मुंडगोड, कर्नाटक, भारत - दिसम्बर २४, २०१४ - परम पावन दलाई लामा जो गदेन जंगचे महाविहार में महान पथक्रम पर प्रवचन दे रहे हैं, ने अपने प्रवचनों के दूसरे दिन कहा कि "गुरु द्वारा पाठ किए जा रहे इस प्रार्थना में आता है कि शिक्षा की ध्वनि जो हमारी भावनाओं को शांत करती है, इससे अधिक बेहतर सुनने के िलए कुछ भी नहीं है। यह शिक्षाएँ न केवल उन भावनाओं की ओर संकेत करती हैं जो हमारे चित्त को उद्वेलित करती हैं, पर यह भी बताती हैं कि िकस प्रकार उनका विरोध किया जाए। हम दुख नहीं चाहते और एक मनुष्य होने के नाते हम उसे टालने के िलए अपनी बुद्धि का उपयोग कर सकते हैं। भाषा का विभिन्न रूपों में उपयोग किया जा सकता है। हमें उसका उपयोग लाभ के िलए करना चािहए। वह आध्यात्मिक शिक्षण जो हमें हमारे अनियंत्रित चित्त को वश में करने में हमारी सहायता करता है, वही बुद्ध की शिक्षा है।
"चित्त की प्रकृति प्रभास्वर और जागरूक है। यह जानते हुए हम अपने बाहरी क्लेशों, उद्वेलित करने वाली भावनाएँ जो हमारे वास्तविक शत्रु हैं, को दूर कर सकते हैं। बुद्ध चमत्कार करने में सक्षम थे, पर उन्होंने अपनी वाणी के माध्यम से हमें अपनी भावनाओं के साथ निपटने की सीख देने में सक्षम किया। विगत २६०० वर्षों पूर्व जब उन्होंने भारत में शिक्षा दी तब से कइयों ने मुक्ति और प्रबुद्धता प्राप्त की है। उन्होंने ज्ञान के अवरोधों पर काबू पाया और बुद्धत्व प्राप्त किया।"
परम पावन ने टिप्पणी की, कि मात्र भौतिक विकास सुख का मार्ग नहीं है। हमें दुख के स्रोत, वे बाधाएँ जो हमें पीड़ित करती हैं और उन्हें किस प्रकार रोका जाए, को जानने की आवश्यकता है। जे चोंखापा ने कहा था कि बुद्ध के सभी क्रिया कलापों में उनकी वाणी अग्रगण्य थी और उनकी देशनाओं में सबसे अधिक प्रभावी प्रतीत्य समुत्पाद था। परम पावन ने जोड़ा कि जहाँ हृदय सूत्र का पाठ करना अच्छा है जैसा कि अभी किया गया है, यह जानना कि उसका क्या अर्थ है, अधिक महत्वपूर्ण है। जैसा कि इसमें आता है कि त्रिकाल के सभी बुद्ध प्रज्ञा पारमिता पर निर्भर रहे हैं। इसके अतिरिक्त प्रेम और करुणा क्रोध का मुकाबला करने में प्रभावी होते हैं, परन्तु अज्ञानता का विरोध करने में प्रभावहीन हैं।
हृदय सूत्र स्पष्ट करता है कि न केवल व्यक्ति स्वभाव सत्ता से रहित होता है, पर स्कंध भी शून्यता की प्रकृति रखते हैं। रूप का कोई वस्तुनिष्ठ अस्तित्व नहीं होता। जैसा कि रथ का सप्त रूपी विश्लेषण दर्शाता है वस्तुओं का अस्तित्व मात्र उनके ज्ञापित रूप में है। जे चोंखापा कहते हैं कि यह कठिन बिन्दु है।
परम पावन ने स्पष्ट किया कि "मैं शून्यता के अनुभव का कोई दावा नहीं करता, पर मुझे आभास होता है कि मैं ऐसा करने के कगार पर हूँ। यद्यपि वस्तुएँ स्वभाव सत्ता से रहित होती हैं, पर उनके अस्तित्व को हम नकार नहीं सकते।"
कल होने वाली अंतर्राष्ट्रीय गेलुगपा संघ की बैठक के संबंध में परम पावन ने बताया कि उन्होंने पहले से ही ठि रिनपोछे, विहाराध्यक्षों तथा पूर्व विहाराध्यक्षों से बात कर ली है, कि क्या करने की आवश्यकता है। उन्होंने बताया कि जहाँ अतीत में भिक्षु अपने खाली समय में अपने अध्ययन के बारे में बात करते थे, पर आजकल उनके नवीनतम फिल्म के बारे में बात करने की और अधिक संभावना है। दूसरी ओर अध्ययन पहले की तुलना में अधिक व्यापक है। महाविहार, जो अनुष्ठानों पर ध्यान केंद्रित करते थे अब अध्ययन करने के लिए अवसर प्रदान करते हैं।
