मुंडगोड, कर्नाटक, भारत - दिसम्बर २५, २०१४ - मुंडगोड, तिब्बती आवास के दूसरे छोर पर डेपुंग गोमंग मंगोलियायी छात्रों के िलए नए छात्रावास का उद्घाटन करने के आमंत्रण पर परम पावन दलाई लामा आज प्रातः गदेन जंगचे के परिसर से गाड़ी से बाहर निकले। रास्ते में उन्होंने एक दो और स्थानों की यात्रा की।
पहला पड़ाव गदेन लाची था, जहाँ वर्तमान विहाराध्यक्षों ने उनका स्वागत किया। उन्होंने पहले मंदिर में प्रतिष्ठापित विभिन्न मूर्तियों का निरीक्षण िकया और उनके समक्ष नवनीत दीप प्रज्ज्वलित किया। संरक्षक मंदिर में पारम्परिक रूप से जे चोंखापा के सिद्धांत के रक्षक धर्मराज की मूर्ति को एक नया कवच समर्पित िकया गया।
अगला पड़ाव डेपुंग लाची था। भिक्षु और आम लोग, युवा व वृद्ध परम पावन को जाते हुए देखने के लिए मार्ग पर पंक्तिबद्ध खड़े थे। संरक्षक मंदिर जाने और संक्षिप्त प्रार्थना के पूर्व वे मंदिर गए तथा पुनः वहाँ प्रतिष्ठािपत मूर्तियों का परीक्षण किया और उनके समक्ष अपनी श्रद्धा व्यक्त की। मंगोलियाई छात्रों के लिए नए छात्रावास पहुँच कर उन्होंने एक स्मारक पट्टिका का अनावरण किया और बरामदे में अपना आसन ग्रहण िकया। सम्प्रति गोमंग में आंतरिक मंगोलिया सहित विभिन्न मंगोलियाई क्षेत्रों से करीब ४०० छात्र हैं, और आशा है कि उनमें से करीब २०० लोगों को छात्रावास में स्थान मिलेगा। भिक्षुओं तथा आम लोगों की सभा को संबोधित करते उन्होंने कहा:
"हम तिब्बती शरणार्थी बने और आप मंगोलियाइयों को पुनः अपनी स्वतंत्रता प्राप्त हुई। चूँकि हमने अपने शरणार्थी आवासों में शिक्षण संस्थानों की पुनर्स्थापना की थी, एक बार जब आप ऐसा करने में स्वतंत्र हुए तो आप यहाँ आकर अध्ययन कर सके। तिब्बत की तरह आपका देश परंपरागत रूप से बौद्ध देश है और साम्यवाद युग के दौरान आपने अपना विश्वास बनाए रखा इसलिए स्वतंत्रता की पुनः प्राप्ति के बाद आप इसे पुनर्जीवित करने में सक्षम थे। मंगोलियाई राजदूत, प्रायोजकों और भिक्षुओं के माता-पिताओं की उपस्थिति में, मैं इस नए छात्रावास का उद्घाटन करने में सक्षम होने के लिए प्रसन्न हूँ। आप सभी को मेरा अभिनन्दन।"
उन्होंने कहा कि तिब्बत और मंगोलियाई क्षेत्र, दोनों ने नालंदा परंपरा को बनाए रखा है जिसमें २० से अधिक वर्षों का कड़ा अध्ययन शामिल है। इसका एक महत्वपूर्ण बिंदु तर्क तथा युक्ति का उपयोग है। इस समय परम पावन को पारम्परिक मंगोलियाई विशिष्टता, घोड़ी के दूध का एक कटोरा प्रस्तुत किया गया जिसको उन्होंने एक चौड़ी मुस्कान के साथ पिया। उन्होंने एक सूत्र का उल्लेख किया जिसमें भविष्यवाणी थी कि बुद्ध की शिक्षाएँ उत्तर से उत्तर में जाएँगी। कुछ ने पहले उत्तर को तिब्बत के रूप में