नई दिल्ली, भारत - २१ नवंबर २०१४ - आज प्रातः अपने अन्य कार्यक्रमों के लिए बाहर निकलने के पूर्व परम पावन दलाई लामा विश्व के सबसे प्राचीन धार्मिक परंपराओं में से एक, पारसी या ज़रथुसट्र पंथ के प्रतिनिधि से मिले। उनकी तथा डॉ होमी बी ढल्ला की पहली भेंट उस समय हुई थी जब १९८६ में वे दोनों असीसी में पोप जॉन पॉल द्वितीय के अतिथि थे। तब से वे उनसे कई बार मिल चुके हैं। इस अवसर पर डॉ ढल्ला परम पावन से शांति और मानव अधिकारों को लेकर वे जो एक वृत्त चित्र बना रहे हैं, के संबंध में कई प्रश्न पूछना चाहते थे।
उन्होंने यह पूछते हुए प्रारंभ किया कि क्या बातचीत के अतिरिक्त हिंसा का अंत किया जा सकता है। परम पावन ने उत्तर दिया कि हिंसा का सीधा संबंध हमारी विनाशकारी भावनाओं से है। क्रोध, भय, ईर्ष्या और कुछ सीमा तक लोभ हिंसा के स्रोत हैं। यदि हम इस तरह की भावनाओं से नहीं निपटते तो हिंसा बनी रहेगी। लोगों को शिक्षित करने की आवश्यकता है कि हिंसा सामाजिक रूप से विघटनकारी है, साथ ही हमारे स्वास्थ्य के लिए बुरी है और हमारे चित्त की शांति के लिए भी विनाशकारी है। महिलाओं के खिलाफ हिंसा के संबंध में, परम पावन ने कहा कि निश्चित रूप से यह गलत है। पुरुष श्रेष्ठता के आरोपित धारणाओं के बावजूद, पुरुष और महिलाओं को एक दूसरे की आवश्यकता है। आधुनिक समय में, शिक्षा ने समानता की एक बड़ी भावना प्रस्तुत की है।
युवा लोगों के तकनीक के साथ जुड़ाव के विषय में पूछे जाने पर, परम पावन की अपनी प्रशंसा को लेकर दो राय न थी।
"प्रौद्योगिकी अच्छी है। यह जीवन को सरल बना देती है तथा लोगों को पास लाती है। पर हमें इसका उपयोग रचनात्मक ढंग से करना चाहिए।"
युवा लोग एक व्यापक जागरूकता निर्मित कर सकते हैं, कि हम सब एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं। हम सब को स्नेह की आवश्यकता है। इसलिए मानवता की एकता को स्वीकार करना बहुत सहायक है।
जब डॉ ढल्ला ने तिब्बत के विषय में पूछा तो परम पावन ने उन्हें बताया कि पुरातत्व, तिब्बत में लोगों की महान पुरातनता को इंगित करता है।
"७वीं शताब्दी में और इससे पहले, हमने लिपि की अपनी पद्धति बनाई, जो उसे विश्व की सबसे प्राचीन लिपियों में से एक बनाती है। हमारे पास तिब्बती भाषा में अनूदित पुस्तकों का संग्रह है, पर उससे भी अधिक, हम सख्ती से इन ग्रंथों का अध्ययन करते हैं। इस बीच, तिब्बत में चीनी कट्टरपंथी यह संदेह रखते हुए कि लेखन और साहित्य की एक अलग विधा का तात्पर्य अलगाववाद है, जहाँ उनके द्वारा संभव है वे उन्हें सीमित करते हैं।"
दिल्ली के राजनयिक क्षेत्र की ओर स्थित अशोक होटल में गाड़ी से पहुँचने पर प्रथम विश्व हिन्दू सम्मेलन के आयोजन समिति (वि. हि. कां. २०१४) के सदस्यों द्वारा परम पावन का स्वागत किया गया। उन्हें मंच पर ले जाया गया। सम्मेलन का प्रारंभ एक स्वामी द्वारा एक लंबे समय के शंख नाद से हुआ तथा औपचारिक रूप से दीप प्रज्ज्वलन के साथ उद्घाटन हुआ। विश्व हिन्दू परिषद् के संयुक्त महामंत्री, स्वामी विज्ञाननन्द ने समझाया कि विश्व हिन्दू सम्मेलन का आयोजन क्यों किया जा रहा था। यह कहते हुए कि वे विश्व भर में हिंदू समुदाय के लिए समृद्धि और प्रभाव के पुनरुत्थान की आशा कर रहे थे:
"अच्छी बातें अपने आप नहीं होतीं, हमें उन्हें बनाना पड़ता है।"
