धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश, भारत - १३ सितम्बर २०१४ (OHHDL) - परम पावन दलाई लामा विशेष रूप से भारत के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण उन मुद्दंों पर, जिसके कारण आज का हमारा समाज पीड़ित है, चर्चा करने के लिए भारत की विविध आध्यात्मिक परम्पराओं की सम्मेलन बुलाने वाले हैं। यह ऐतिहासिक सम्मेलन नई दिल्ली में २० और २१ सितंबर २०१४ को आयोजित की जाएगी।
यह महान् राष्ट्र, आर्यावर्त भारत, विश्व की एक महानतम सभ्यता की जन्मस्थली ही नहीं अपितु कई दार्शनिक सिद्धान्तों, अध्यात्म तथा आस्था की परम्पराओं के उदय में सहायक भी रहा है। इसी राष्ट्र में सांख्य, योग, वैशेषिक, न्याय, पूर्व तथा उत्तर मीमांसा, बौद्ध, जैन और चार्वाक जैसे दार्शनिक सिद्धान्त परस्पर व्यापक संवाद तथा शास्रार्थ से उभरे और विकसित होते हुए परिष्कृित के उच्च स्तर तक पहुँच पाये। उसी तरह विश्व की अनेक महान् आध्यात्मिक परंपरायें भारत में उत्पन्न हुईं - वैदिक, शैव, वैष्णव, जैन, बौद्ध साथ ही साथ कबीर और सिख। इन स्वदेशी परम्पराओं के अतिरिक्त ईसाई, मुस्लिम, पारसी, यहूदी और बहायी भी भारत में प्रविष्ट हुये और फैले। इसलिए भारत आध्यात्मिक बहुलता एवं सद्भाव के सच्चे आदर्श के रूप में प्रस्थापित हुआ है। इस तरह विश्व के अधिकांश धर्म और आध्यात्मिक परम्परायें एक साथ शांति से रह रहे हैं और सदियों से आपसी सद्भाव तथा आदर के साथ फल फूल रहे हैं।
परम पावन दलाई लामा पिछले पचपन वर्षों से नियमित रूप से भारतीय आध्यात्मिक गुरुओं, विद्वानों और कार्यकर्ताओं से मिलते रहे हैं और अनगिनत संवादों में लगे हुए हैं। इन विनिमयों एवं प्रयासों के अनुभव से इस 'विविध आध्यात्मिक परम्परायें' नामक सम्मेलन का विचार उत्पन्न हुआ है। हम इस महान् राष्ट्र भारत में प्रतिनिधित्व करती विश्व की महान् आध्यात्मिक परम्पराओं के मध्य महत्त्वपूर्ण सामूहिक वार्तालाप के लिए एकत्रित होने के आधार के रूप में सर्वसाधारण के चिन्तन हेतु निम्नलिखित बिन्दुओं को अर्पित करते हैं-
करुणा, सहिष्णुता, क्षमा और आत्म-अनुशासन जैसे आधारभूत मानवीय मूल्यों को लोगों के बीच बढ़ावा देने की आवश्यकता।
मानव इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि संवाद ही हिंसा को रोकने और संघर्ष का समाधान खोजने में सबसे प्रभावी मार्ग है। संवाद की भावना, जो महान आध्यात्मिक प्रवचनों के हृदय में बसती है, को आज के अन्योन्याश्रित और परस्पर सम्बद्ध विश्व में बढ़ावा देना।
धनवानों और निर्धनों के मध्य खाई के प्रति ध्यान दिया जाना चाहिए। क्योंकि यह अन्याय और हिंसा सहित अनेक मानव संकटों का संभावित स्रोत है।
२१वीं शती एक बहुत सभ्य शताब्दी के रूप में कल्पित की गयी है, जहाँ शिक्षा शारीरिक ताकत से अधिक सम्मानित है। महिला, जो जनसंख्या की आधी है, के प्रति भेदभाव पिछड़ेपन का स्पष्ट संकेत है। महिलाओं को सशक्त करना होगा, जिससे कि उन्हें समान सम्मान ही नहीं मिलेगा अपितु विश्व की भलाई के लिए अपनी पूर्ण क्षमता अभिव्यक्त करने में सक्षम भी होगी।
यह पृथ्वी ग्रह लगभग सात अरब मनुष्यों का एकमात्र घर है। जागरूकता पैदा करना आवश्यक है, जिससे कि हम इसे नष्ट न करें और नदी, समुद्र तथा वन सहित प्राकृतिक पर्यावरण का पूर्ण ख्याल रखें तथा प्राकृतिक सम्पदा के दोहन में संयम बरतें।
कुछ प्रचलन और कर्मकाण्ड समय के परिवर्तन के साथ सभी संस्कृतियों और आध्यात्मिक परम्पराओं में अप्रासंगिक हो गये हैं। इस प्रकार की पुरानी रीति रिवाजों तथा कर्मकाण्डों के पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता है।