इंगित कर व्याख्यायित िकया है और दूसरे उत्तर को मंगोलिया। तिब्बत में, टाशी खिल और कुबुम, साथ ही तीन पीठों और टाशी ल्हुन्पो में मंगोलियाई छात्र थे जिनमें से सभी बड़े परिश्रम से अध्ययनरत थे। उन्होंने कई नामों का उल्लेख किया और उनके अपने शास्त्रार्थ सहायकों में से सर्वश्रेष्ठ, एक विद्वान जिनका नाम ङोडुप छोकञी था, जो मध्यमक दृष्टिकोण के प्रति समर्पित था और जो परम पावन का बहुत बड़ा सहायक था, का स्मरण किया।
"विश्व की धार्मिक परम्पराओं में बौद्ध धर्म तार्किक परीक्षण के अपने उपयोग के लिए अनूठा है," परम पावन ने कहा। "नालंदा परम्परा आज की उपलब्ध बुद्ध की शिक्षाओं की सबसे व्यापक प्रस्तुति है। यह चित्त तथा भावनाओं के ज्ञान को शामिल करती है जो न केवल मंगोलियाई और तिब्बतियों के लिए उपयोगी है अपितु समूची मानवता के लिए संभावित लाभ की है, और यही कारण है कि कई वैज्ञानिक इसमें रुचि ले रहे हैं। परन्तु इस परंपरा को संरक्षित रखने का एक ही रास्ता अध्ययन और अभ्यास है। आप भारत में अध्ययन करने के लिए इतनी दूर से आए हैं, कठोर परिश्रम कीिजए। मैं आशा करता हूँ कि जब आप अपना अध्ययन समाप्त कर लेंगे तो आप में से कुछ यहाँ अध्यापन करेंगे, आप में से कुछ घर वापस आएँगे।"
मंगोलियाई छात्रों के छात्रावास से कम दूरी पर ही परम पावन ने येलो रिनपोछे, एक गोमंग अवतरित लामा द्वारा स्थापित एक ध्यान केंद्र का उद्घाटन किया। वे उलन - उदे जो बुर्यातिया की राजधानी है और रूसी संघ के मंगोलियाई गणराज्यों में से एक है, में आवासीय बौद्ध शिक्षक हैं। परम पावन ने फीता काटा तथा पुस्तकालय का दौरा किया।
गदेन जंगचे महाविहार में लौटने पर परम पावन ने 'विमुक्ति हस्त धारण' का अपना पाठ जारी रखा। उन्होंने कहा:
"शिक्षा प्रारंभ करने से पूर्व बुद्ध की स्तुति के पाठ की एक प्रथा है जिसे मैंने खुनु लामा रिनपोछे से ग्रहण िकया। वह सहजता से विभिन्न छंदों का पाठ करते थे, जिसे करने में मैं असमर्थ हूँ। मैं मात्र नागार्जुन के 'मूल मध्यमक कारिका' से वंदना के प्रारंभिक छंदों का पाठ कर सकता हूँ, जो मैं जागते ही करता हूँ और कभी कभी उस समय जब मैं सो नहीं पाता।"
जिसने प्रतीत्य समुत्पाद,
अनिरोध, अनुत्पाद,
अनुच्छेद, अशाश्वत,
अनागम, अनिर्गम,
अनेकार्थ, अनानार्थ,
प्रपञ्च उपशम, शिव की देशना दी है,
उस सम्बुद्ध को प्रणाम करता हूँ, जो वक्ताओं में श्रेष्ठ है।