परम पावन के प्रोत्साहन के कारण भिक्षुणियाँ परिश्रम के साथ अध्ययन कर रही हैं। परिणामतः अब ऐसी भिक्षुणियाँ हैं, जो अब गेशेमा की उपाधि प्राप्त करने वाली हैं। लोगों ने पूछा है कि क्या यह संभव है और परम पावन ने कहा कि उन्होंने उत्तर दिया कि यदि गेलोंग हैं तो गेलोंगमा भी हो सकती हैं, और चूँकि गेशे हैं इसलिए गेशेमा भी संभव हैं।
अपने श्रोताओं को विचार करने के लिए प्रोत्साहित करते हुए कि वे कल क्या चर्चा करेंगे, उन्होंने आशा व्यक्त की कि उनकी बैठक विश्व धर्म संसद की तरह नहीं होगी, जो उन्होंने एक नींद के अवसर जैसा पाया।
"प्रायः हम अपने कमियों को अनदेखा करने का प्रयास करते हैं। १९५६ में मैं भारत में था और मैंने पंडित नेहरु को बताया कि मैं यहीं रहना चाहता हूँ। परन्तु उन्होंने मुझे ल्हासा लौटने की सलाह दी। जब हम डोमो पहुँचे तो जो मुझसे मिले मैंने उन्हें बताया कि हमें जो करना है वह है हमारी कमियों पर चर्चा और दूसरों हमारी अच्छाइयों के िवषय में सोचें। यह आपकी कल की बैठक के लिए भी लागू होती है।"
"हमें यह पूछना होगा कि आजकल तिब्बती निर्वासन समुदाय से विहारों में इतने कम छात्र क्यों शामिल हो रहे हैं। तिब्बत से कुछ हैं और कई हिमालय के परवर्ती क्षेत्र से हैं। इस बीच मैं धर्मनिरपेक्ष स्कूलों में छात्रों को तर्क और शास्त्रार्थ का अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित करता रहा हूँ, जो मैं आशाा करता हूँ कि उन्हें प्रोत्साहित करेगा और उन्हें गौरवान्वित अनुभव करने हेतु कुछ देगा। जोखंग देखभाल करने वाले के समान मत रहो जो बैठा रहा, जबकि कोई अन्य प्रसाद खाता रहा और मंदिरों में से एक में आग लग गई।"
ज़ामर पंडित के बोधिपथ क्रम को खोलते हुए, जो सप्तांग चर्या की व्याख्या करता है, परम पावन ने कहा जब उपहार की बात आती है तो सर्वश्रेष्ठ, तुम्हारा अपना अभ्यास है। जब बुद्धों से धर्म की शिक्षा के लिए अनुनय करने के अंग की बात आती है तो उन्होंने सुझाया कि बुद्ध का यह कहना न्यायोचित होगा कि वे पहले ही ऐसा कर चुके हैं। उनकी दी हुई देशनाएँ कांग्युर संग्रह हैं। उन्होंने कहा िक गेन ञिमा गेलछेन और तोंगपोन िरनपोछे उन कुछ लोगों में से हैं जो वास्तव में उन संस्करणों को पढ़ेंगे।
'ज़ामर लमरिम' में एक बिंदु तक पहुँचने पर, जो त्याग या मुक्त होने की दृढ़ता को विकसित करने का उल्लेख करता है परम पावन ने जे चोंखापा के लघु ग्रंथ 'गुणों का आधारभूत' और पूरक के रूप में 'मार्ग के तीन प्रमुख अंग' में से छंदों के पाठ का सुझाव दिया।
"भोगने पर भी अतृप्त, सभी दुःखों का द्वार
अविश्वसनीय यह भव सम्पत् की
आदीनव को जानकर मुक्ति की सुख की
प्रबल इच्छा उत्पन्न हो।
चार शक्तिशाली नदियों के बहाव से बह,
दुर्निवार कर्म की गाढ बन्धनों से बँध
आत्मग्राह की लौह जाल में फँस
अविद्या की अन्धकार से पूर्ण रूपेण आवृत,
असीम भव चक्र में जन्म और पुनर्जन्म
निरंतर तीन दुखों से पीड़ित
इस प्रकार की स्थिति की
स्वभाव को जानकर महाचित्त उत्पाद करें।"