पूरे विश्व में नैतिक मूल्यों के ह्रास में तीव्र वृद्धि आधुनिक शिक्षा नीति में अपूर्णता का स्पष्ट संकेत है। हमें शिक्षा नीति में नैतिकता के परिचय को सुनिश्चित एवं लागू करने की आवश्यकता है, जो धर्म को न मानने वाले सहित सभी परम्पराओं को स्वीकार्य हो।
सभी धार्मिक और आध्यात्मिक परम्पराओं में आंतरिक शान्ति और सामाजिक सद्भाव पोषण की क्षमता विद्यमान है, क्योंकि विश्व समता, विकास और हम और हमारे ग्रह के अन्योन्याश्रित भविष्य के विविध मुद्दों में संलग्न है। दुःख की बात यह है कि इनमें कलह और असद्भाव की क्षमता भी है। फिर भी आध्यात्मिक और धार्मिक परम्पराओं का यह दायित्व है कि व्यक्तिगत अन्तर को परे रखकर प्राकृतिक आपदाओं और मानव निर्मित संकटों और संघर्षों से उबरने और सामना करने के लिए शक्तिशाली बनें।
एक ऐसे तंत्र की सख्त आवश्यकता है, जिससे हम एकजुट होकर मध्यस्थता, सलाह, नैतिक अधिकार के साथ समर्थित सहायता और साथ ही धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की रूपरेखा प्रदान कर सकें। यह जरूरी है कि हम ऐसी रणनीतियाँ विकसित करके लागू करें, जो हमारे साझा भविष्य की भलाई के लिए एकजुट होकर कार्य करने में सक्षम बनायें।
उपर्युक्त बिन्दुओं, जो मुद्दों की प्रकृति के दृष्टान्त हैं और जिनका आज का विश्व सामना कर रहा है, के साथ हम स्वागत करते हैं यदि प्रतिभागियों की ओर से और बिन्दु प्रस्तुत किये जायें, जो सम्मेलन तथा उसके विचार-विमर्श में प्रासंगिक हो।
इस बीच वैसे भी सभी आध्यात्मिक परम्पराओं के मध्य सद्भाव आवश्यक है, इसलिए परम पावन दलाई लामा जी द्वारा विभिन्न धर्मों के बीच सद्भाव को बढ़ावा देने हेतु सुझाये गये निम्नलिखित चार उपायों का उल्लेख करना सार्थक लगता है-
विभिन्न सम्प्रदाय के विद्वानों की बैठकः विभिन्न सम्प्रदाय के बीच समानतायें और साथ ही साथ भिन्नतायें दृष्टिगोचर होने से मनुष्यों के विविध मानसिक स्वभाव के अनुरूप विभिन्न दृष्टिकोणों की आवश्यकता की समझ एवं स्वीकृति के प्रोत्साहन में सहायता मिलेगी।
विभिन्न सम्प्रदाय के साधकों की बैठकः विभिन्न सम्प्रदायों के साधकों के मध्य सहृदयता, क्षमा, करुणा, संतोष और आत्म-अनुशासन जैसे साझा आध्यात्मिक अनुभव से इस तथ्य पर प्रकाश डालेंगे कि तत्त्वतः सभी सम्प्रदाय के अपने संदेश में समानता है। इससे अन्य सम्प्रदायों के प्रति वास्तविक सम्मान उत्पन्न होगा।
आध्यात्मिक गुरुओं का सम्मेलनः आध्यात्मिक गुरुओं के एक स्वर में "शान्ति" के समर्थन में एक साथ एक ही मंच पर आने से उनके अनुयायियों में एकात्मकता और अविभाजित होने की अनुभूति को बढ़ावा देगा।
विभिन्न सम्प्रदाय के लोगों की सभी आध्यात्मिक परम्पराओं के पवित्र स्थलों की सामूहिक तीर्थयात्रा।
सभी मुख्य आध्यात्मिक परम्पराओं ने विभिन्न मानव समस्याओं के प्रति लंबे समय से सांत्वना तथा विविध समाधान प्रदान किया है। उनके भीतर ही गरीबी, अपराध तथा हिंसा, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की बढ़ोत्तरी, पर्यावरण की क्षति, शैक्षिक तथा स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी आदि अनेक सामाजिक बुराईयों से निपटने के लिए वे ज्ञान तथा संसाधन विद्यमान हैं। नैतिकता, जो सभी संस्कृति और परम्परा की कसौटी है, से ही इन सामाजिक समस्याओं का हल निकाल सकते हैं और मानव समाज को रचनात्मक विकास कर सकते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि प्रज्ञा, करुणा तथा अहिंसक साधनों के माध्यम से मानव समस्याओं और पर्यावरणीय मुद्दों का समाधान ही नहीं अपितु अधिक शान्तिपूर्ण, सद्भावनापूर्ण और सुखी समाज की ओर अग्रसर हो सकते हैं।