लमरिम ग्रंथ में दैनिक चर्या से संबंधित सलाह दी गई है, प्रयोग धर्म जैसे कमरे की स्वच्छता, वेदी को सजाना, भेंट की वस्तुओं का संयोजन तथा शरीर और प्रेरणा को अनुकूल करना। परम पावन ने टिप्पणी की, कि शील, समाधि तथा प्रज्ञा के तीन शिक्षा अन्य आध्यात्मिक परंपराओं में देखे जा सकते हैं, विशेषकर वे जिनका उद्गम भारत में हुआ है। जब इन तीन शिक्षाओं का पालन शून्यता की समझ के साथ बौद्ध धर्म में पाया जाता है, तो वे तीन अधिशिक्षा के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने सलाह दी िक बौद्धों को दीर्घ काल तक अभ्यास करने की आवश्यकता है और जितना समय लगे उतने समय तक दृढ़ता पूर्वक लगे रहना चािहए। उन्होंने कहा कि इसका अर्थ व्यावहारिक और यथार्थवादी होना है।
मध्याह्न भोजन के पश्चात, पाश्चात्य लोगों की तरफ दृष्टि करते हुए परम पावन ने बड़े ही उत्साह से उन्हें 'क्रिसमस' की मंगल कामना दी और उन्हें छेड़ते हुए कहा कि वे अपने बड़े खाने का स्मरण कर रहे होंगे। उन्होंने 'विमुक्ति हस्त धारण' का पाठ जारी रखा। उन्होंने कहा कि यह कल्पना करना कि जो शास्त्रीय ग्रंथ में निहित है उसके अतिरिक्त कोई चामत्कारिक निर्देश है, एक भूल है। जे चोंखापा कहते हैं कि कोई अन्य निर्देश नहीं है। हमें जो करना है वह शास्त्रीय ग्रंथ जो कहते हैं उनका अध्ययन है और उनका मार्ग में क्रियान्वयन है। वही वास्तविक चमत्कार है जो हृदय को द्रवीभूत करता है।
"यहाँ तीन महाविहारों में आप २० वर्षों से अथवा उससे अधिक समय के लिए अध्ययन करते हैं, पर आप जो शास्त्रीय ग्रंथों में अध्ययन करते हैं उसके अतिरिक्त कोई रहस्यपूर्ण निर्देश नहीं है। पिछली सदी में 'चो' का एक महान अभ्यासी था जो कई अनुयायियों को आकर्षित किया करता था। जब ये तीन पीठों को प्रभावित करने लगा, तो तोंगपोन रिनपोछे ने बहुत आलोचना की। इसके बाद १३वें दलाई लामा ने गेलुगपा के वरिष्ठ भिक्षुओं के िलए और कड़ी परीक्षा और चयन प्रक्रिया की सख्त व्यवस्था प्रारंभ की। गदेन ठिपा येशी वांगदू प्रथम थे जिन्हें इस नई व्यवस्था में ऊपर उठाया गया।"
परम पावन ने उल्लेख किया कि जे चोंखापा लगातार मूल स्रोत भारतीय ग्रंथों का संदर्भ देते थे। उन्होंने कहा कि उन्होंने नालंदा के १७ महापंडितों की स्तुति में रचित प्रार्थना में इस के प्रति श्रद्धार्पण किया है। उन्होंने टिप्पणी की, कि यद्यपि प्रतिस्थापित अभ्यास १६ अर्हतों का आह्वान करना है, परन्तु १७ महापंडितों का योगदान प्रत्यक्ष रूप से बहुत अधिक प्रभावी है। उनका लेखन हमें सत्य द्वय को समझने में सहायक है जैसा परम पावन ने लिखा है। उन्होंने कहा:
"हम नालंदा परम्परा के उत्तराधिकारी हैं और आप जो अब इन महाविहारों में अध्ययन कर रहे हैं, इस परम्परा को आगे ले जाएँगे। यदि इस परम्परा में यहाँ गिरावट आती है, तो यह पूरी तरह लुप्त हो जाएगी।"
कल, प्रवचन को जारी रखने के अतिरिक्त परम पावन द्वारा भारत में िदए गए प्रथम प्रवचन की ५५वीं वर्षगांठ पर उनके िलए एक दीर्घायु प्रार्थना की जाएगी।