आयोजन समिति के अध्यक्ष सज्जन भजंका ने सभी उपस्थित लोगों के प्रति सौहार्दपूर्ण स्वागत भाव व्यक्त किया, परम पावन, मोहन भागवत और अशोक सिंघल और ५० देशों के १८०० प्रतिनिधियों के प्रति। उन्होंने तीन व्यक्तियों, परम पावन दलाई लामा, पूज्य स्वामी दयानंद सरस्वती और अशोक सिंघल का सम्मान करने की, सम्मेलन की इच्छा का उल्लेख किया।
परम पावन के प्रशस्ति पत्र में उन्हें करुणा के बोधिसत्व अवलोकितेश्वर के अवतार के रूप में वर्णित किया गया है, एक ऐसे जिन्हें पहले से ही नोबेल शांति पुरस्कार और मेगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है, जिन्होंने विद्यालयों, विहारों और तिब्बती ग्रंथ एवं अभिलेख पुस्तकालय, जैसे संस्थानों की स्थापना की और जिन्होंने सत्य और दया के धर्म का प्रचार किया। मोहन राव भागवत और अशोक सिंघल को उन्हें भगवा दुशाला और प्रमाण पत्र अर्पित करने के िलए निमंत्रित किया।
स्वामी दयानंद सरस्वती स्वास्थ्य के कारण यात्रा न कर पाए तो उन्होंने उनकी ओर से अपने शिष्य को वह पुरस्कार स्वीकार करने के लिए कहा। अशोक सिंघल ने सम्मानित किए जाने की मनाही कर दी।
सम्मेलन के उद्घाटन संबोधन की प्रस्तुति के अनुरोध पर परम पावन ने प्रारंभ किया:
"प्रिय आध्यात्मिक भाइयों और बहनों, मेरे िलए इस विश्व हिन्दू सम्मेलन में भाग लेना एक सम्मान की बात है क्योंकि मैं अपने आप को मात्र एक अन्य इंसान के रूप में समझता हूँ। मैं सदा इस बात पर बल देता हूँ कि हम ७ अरब मनुष्य मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक रूप से एक समान हैं। हम चाहें राजा हों या रानी, भिखारी हों या आध्यात्मिक नेता, हम सब एक ही तरह से पैदा होते हैं। पर चूँकि हम इस समानता को भूल जाते हैं तो हम इसके बजाय अपने बीच के गौण अंतर पर बल देते हैं। हम एक दूसरे को 'हम' और 'उन' के संदर्भ में सोचते हैं। पर हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि यदि और जब हम एक प्राकृतिक आपदा से बचते हैं और किसी और से िमलते हैं तो बिना कोई चिंता िकए कि वे कहाँ से आए हैं और किस पर विश्वास करते हैं, हम खुशी से उनका एक साथी मनुष्य के रूप में अभिनन्दन करते हैं। बच्चे भी अपने बीच इस तरह अंतर की चिंता न करते हुए एक दूसरे को साथियों के रूप में गले लगाते हैं।"
उन्होंने ध्यानाकर्षित िकया कि आज हम कई प्रकार की समस्याओं का सामना कर रहे हैं, उदाहरण के िलए युद्ध और हिंसा, समस्याएँ जो हमने निर्मित की हैं। इस तरह की समस्याओं का समाधान करने के प्रयास में, बेहतर यह है कि हम इस पर बल दें कि हम सभी मानव हैं। हम सब एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं और जिस प्रकार हम मानव स्नेह को महत्व देते हैं तो दूसरे भी करते हैं। वास्तव में हमारे जीवन का प्रारंभ स्नेह के वातावरण में होता है और हम स्नेह के वातावरण में जीवित रहते हैं। यदि हम इस संदर्भ में ७ अरब मनुष्य की एकता के बारे में सोचें तो हमें विभाजित करने के लिए कुछ नहीं है।
परम पावन ने टिप्पणी की कि उन दोनों के बीच दार्शनिक मतभेद के बावजूद, वह सभी प्रमुख धार्मिक परंपराओं को चित्त की शांति के लिए अनुकूल पाते हैं। उन्होंने प्राचीन भारतीय दर्शन के सांख्य-योग, जैन, न्याय- वैशेषिक, मीमांसा-वेदांत और चारवाक दर्शनों का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि वे मिस्र और चीन की प्राचीन सभ्यताओं की तुलना में यह स्पष्ट करते हैं कि अंततः सिंधु घाटी सभ्यता ने एक बड़ी संख्या में महान विचारकों को जन्म दिया।
