नागपुर, महाराष्ट्र, भारत - ९ जनवरी २०१४ - सड़क के बगल में खड़े लोगों ने बौद्ध और तिब्बती झंडे लहरा कर और उनकी गाड़ी पर गुलाब की पंखुड़ियाँ बिखेर कर कल नागपुर में परम पावन दलाई लामा का स्वागत किया। डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहुँचने के बाद वे सीधे गाड़ी से नागलोक के बौद्ध प्रशिक्षण और सम्मेलन केंद्र के लिए रवाना हुए। अपने भगवा धर्म चीवर धारण किए हुए उन्होेंने चलते बुद्ध की ३६ फुट प्रतिमा के समक्ष सम्मान व्यक्त किया। ऐसी प्रतिमा, जो डॉ. अंबेडकर के अनुसार सभी सत्वों के कल्याण के लिए करुणाशील गतिविधि की अभिव्यक्ति का साकार रूप थी और जिसके कारण वह उन्हें विशेष प्रिय थी। परम पावन ने प्रदक्षिणा करने के पूर्व प्रतिमा के चरणों पर पुष्प बिखेरे। उन्होंने सुझाव दिया कि यदि बुद्ध की शिक्षाओं से उद्धरण भी आसपास के क्षेत्र में प्रदर्शित किए जाएँ तो लाभकर होगा। अगला, परम पावन ने स्वतंत्र भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान, जिसके वे नियमित प्रशंसक और सराहना करते हैं, के वास्तुकार डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर की मूर्ति के समक्ष अपना सम्मान जताया।
प्रातः और प्रारंभिक दोपहर के दौरान, परम पावन ने कई राज्यों के भारतीय बौद्ध समुदायों के प्रतिनिधियों और बौद्ध छात्रों के साथ भेंट की, जो नागलोक में अध्ययन कर रहे हैं।
"मैं मात्र एक और मनुष्य हूँ", उन्होंने कहा, "मैं जहाँ भी जाता हूँ एक अधिक सुखी मानवता किस प्रकार बनाई जाए, पर बोलता हूँ। यदि हम लोगों को और अधिक करुणाशील जीवन जीने के लिए शिक्षित करें तो मुझे लगता है कि शोषण, धमकी देने और छल के लिए कोई स्थान न होगा। हमारा दृष्टिकोण हमारे साझे अनुभव के आधार पर किया जाना चाहिए कि जब हम जन्म लेते हैं तो अपनी माँओं से स्नेह प्राप्त करते हैं जिसके बिना हम जीवित नहीं रह सकते। स्नेह का यह अनुभव हमें दूसरों के प्रति स्नेह जताने में सक्षम करता है जो कि ऐसे धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के प्रकार का आधार है, यह अनुभव समूची मानवता के लिए लाभकारी हो सकता है कि जो दूसरों के प्रति स्नेह दिखाने के लिए सक्षम बनाता है।"
उन्होंने कहा कि इस तरह के मानवीय मूल्यों को बढ़ावा देने के अतिरिक्त, आत्मविश्वास के विकास की आवश्यकता है। उन्होंने सोवेटो, दक्षिण अफ्रीका में एक काले अफ्रीकी परिवार में जाकर और उनसे नए लोकतंत्रीकरण देश में सुधार की संभावनाओं के बारे में उनसे बात की हुई एक कहानी सुनाई। उन्होंने कहा कि उन्हें विश्वास न हुआ जब वे शिक्षक जिनसे वे बात कर रहे थे, ने अपना सर हिला कर कहा, "हम गोरंों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते, हमारे दिमाग उनके जितने अच्छे नहीं हैं।" परम पावन ने उससे कहा कि यह सुनकर उन्हें दुख पहुँचा और उन्होंने ज़ोर दिया कि इस अथवा उस मनुष्य के समूह के मस्तिष्क की गुणवत्ता में कोई अंतर नहीं है। उन्होंने कहा कि महत्त्वपूर्ण बात है कि चित्त में मनुष्यों के बीच हमारी समानता की भावना को बनाए रखते हुए आत्मविश्वास का विकास करना।
परम पावन ने कहा आधारभूत मानव मूल्यों को बढ़ावा देने की अपनी प्रतिबद्धता के अतिरिक्त, एक बौद्ध भिक्षु के रूप में वह अंतर्धमीय सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए चिंतित हैं। उन्होंंने उल्लेख किया कि बुद्ध के समय में भी हर कोई बौद्ध नहीं हो गया था। बुद्ध अन्य परंपराओं के अनुयायियों के साथ सम्मानजनक संवाद और चर्चा में लगे हुए थे। उन्होंने दोहराया कि धर्मनिरपेक्ष नैतिकता, प्रेम, करुणा, सहिष्णुता और आत्म-अनुशासन के मूल्यों को अभिव्यक्त करता है जो सभी प्रमुख धर्मों में समान है।
परम पावन ने इंगित किया कि बौद्ध परम्परा का एक अनूठा अंग बुद्ध द्वारा अपने शिष्यों को दी गई सलाह है कि वे उनकी शिक्षाओं को उसी रूप में अथवा श्रद्धा के आधार पर स्वीकार न करें, परन्तु उनका विश्लेषण और जांच करें जैसे एक स्वर्णकार सोने की गुणवत्ता की परख करता है। उन्होंने कहा, "बुद्ध ने अपने अनुभव से जो सीखा उसी के आधार पर शिक्षा दी और अपने अनुयायियों से कहा आप स्वयं के स्वामी हैं।" परम पावन ने बार बार शिक्षा तथा अध्ययन के मूल्य का उल्लेख किया और इस बात पर बल दिया कि २१वीं सदी में बौद्ध अभ्यास और अधिक प्रभावशाली होगा यदि वह केवल विश्वास पर आधारित न होकर ज्ञान और समझ पर आधारित हो।
"यह देखना महत्त्वपूर्ण होगा कि नालंदा, जो मौलिक भारतीय परम्परा का साकार रूप था, जैसे स्थानों में बौद्ध धर्म का किस प्रकार अध्ययन और अध्ययन होता था। बुद्ध ने यह स्पष्ट किया कि हमें किसी व्यक्ति पर नहीं पर शिक्षा पर निर्भर होना चाहिए, मात्र शब्दों पर नहीं, अपितु उनके अर्थ पर, और नेयार्थ पर नहीं पर उनके नीतार्थ पर निर्भर होना चाहिए।"
मध्याह्न में परम पावन ने जनता की सभा के साथ बात की जो कि यद्यपि जल्दबाजी में बुलाई गई थी पर नागलोक का सभागार खचाखच भर उठा। वहाँ से वे नागपुर शहर में दीक्षा भूमि गए अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के िलए, वह स्थान, जहाँ १४ अक्तूबर १९५६ को डॉ अम्बेडकर और ५,००,००० अनुयायियों ने बौद्ध धर्म को गले लगाया था।
कल परम पावन भंडारा के तिब्बती आवास की यात्रा के लिए गाड़ी से जाएँगे।