नई दिल्ली, भारत - २० नवंबर २०१४ - अरावली की पहाड़ियों की सबसे उत्तरी भाग में स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर में आते हुए परम पावन दलाई लामा का कुलपति प्रो कस्तूरीरंगन, उप कुलपति प्रो एस के सोपोरी तथा प्रशासन के अन्य सदस्यों ने स्वागत किया। उन्होंने उन लोगों के साथ विचार-विमर्श के कुछ क्षण बिताए।
उसके बाद वे उन्हें १२०० से अधिक शामियाने मंडप के नीचे एकत्रित श्रोताओं के समक्ष मंच पर ले गए क्योंकि इतनी बड़ी संख्या का हॉल में स्थान पाना संभव न था। मुस्कुराते जन समुदाय के सागर की ओर देखते हुए उन्होंने अपना हाथ हिलाया। उनका सौहार्दपूर्ण तालियों की गड़गड़ाहट के साथ स्वागत किया गया।
इस अवसर का उद्घाटन पंडित नेहरू के चित्र के समक्ष दीप प्रज्ज्वलित कर किया गया। उप कुलपति प्रो एस के सोपोरी ने ध्यानाकर्षित किया कि इस वर्ष नेहरू के जन्म की १२५वीं वर्षगांठ है। उन्होंने विश्वविद्यालय की ओर से हर्ष व्यक्त किया कि परम पावन ११वें नेहरू स्मारक व्याख्यान देने के लिए सहमत हुए, और टिप्पणी की, कि पिछले वर्ष का १०वां व्याख्यान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने दिया और उसके पिछले वर्ष का व्याख्यान पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे कलाम द्वारा किया गया था। इस व्याख्यान का उद्देश्य मानवता, सहिष्णुता, विचारों की साहसिकता और सत्य की खोज के नेहरू के सिद्धांतों के अनुसार ज्ञान को आगे बढ़ाना व प्रसार करना है।
८००० से अधिक छात्रों और ५४० संकाय सदस्यों वाला विश्वविद्यालय, जो जवाहर लाल नेहरू के नाम पर है, में विभिन्न दृष्टिकोणों के लिए संवाद और सम्मान का लोकाचार है। कुलपति प्रो कस्तूरीरंगन ने कहा कि विश्वविद्यालय शांति और अहिंसा के भारत के कालातीत मूल्यों को पुष्ट करता है। उन्होंने भी परम पावन का स्वागत किया तथा आश्वासित किया कि उनका सम्बोधन उन्हें सुनने वालों को लाभान्वित करेगा।
"आदरणीय वरिष्ठ भाइयों तथा बहनों", परम पावन ने प्रारंभ किया, "और आप अन्य भाइयों और बहनों, मैं सदा इस बात पर बल देना चाहता हूँ कि एक आधारभूत मानवीय स्तर पर हम सब एक हैं। हम ७ अरब मनुष्य शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से एक समान हैं। निस्सन्देह, हमारी नाक के आकार या अपने बालों के रंग को लेकर हमारे बीच साधारण अंतर हैं, पर ये सब पूर्णतया गौण हैं। हम सब में एक ही प्रकार का मस्तिष्क है अतः राष्ट्रीयता, धर्म या रंग के आधार पर सीमांकन महत्वहीन है।"
उन्होंने कहा कि मानवता को और अधिक परिपक्व होने की आवश्यकता है। अधिकांश समस्याएँ, जिनका हम सामना करते हैं वे हमारे अपने बनाए हैं और धर्म तथा राष्ट्रीयता जैसे गौण विभिन्नताओं पर आधारित हैं। उन्होंने कहा कि तथ्य यह है कि हम सामाजिक प्राणी हैं, जिनका भविष्य ही अन्य प्राणियों पर निर्भर करता है।
"इसलिए मुझे सबको भाई और बहन के रूप में संबोधित कर प्रारंभ करना अच्छा लगता है।"