अपने गुरु को अन्य परम्पराओं के गुरुओं से घिरे हुए की भावना करने के वर्णन ने परम पावन को तिब्बत में अस्तित्व रखे सांप्रदायिकता के बारे में अपनी निराशा व्यक्त करने पर बाध्य किया। उन्होंने कहा कि वे इसे संकीर्णता का एक रूप मानते हैं। जैसे ही उन्होंने 'विमुक्ति हस्त धारण' खोला, उन्होंने कहानी सुनाई कि किस प्रकार उन्होंने अधिक सांसारिक होने का एक सक्रिय निर्णय लिया। कई वर्ष पूर्व एक वयोवृद्ध व्यक्ति परम पावन के पास काग्यु महामुद्रा से चित्त की प्रकृति के िवषय में शिक्षा की प्रार्थना करते हुए आया। उन्होंने इस अनुरोध को टालने में अत्यंत असहजता का अनुभव किया क्योंकि वे इसे पूरा करने में सक्षम न थे। उन्होंने उस व्यक्ति को खुनु लामा रिनपोछे के पास भेजा जो उस समय जीवित थे। समय के साथ उन्हें अन्य तिब्बती परम्पराओं, दिलगो खेंछे रिनपोछे, चोपज्ञे ठि रिनपोछे और अन्य लोगों से कई परम्पराएँ और अभिषेक प्राप्त हुईं।
परम पावन ने मध्याह्न का सत्र यह कहते हुए प्रारंभ कियाः
"उद्वेलित करने वाली भावनाओं के रोग की पहचान करना महत्वपूर्ण है। अधिकांश आध्यात्मिक परंपराएँ इस ओर चितंन नहीं करतीं, पर वे प्राचीन भारतीय परंपराएँ, जिनमें शमथ और विपश्यना के अभ्यास शामिल हैं, उनमें इसका एक संकेत है। वे चित्त और उसके प्रकार्यों की समझ रखे जान पड़ते हैं। हाल ही में आमंत्रित एक वी एच पी सम्मेलन में मैंने ध्यानाकर्षित किया कि किस प्रकार नालंदा जैसे विश्वविद्यालय में विपरीत दृष्टिकोणों के बीच शास्त्रार्थ होते थे जो पारस्परिक रूप से लाभकारी थे। मैंने उन्हें उनकी प्राचीन धरोहर का पुनरावलोकन करने के लिए प्रोत्साहित किया।"
उन्होंने महाविहारों में विगत १० वर्षों से प्रारंभ िकए स्वैच्छिक विज्ञान कार्यक्रम के बारे में बात की। उन्होंने कई युवा विज्ञान शिक्षकों द्वारा भिक्षुओं के प्रति व्यक्त की गई सराहना को उद्धृत किया। भाषा की कठिनाइयों और एकदम अलग शैक्षिक पृष्ठभूमि के बावजूद उन्होंने पाया कि भिक्षुओं में प्रबल युक्तिपूर्ण दृष्टिकोण और सशक्त निगमनात्मक शक्ति थी।
इस के विपरीत उन्होंने कहा कि आज अधिक से अधिक लोग अपनी उद्वेलित करने वाली भावनाओं को नकारात्मक रूप में नहीं देखते।
"उनकी ओर देखें जो दोलज्ञेल के अनुयायी हैं," उन्होंने कहा। "मुझे उनकी भ्रांत धारणाओं और गलतफहमी को देखकर दुख होता है। मैंने अपनी सलाह दी है, पर वे नहीं सुनते। यदि हम अपने आप को जे चोखांपा का अनुयायी मानते हैं तो हमें निष्पक्ष हो, युक्ति का पालन करना चाहिए। पर यदि बुद्ध स्वयं किसी को कुछ करने का आदेश नहीं दे पाए तो मैं ऐसा करने वाला कौन होता हूँ?"
अपने श्रोताओं को स्मरण कराते हुए कि बौद्ध केवल उपाधि अर्जित करने के लिए नहीं अपितु प्रबुद्धता प्राप्त करने के लिए अध्ययन करते हैं, उन्होंने टिप्पणी की, कि ऐसे शिक्षक हैं जो अपना प्रशिक्षण पूरा करते हैं और दूसरों को शिक्षित करते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान उनके ज्ञान में सुधार आता है। उन्होंने यह भी कहा कि शिक्षकों की दया के कारण वे एक साधारण रूप में दृश्य होते हैं, जो हमें उनसे शिक्षा ग्रहण करने की अनुमति देता है।
परम पावन कल दो ग्रंथों 'पथ क्रम' का पठन जारी रखेंगे।