"मैं नालंदा परम्परा का विद्यार्थी और एक बौद्ध भिक्षु हूँ। मैंने थोड़ा अध्ययन किया है, पर कुल मिलाकर एक आलसी छात्र रहा हूँ। परन्तु मैं प्राचीन भारत के विद्वानों तथा आध्यात्मिक अभ्यािसयों का बहुत प्रशंसक हूँ। मैं उनके लेखन को पढ़ता हूँ और उनकी प्रशंसा करता हूँ जिनसे स्पष्ट होता है कि उन्होंने अपने मानव मस्तिष्क का पूरा उपयोग किया। आर्यदेव, भावविवेक, दिग्नाग और धर्मकीर्ति के लेखन में विभिन्न परंपराओं के कई तर्क और विश्लेषण हैं। उनके लेखन स्पष्ट अर्थ लिए हैं। यह स्पष्ट है कि बौद्ध ज्ञान अन्य परम्पराओं से बौद्धिक चुनौती के उत्तर में विकसित हुआ तथा गैर-बौद्ध परम्पराएँ भी तदनुसार विकसित हुईं।"
"विख्यात भारतीय भौतिक विज्ञानी राजा रामण्णा ने गर्व से एक बार मुझे बताया कि उन्होंने प्राचीन भारतीय विद्वानों के लेखन में वह स्पष्टीकरण पाया जो आज के क्वांटम भौतिकी के विचारों से मेल खाता है। और जिसे लेकर उन्हें विशेष गर्व का अनुभव होता था कि आज वैज्ञानिकों के बीच जो विचार नूतन और नए माने जाते हैं वे भारतीय विचारकों को बहुत पहले ज्ञात था।"
"मैं सदा कहता हूँ कि हम तिब्बती भारतीयों को अपने गुरु के रूप में मानते हैं। हमारा सभी ज्ञान भारत से आया है। १५वीं शताब्दी के एक महान तिब्बती विद्वान ने कहा कि बर्फ की भूमि में श्वेत आभा के बावजूद, भारत से ज्ञान के रूप में प्रकाश के आने तक तिब्बत अंधेरे में रहा। मैं कभी कभी हँसी में कहता हूँ, कि हम प्राचीन भारतीयों को अपना गुरू मानते हैं, आधुनिक भारतीयों को नहीं जो कुछ हद तक पाश्चात्य बन गए हैं। पर अब आप भी अपनी सदियों पुरानी परंपराओं को पुनर्जीवित करने और उसकी रक्षा करने का प्रयास कर रहे हैं और मैं उसकी सराहना करते हूँ।"
परम पावन ने विगत ३० वर्षों से ब्रह्माण्ड विज्ञान, भौतिक विज्ञान, तंत्रिका जीव विज्ञान और मनोविज्ञान पर केंद्रित आधुनिक वैज्ञानिकों के साथ जो संवाद प्रारंभ िकया था, उस की बात की। इसमें स्पष्ट हुआ है कि प्राचीन भारत की अत्यधिक विकसित मनोविज्ञान की तुलना में, आधुनिक मनोविज्ञान कठिनाई से बाल विहार स्तर तक पहुँचा है। इसलिए इस संबंध में कई दिनों तक अनुष्ठानों का संचालन करना पर्याप्त नहीं है। मंदिरों के अतिरिक्त एक गहन स्तर पर अध्ययन और चर्चा करने के लिए स्थानों की आवश्यकता है। हमें अपने चित्त और भावनाओं के बारे में अधिक जानने की आवश्यकता है, क्योंकि यही ज्ञान चित्त की शांति की ओर ले जाता है। यदि हम अपने विनाशकारी भावनाओं से निपटना सीख जाएँ तो हम वास्तव में एक और अधिक करुणाशील विश्व बनाना प्रारंभ कर सकते हैं।
"हम तिब्बती शिष्य हैं, पर मुझे लगता है कि हम कह सकते हैं कि हम विश्वसनीय शिष्य हैं। हमने उस अक्षुण्ण ज्ञान को संरक्षित रखा है जो हाल ही में हमारे गुरुओं द्वारा उपेक्षित है। मेरा आपसे अनुरोध है कि जहाँ भी आपने मंदिरों और अन्य संस्थानों की स्थापना की है वहाँ इस प्राचीन ज्ञान पर और अधिक ध्यान दें। इस तरह आप समूचे विश्व में एक वास्तविक योगदान कर सकते है।"