उन्होंने कहा कि इस अवसर पर व्याख्यान देने का निमंत्रण एक महान सम्मान के रूप में आया है। जवाहरलाल नेहरू एक महान भारतीय नेता थे, जिनका एशिया के लिए एक दूरगामी दृष्टि थी। यद्यपि भारत एक प्राचीन राष्ट्र है, पर १९४७ में नेहरू और महात्मा गांधी के नेतृत्व में इसे स्वतंत्रता मिली। उन दोनों में मतभेद थे पर फिर भी उन्होंने साथ मिलकर लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और अहिंसा पर आधारित एक राष्ट्र के रूप में भारत की स्थापना की। परम पावन ने टिप्पणी की:
"मैंने व्यक्तिगत रूप से पहली बार १९५४ में बीजिंग में नेहरू से भेंट की। यह चाउ एन लाइ द्वारा आयोजित राजकीय भोज में हुई थी, जिन्होंने अन्य अतिथियों से उनका परिचय कराया। जब वे मेरे पास आए और कहा 'यह दलाई लामा' हैं, नेहरु जड़वत, अवाक और निस्तब्ध हो गए। मैंने अनुभव किया कि उस क्षण उनका मन तिब्बत में विकास को लेकर उनकी चिंता और पटेल की चेतावनी से भर गया था। चाउ एन लाइ उनको उस अवस्था से निकालते हुए पंचेन रिनपोछे की ओर बढ़े, जो मेरे बगल में खड़े थे।"
"हमारी अगली भेंट १९५६ में बोधगया में बुद्ध जयंती समारोह के दौरान हुई। इस अवधि में मेरी नेहरू के साथ कई बैठकें हुईं और मैंने उनकी सलाह मांगी। १९५७ के प्रारंभ में मेरे कई सलाहकारों का सुझाव था कि मुझे तिब्बत न लौटकर भारत में रहना चाहिए । नेहरू ने मुझसे कहा कि मुझे तिब्बत लौटना चाहिए, और १७ सूत्रीय समझौते के खंडों पर प्रकाश डाला, जिनके पीछे मुझे लगे रहना चाहिए। मैं वापस लौटा और उनकी सलाह को व्यवहार में लाने का प्रयास किया। जैसे ही मैं यातुंग पहुँचा, मैंने चीनी अधिकारियों को बताया कि जो गलतियाँ हुईं थीं उन्हें सुधारने के प्रयास पर हमें अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।"
"जब सब कुछ विफल हुआ और १९५९ में मैं पुनः भारतीय सीमा पर पहुँचा तो मैं उस समय तक अनिश्चित सा था कि क्या मैं भारत में प्रवेश करने में सक्षम हो पाऊँगा, जब तक कि मुझे एक संदेश प्राप्त हुआ कि भारत की सरकार मेरे आगमन का स्वागत करेगी। अप्रैल के अंत में मैं मसूरी पहुँचा और नेहरू मुझे देखने आए। मैंने जो कुछ भी घटा था, उसके बारे में उन्हें बताया और उन्होंने विशेष ध्यान दिया।"
"१९६० में उन्होंने मुझे सलाह दी कि हमें अंग्रेज़ी को एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा बनाना चाहिए, अपने विद्यालयों में अध्ययन के माध्यम के रूप में। उन्होंने कहा कि हमारी संस्कृति और परंपराओं की सहायता का मार्ग अपने बच्चों को शिक्षित करना है। नेहरू मेरे लिए एक महान समर्थक और मित्र थे, अतः यह मेरे लिए यहाँ इस अवसर पर बोलना एक सम्मान की बात है।"
परम पावन ने आगे अपनी तीन मुख्य प्रतिबद्धताओं की रूपरेखा प्रस्तुत की, उनकी यह भावना कि मनुष्य के रूप में हममें से प्रत्येक की मानवता की देखरेख करने का एक उत्तरदायित्व है। उन्होंने कहा कि दूसरों के प्रति चिंता व्यक्त करना आंतरिक शक्ति और गहरी संतुष्टि लाता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य को मैत्री की आवश्यकता पड़ती है पर मैत्री धन और शक्ति से नहीं आती, पर दूसरों के प्रति करुणा तथा चिंता दिखाने से आती है। उन्होंने कहा:
"मेरे चेहरे को देखिए, मेरे मित्र कहते हैं कि १५-२० वर्षों में इसमें अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है। इस पर आयु की रेखाएँ अंकित नहीं हुई हैं और लोग पूछते हैं कि इसका 'रहस्य क्या है?' मैं उनसे कहता हूँ 'मन की शांति'। और आज वैज्ञानिक भी इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि चित्त की शांति हमारे शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अच्छी है। लेकिन नींद की दवा, शराब, नशीली दवा या जुआ चित्त की शांति नहीं लाता। मेरी प्रथम प्रतिबद्धता इस जागरूकता का विस्तार करना है कि चित्त की शांति हमारे आंतरिक मूल्यों को परिष्कृत करने पर निर्भर करती है।"
"हम अत्यधिक भौतिकवादी हैं। भारत को यह दिखाने में नेतृत्व करना चाहिए कि भौतिक लाभ के अतिरिक्त हमें आंतरिक विकास की आवश्यकता है। हम इसे भारत के धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण के व्यवहार का पालन करते हुए पा सकते हैं, जिसमें सभी धर्मों के प्रति सम्मान की भावना है और उनके प्रति भी जिनका किसी धर्म में विश्वास नहीं। उन एक अरब लोगों को बाहर नहीं किया जा सकता; उन्हें भी यह जानने की आवश्यकता है कि सुख का आधार भीतर है। हमें और अधिक उपदेश की नहीं अपितु शिक्षा की आवश्यकता है। यदि हम उसमें सफल होते हैं तो हम इस शताब्दी को शांति और अहिंसा की शताब्दी बनाने में सक्षम हो सकते हैं। पर हम सब, विशेषकर आप जो युवा पीढ़ी के हैं, इसे लाने में उत्तरदायित्व बनता है।"
परम पावन ने समझाया कि भारत एक ऐसे राष्ट्र का जीवंत उदाहरण है, जहाँ सभी प्रमुख धार्मिक परम्पराएँ साथ साथ पनपती हैं। इस धरती की परम्पराएँ, जैसे हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सांख्य परम्पराएँ, पारसी, यहूदी, ईसाई और इस्लाम जो विदेशों से आई हैं, के साथ एक साथ रहती हैं। उन्होंने कहा कि वह नियमित रूप से यहाँ मौजूद सद्भाव का अनुकरण करने के लिए विश्व के अन्य भागों में लोगों को प्रोत्साहित करते हैं।
एक तिब्बती के रूप में, परम पावन की तीसरी प्रतिबद्धता तिब्बती लोगों के प्रति है, जो उन पर अपना विश्वास रखते हैं। २०११ और राजनीतिक कार्यों से सेवानिवृत होने के बाद उन्होंने तिब्बती संस्कृति, जो शांति और अहिंसा की संस्कृति है, और पर्यावरण की सुरक्षा के संरक्षण के लिए स्वयं को समर्पित किया है। चीन, जो सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है, को ऐसी सांस्कृतिक मूल्यों की आवश्यकता है।
"ये मेरी प्रतिबद्धताएँ हैं और मैं आपसे सम्पूर्ण मानवता की व्यापक चिन्ताओं के विषय में सोचने का आग्रह करता हूँ। अपने दृष्टिकोण को सीमित न रखें कि भारत या उसमें निहित राज्य विशेष की क्या आवश्यकताएँ हैं। प्राचीन समय के शिक्षक जैसे बुद्ध आदि ने समूचे िवश्व के संदर्भ में सोचा। चीन की जनसंख्या सबसे अधिक हो सकती है, पर आपके पास लोकतंत्र, स्वतंत्रता, और कानून का शासन है - शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए उन्हें काम में लाएँ।"
