बीच विभिन्न दृष्टिकोणों पर गहन शास्त्रार्थ होते थे। ऐतिहासिक दृष्टि से हम तिब्बतियों ने भारतीयों को अपना गुरु माना है जबकि हम शिष्य हैं। परन्तु आज भारत में धन तथा शक्ति पर बहुत अधिक बल दिया जाता है और
भारत के प्राचीन मूल्यों और ज्ञान की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता। मैं नियमित रूप से जिन बौद्धों से मिलता हूँ उन्हें प्रोत्साहित करता हूँ कि वे २०वीं सदी के बौद्ध बनें, जिसका अर्थ है - अध्ययन, समझ का विकास।"
देश भर से एकत्रित किए गए जल के िवषय में परम पावन ने पूछा कि ऐसा क्या है जो इसे पवित्र बनाता है। उन्होंने उत्तर दिया कि, क्योंकि जीवन इन नदियों पर निर्भर करता है। एशिया की महान नदियों में से कई तिब्बती पठार से उद्भूत होती हैं और अपने प्रवाह में पाकिस्तान से लेकर िवयतनाम तक १ अरब से अधिक लोगों को पोषित करती हैं।
उन्होंने एकत्रित लोगों से कहा कि वे वास्तव में प्रभावित थे कि किस प्रकार उनका उद्देश्य वक्तव्य, 'वैश्विक चेतना और सक्षमता के साथ युवाओं का विकास करना ... और राष्ट्रीय चरित्र के साथ पेशेवरों का विकास करना' व्यावहारिक शिक्षा के प्रति समर्पण को प्रकट करता है। उन्होंने सुझाव दिया कि इस के अतिरिक्त संकीर्ण सोच, केवल अपने ही राज्य के बारे में सोचना तारीख से बाहर है। इसके बजाय हमें संपूर्ण विश्व के विषय में, संपूर्ण मानवता के विषय में सोचना है। हमारी अर्थव्यवस्थाएँ अन्योन्याश्रित हैं, पर उतना ही महत्वपूर्ण यह है कि एक सामाजिक प्राणी होने के नाते हम स्वाभाविक रूप से दूसरों पर निर्भर रहते हैं।
भारत के बारे में एक और अनूठी बात यह है कि यह एक ऐसा देश हैं जहाँ विश्व के सभी धर्मों का अस्तित्व है और वे सद्भाव से एक साथ रहते हैं। इसी धरा से जन्मी आध्यात्मिक परम्पराएँ अन्य स्थानों से आई परम्पराओं के साथ पनपी हैं। उन्होंने विशेष रूप से पारसियों के लिए अपने प्रशंसा व्यक्त की जो प्राचीन फारस के ज़राथूस्त्र को मानने वाले हैं और यहाँ स्वतंत्रता व सुरक्षा में फले फूले हैं। उन्होंने कहा कि विश्व के विभिन्न भागों में वे जहाँ कहीं भी बोलते हैं वे भारतीय उदाहरण प्रस्तुत करते हैं कि विभिन्न धर्म एक साथ रह सकते हैं।
और तो और भारत, विश्व का सबसे अधिक जनसंख्या वाला लोकतांत्रिक देश है और इसकी अहिंसा और धर्मनिरपेक्षता की एक लंबी परम्परा है। परम पावन ने पूर्व उप प्रधानमंत्री आडवाणी को उद्धृत किया जिन्होंने उन्हें बताया था कि िकस प्रकार अन्य सभी धार्मिक परंपराओं ने चारवाकों, जो सभी आध्यात्मिक परम्पराओं के विरोधी थे, के साथ तर्क िकया - पर इसके बावजूद वे अपने शिक्षकों को, जो नास्तिक थे, ऋषि या संत कहकर संबोधित करते थे।
इस संदर्भ में, ७ अरबों में, विश्व की आबादी के १ अरब लोग किसी भी प्रकार की कोई आस्था न होने का दावा करते हैं, पर फिर भी मानवता का एक अंग हैं। उन तक हाथ बढ़ाने के िलए एक मार्ग होना चाहिए। कुछ वर्ष पूर्व हिरोशिमा में नोबेल शांति पुरस्कार विजेताओं की एक बैठक में शांति के लिए प्रार्थना को लेकर बहुत बातें हुईं। जब परम पावन की बारी आई तो उन्होंने कहा कि यदि वैश्विक शांति प्रार्थना पर निर्भर होती तो उसे पहले से ही प्राप्त कर लिया गया होता। आवश्यक यह है कि हम कार्रवाई करें। मनुष्य ही हिंसा को निर्मित करते हैं अतः मनुष्यों को ही इसे बंद करना होगा। परम पावन ने इंगित किया कि, जो िहंसा है तथा जो हिंसा नहीं है के बीच एक उचित सीमांकन, इतनी अधिक शारीरिक क्रिया नहीं है जितनी इसके पीछे की प्रेरणा है। विश्व शांति मात्र चित्त की शांति के आधार पर बनाई जा सकती है।
परम पावन ने सलाह दी, "आपको आधुनिक शिक्षा के साथ प्राचीन भारतीय मूल्यों को जोड़ने का प्रयास करना चाहिए," बहुलवाद, सहिष्णुता और अहिंसा के अपने उदाहरण से विश्व को प्रभावित करने के लिए भारत को अपना विस्तार करना चाहिए।"