परम पावन ने बौद्ध और हिंदू धर्म को आध्यात्मिक भाइयों की तरह बताया, जिसको सुनकर सभागार प्रशंसा के स्वर से गूँज उठा। उन्होंने कहा कि उनमें शील, शमथ और प्रज्ञा जो कि नैतिकता, ध्यान तथा प्रज्ञा है, समान है और जहाँ उनमें अंतर है वह आत्मा या अनात्मा के दृष्टिकोण को लेकर है। उन्होंने कुछ वर्ष पूर्व बंगलौर में एक आध्यात्मिक गुरु से हुई भेंट का स्मरण किया, एक भला व्यक्ति जो बड़े पैमाने पर गरीबों के लिए भोजन का प्रबंध करता है। उन्होंने अपने आध्यात्मिक परंपराओं के समानता पर चर्चा की जब परम पावन ने यह माना कि उनके लिए, एक बौद्ध भिक्षु के लिए अनात्मा अधिक उपयुक्त है, उनके मित्र एक हिंदू साधु के लिए, आत्मा का दृष्टिकोण अधिक रुचिकर है। पर उन्होंने कहा कि वे जिस दृष्टिकोण का भी चयन करें वह उनका व्यक्तिगत निर्णय है।
उन्होंने दोहराया कि सभी प्रमुख धार्मिक परंपराएँ करुणा, क्षमा और आत्म अनुशासन सिखाती हैं। वो जो एक सृजनकर्ता में विश्वास प्रतिपादित करते हैं, ईश्वर में एकाग्र भाव से विश्वास एक शक्तिशाली अभ्यास है। उन लोगों के लिए जो कारण कार्य करणीय में जो विश्वास करते हैं, यह समझना शक्तिशाली है कि यदि आप अच्छा करते हैं तो आप को लाभ होगा और आप बुरा करते हैं आप को भुगतना होगा। इन सभी परम्पराओं का लक्ष्य मानवता का लाभ करना है, इसलिए परम पावन ने कहा, वह अंतर्धार्मिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए महान प्रयास करते हैं। ऑस्ट्रेलिया में एक अवसर का उल्लेख करते हुए, जब उनके एक ईसाई मित्र ने उनका परिचय एक अच्छे ईसाई के रूप में दिया और अपनी बारी आने पर उन्होंने कहा कि वे अपने ऑस्ट्रेलियाई मित्र को एक अच्छा बौद्ध मानते हैं, उन्होंने कहा कि वह यहाँ वह एक अच्छे हिंदू होने का दावा कर सकते हैं।
परम पावन ने यह भी टिप्पणी की कि हिंदू और बौद्ध तंत्र के बीच कई समानताएँ हैं। उन्होंने सभा को बताया कि वे अभ्यासियों के साथ जो ऊँचे पहाड़ों पर कई वर्ष बिताते हैं, वास्तविक अनुभवों की चर्चा करने के िलए कितने उत्सुक हैं। जब अशोक सिंघल ने पिछले महाकुंभ मेले में भाग लेने के लिए उन्हें आमंत्रित किया तो उन्हें उस अवसर की प्रतीक्षा थी, पर दुख की बात मौसम ने उन्हें यात्रा करने की अनुमति नहीं दी।
"इस तरह के अवसर आपसी समझ को बढ़ाने में सहायक होते हैं और उसके साथ आपसी सम्मान आता है जो सद्भाव का आधार है। क्या यह स्पष्ट है? धन्यवाद।"
सम्मेलन को अपने संदेश में स्वामी दयानंद सरस्वती ने कहा वे यह जानकर खुश हैं कि हिंदू नेतृत्व उस समय मिल रहा है जब हिन्दू विश्व में अनुकूल परिवर्तन हो रहा है। अशोक सिंघल ने, वी एच पी के एक अजेय हिंदू, एक निडर हिंदू के रूप में उभरने पर ध्यान केन्द्रित करते हुए हिन्दी में एक उत्साहपूर्ण भाषण दिया। प्रबोधन नाम से एक नया प्रकाशन जारी किया गया। श्रीलंका के उत्तरी प्रांत के मुख्यमंत्री, सी.वी. विगनेश्वरन् ने सभा को उस देश में हिंदुओं के अनुभवों के विषय में बताया। डॉ मोहन भागवत ने कि क्या यह हिंदु पुनरुत्थान के लिए एक उपयुक्त समय था पर बात की। उन्होंने सभी मनुष्यों की समानता के विषय में परम पावन दलाई लामा की टिप्पणी को स्वीकार किया तथा हिन्दू को एक ऐसे मानव के रूप में पारिभाषित किया जो हर विविधता में एकता देखता है। उन्होंने कहा कि हिंदुओं को जो योगदान देना है वह उनके मूल्य हैं।
आयोजन समिति के उपाध्यक्ष, नरेश कुमार ने विस्तृत रूप और उपयुक्त शब्दों में धन्यवाद ज्ञापित करते हुए विश्व हिन्दू कांग्रेस के पहले सत्र का समापन िकया।