श्रोताओं से प्रश्न आमंत्रित करते हुए, परम पावन से प्रश्न किया गया कि क्या बुद्ध की तरह का शिक्षण आज उपयुक्त है। उन्होंने उत्तर दिया कि हाँ है, और उन्होंने बुद्ध को उद्धृत किया जिन्होंने अपने अनुयायियों से कहा कि वे भक्ति के आधार पर उनके शिक्षण को जस का तस न लें, पर उसका परीक्षण करें और उससे प्रयोग करें, एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएँ। जहाँ एक ओर विज्ञान भौतिक वस्तुओं के संबंध में बहुत कुछ सिखा सकता है, वहीं प्राचीन भारतीय मनोविज्ञान के पास चित्त तथा भावनाओं के बारे में सिखाने के लिए बहुत कुछ है। यह पूछे जाने पर कि क्या बौद्ध परंपरा का वैज्ञानिक निष्कर्ष के आलोक में पुनर्मूल्यांकन किया जा सकता है, परम पावन ने ब्रह्माण्ड विज्ञान का उदाहरण दिया जहाँ विज्ञान स्पष्ट रूप से शास्त्रों के विपरीत है।
तिब्बत के प्रति उनके विचार और चीन के साथ संबंधों की संभावनाओं के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने रुककर उत्तर दिया कि ये राजनीतिक प्रश्न थे। उन्होंने आगे कहा कि चीन में परिवर्तन हो रहा है और शी जिन पिंग ने फ्रांस और फिर दिल्ली में कहा कि चीनी संस्कृति में बौद्ध धर्म की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। तिब्बत आध्यात्मिक रूप से उन्नत है, पर वहाँ भौतिक विकास की आवश्यकता है। वह चीन के साथ संबंधों से लाभ उठा सकता है।
वैश्विक विकास के संबंध में, परम पावन ने जलवायु परिवर्तन और धनवानों और निर्धनों के बीच की खाई के विषय पर सोचने की ओर गंभीर कदम उठाने की सलाह दी। उन्होंने प्राथमिक स्तर पर ग्रामीण क्षेत्रों के विकास को प्रोत्साहित करने की सिफारिश की, जहाँ भारत के संदर्भ में अधिकांश लोग निवास करते हैं। उन्होंने शिक्षा के महत्व को दोहराया और धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के आधार पर एक पाठ्यक्रम तैयार करने के लिए एक अग्रिम परियोजना के विकास का उल्लेख किया। आधारभूत बात यह है कि स्नेह, सौहार्दता हमें सुख देता है; मात्र धन ऐसा नहीं कर सकता।
जैसे अवसर का समापन हुआ और परम पावन ने प्रतिभागियों को खाता, रेशमी स्कार्फ भेंट किया, उन्होंने समझाया कि उपहार के मूल में भारतीय परंपरा द्वारा दुशाला देना है, रेशमी कपड़े का उद्भव चीन में हुआ था और उस पर अंकित मंगल छंद तिब्बती है - सद्भाव का प्रतीक। परम पावन ने रेणुका सिंह द्वारा संकलित उनके धर्मनिरपेक्ष नैतिकता पर दिए गए वार्ताओं की एक नई पुस्तक का विमोचन किया। प्रो-चांसलर, प्रो प्रसेनजीत सेन के धन्यवाद शब्दों का अंत, शिक्षा के माध्यम से मानव आवश्यकताओं की सेवा हेतु सभी संबंधित पक्षों से एक अपील के साथ समाप्त हुआ। बाहर निकलते हुए परम पावन से विश्वविद्यालय के तिब्बती छात्रों के एक समूह ने भेंट की और वह उन्हें प्रोत्साहन और सलाह देने के लिए थोड़ा रुके।