श्रोताओं से प्रश्न लेते हुए, परम पावन ने यह इंगित करते हुए कि बच्चे परस्पर उन्मुक्तता की भावना रखते हैं, उत्तर दिया कि आधुनिक िवश्व में हम िकस प्रकार एक दूसरे के साथ जुड़ सकते हैं। हमें आत्म केन्द्रितता, आक्रामकता और संकीर्णता, जो आयु के साथ अधिक होते जाते हैं, को सीमित करने के लिए उपाय ढूँढने होंगे। यह पूछे जाने पर कि ध्यान के द्वारा किस प्रकार आंतरिक शांति का विकास िकया जा सकता है, उन्होंने स्पष्ट किया कि दो प्रकार के ध्यान हैं, शमथ अथवा एकाग्रचित्त ध्यान और विपश्यना। उन्होंने कहा कि वे बाद के जिसका संबंध विश्लेषणात्मक ध्यान से है, अधिक शक्तिशाली और प्रभावी पाते हैं। धन्यवाद शब्दों के साथ मध्याह्न भोजन के लिए सत्र में अंतराल हुआ।
गणेश कला क्रीड़ा सभागार में कार्यवाही का प्रारंभ दो युवतियों के गायन से हुआ, पहला मराठी में तथा दूसरा तिब्बती में। परम पावन को संबोधन करने हेतु आमंत्रित किया गया था।
"प्रिय भाइयों और बहनों, मैं सदा इसी तरह प्रारंभ करता हूँ। यह काफी स्पष्ट हो गया है कि हम जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं उनमें से कई मानव निर्मित हैं और अस्तित्व में आई हैं, क्योंकि हम अपने बीच के गौण मतभेदों पर बहुत अधिक ध्यान केन्द्रित करते हैं, जैसे आस्था, राष्ट्रीयता, पदवी, जाति इत्यादि। उपाय इस बात का स्मरण रखना है कि मनुष्य के रूप हम सभी एक ही जैसे हैं। जब कोई सहायता के लिए अस्पताल में आता है, तो उससे यह नहीं पूछा जाता िक "आप की पृष्ठभूमि, आपकी शिक्षा क्या है, आप कहाँ से आए हैं, आप कौन सी भाषा बोलते हैं?" उसे उस मनुष्य के रूप में देखा जाता है, जो सहायता चाहता है। इस प्रकार एक मनुष्य के रूप में हमें सुखी रहने का अधिकार है, इसलिए उन्हें, उन और हम के रूप में विभाजित करना गलत है।"
"हम सामाजिक प्राणी हैं, हमें मित्रों की आवश्यकता है। मैत्री विश्वास पर आधारित है और विश्वास का आधार दूसरों के हित के प्रति चिंता रखना है। आत्म- केन्द्रितता विश्वास को दुर्बल कर देती है और अविश्वास भय, नैराश्य व क्रोध की ओर जाता है। यदि मैं मात्र अपने िवषय में सोचूँ तो मैं तनाव और चिंता से भर जाता हूँ।
"जब मैं श्रोताओं की ओर देखता हूँ तो मैं अन्य मानवों की ओर देखता हूँ। मुझे लोग अच्छे और बुरे क्षमता के साथ देखते हैं। मुझमें चिढ़न की एक संभावना है, पर यदि में उसे अपने पर हावी होने दूँ, तो मैं अपनी चित्त की शांति खो बैठता हूँ। इस प्रकार की उद्वेलित भावनाओं से निपटने के लिए हमें यह समझने की आवश्यकता है कि हमारा चित्त और भावनाएँ िकस प्रकार कार्य करती हैं।"
परम पावन ने घोषणा की कि प्राचीन भारतीय मनोविज्ञान के अत्यधिक विकसित अंतर्दृष्टि की तुलना में, आधुनिक मनोविज्ञान ने अभी प्रारंभ ही िकया है। उन्होंने कहा कि हम सभी एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं पर हम उसे ऐंद्रिक अनुभव में ढूँढते हैं। हम सुख का स्रोत भौतिक वस्तु में निहित पाते हैं, जबकि हमें जिस वस्तु की वास्तव में आवश्यकता है, वह चित्त की शांति है ।
उन्होंने सिंधु घाटी सभ्यता की सराहना की जिसने प्राचीन मिस्र और चीन की सभ्यताओं की तुलना में अंततः गहन विचारकों और दार्शनिकों की एक सर्वांग तथा प्रभावशाली के रूप को जन्म दिया। उनसे धर्मनिरपेक्षता और अहिंसा की परंपराएँ उभरीं, जो आज भी इतनी प्रासंगिक बनी हुई हैं।
श्रोताओं के प्रश्नों के िदए गए उत्तरों में, उन्होंने परामर्श दिया कि जाति व्यवस्था जैसी प्रथाओं और उनसे जुड़े भेदभाव, जो आज तारीख से बाहर हैं, को बाहर से मिटाया नहीं जा सकता। उन्होंने कहा कि समुदाय में ही इन बातों को बदलने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता है। धार्मिक नेताओं को बोलने की आवश्यकता है। दूसरी ओर, हम ७ अरब मनुष्यों में से प्रत्येक पर विश्व में शांति लाने लिए कार्य करने का एकउत्तरदायित्व है। हम सभी समाज का अंग हैं और यदि हममें से प्रत्येक चित्त की शांति बनाए रखेगा तो उसका तरंगीय प्रभाव हमारे परिवार और मित्रों पर पड़ेगा।
उन्होंने कहा कि आज हमें धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के एक स्रोत की आवश्यकता है जिस पर लोग स्वेच्छा से कार्य करें। तथा धर्मनिरपेक्ष नैतिकता लागू करने का मार्ग शिक्षा द्वारा है इसलिए परम पावन ने दोहराया कि वे ज्ञान के एक मंदिर के विचार से प्रभावित थे। उन्होंने उन्हें सुनने वाले युवा लोगों को सलाह दी, जिन्हें वे २१वीं सदी की पीढ़ी के रूप में वर्णित करते हैं, वे भविष्य की आशा के स्रोत हैंः
"अपने ज्ञान को गहन करो, पर विश्व के नागरिक रहो।"