गुवाहाटी, असम, भारत - फरवरी १, २०१४ - दिल्ली में प्रातः छाए कोहरे के बावजूद, परम पावन दलाई लामा के विमान ने आज प्रातः ठीक समय पर उड़ान भरी और समयानुसार असम की राजधानी गुवाहाटी में ठीक समय पर उतरी। उनके मेजबान वकील बुक स्टाल (एल बी एस) के भास्कर दत्त - बरुआ, जो जाने माने स्थापित असमिया प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता हैं, वहाँ उनके स्वागत के लिए उपस्थित थे। तिब्बती और असमिया लोग परम पावन का अभिनंदन करने के लिए प्रवाहशील ब्रह्मपुत्र के तट पर स्थित उनके होटल के बाहर एकत्रित हुए थे और दोनों समुदायों ने पारम्परिक रूप से उनका स्वागत किया।
मध्याह्न के भोजन के पश्चात मोटर गाड़ी से एक छोटी यात्रा तय कर परम पावन दलाई लामा शांति तथा धार्मिक समन्वय पर अंतर्धर्मीय सभा के आयोजन स्थल, रवीन्द्र भवन पहुँचे। इसके पूर्व कि वे मंच पर अपना स्थान ग्रहण करते, कुछ क्षणों तक उन्होंने आध्यात्मिक प्रतिनिधियों से भेंट की जिनके साथ वे मंच पर भाग लेने वाले थे। प्रोफेसर रंजीत देव गोस्वामी ने इस उद्घाटन के अवसर पर दीप प्रज्ज्वलन के लिए उन्हें आमंत्रित करने से पूर्व एक स्वागत भाषण दिया, जिसमें उन्होंने श्रोताओं से उनका परिचय करवाया।
रामकृष्ण मिशन चेरापूंजी के स्वामी सुमनासननंद महाराज ने पहली प्रस्तुति रखी। उन्होंने सनातन धर्म का संदर्भ दिया और उसकी तुलना विशाल बरगद के वृक्ष से की जो कइयों को शरण देता है, जबकि इसकी कई गुना जड़ें और शाखाएँ ईश्वर की ओर जाने के कई मार्गों का प्रतिनिधित्व करती है। उन्होंने श्री रामकृष्ण को उद्धृत किया, जिन्होंने अनुभव किया था कि सभी आध्यात्मिक मार्ग एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं और यह घोषित किया कि "जितने विश्वास उतने मार्ग।"
जोरहाट बुद्ध विहार के बौद्ध भिक्खु, आदरणीय बीमालंकुर महाथेरा असमिया में बोले, पर अंग्रेजी में टिप्पणी की, कि बौद्ध धर्म ने किसी भी आध्यात्मिक परंपरा में हस्तक्षेप नहीं किया अथवा न ही किसी को क्षति पहुँचाई। उनके बाद नतुन कमलाबारी सत्र, एक स्थानीय वैष्णव परम्परा के सत्रधिकार श्री नारायण चंद्र गोस्वामी, जो एक प्रख्यात साहित्यिक विद्वान हैं, ने भी असमिया में ही बात की।
गुवाहाटी के आर्कबिशप एमेरिटस फादर थॉमस मेनमपरम्पिल ने विभिन्न धर्मों के इस समूह को एक साथ लाने के लिए भगवान को धन्यवाद दिया। उन्होंने लोगों में करुणा के विकास को प्रोत्साहित करने के परम पावन के प्रयासों को स्वीकारते हुए कहा कि वे इसे हमारे विभिन्न आध्यात्मिक परंपराओं के बीच एक आम धरातल के रूप में देखते हैं। इस्लामी विद्वान डॉ. तौफीकुर रहमान बोरबोरा ने इस्लाम को एक शांति के धर्म के रूप में बताया और मुसलमान अभ्यास के पाँच वस्तुओं और छह सिद्धांतों की रूपरेखा दी। सिख परंपरा के ज्ञानी स्वर्ण सिंह ने, ग्रंथ से एक भावप्रवण पाठ के बाद पंजाबी में बात की और बताया कि ईश्वर का मार्ग बुद्धि के माध्यम से नहीं अपितु समर्पण के माध्यम से जाता है। उन्होंने दूसरों को परेशान किए बिना समाज में रहने के महत्त्व पर भी टिप्पणी की। उनके बाद जैन विद्वान, श्री कपूर चंद जैन ने सुझाया कि जैन धर्म की जड़ें पूर्व वैदिक भारत में हैं। इसका संबंध स्वयं को लेकर आत्मशुद्धि तथा दूसरों के संबंध में दूसरों को हानि न पहँुचाने की दृढ़ता के आधार पर अहिंसा से है।
उन्हें महापुरुष कहकर संबोधित करते हुए प्रोफेसर गोस्वामी ने परम पावन से बोलने का अनुरोध किया। उन्होंने मंच पर अपने आध्यात्मिक भाईयों का अभिवादन कर और दर्शकों में अपने भाइयों और बहनों का अभिनंदन करते हुए प्रारंभ किया। अपनी बात जारी रखते हुए वे बोले: "यद्यपि कहीं और जाते हुए मैं गुवाहाटी हवाई अड्डे से कई बार गुज़रा हूँ, पर ५५ वर्ष पूर्व तिब्बत छोड़ने के बाद औपचारिक रूप से मैं इस शहर की यात्रा हेतु पहली बार आया हूँ।
यह उचित ही है कि इस अवसर पर एक अंतर्धर्मीय कार्यक्रम को शामिल किया जाए और मैं इसे व्यवस्थित करने के लिए आयोजकों को धन्यवाद देना चाहूँगा। मैं प्रत्येक पूर्व वक्ताओं को भी हमें अपने धर्म का परिचय देने के लिए धन्यवाद कहना चाहूँगा।
"सभी प्रमुख धर्मों का मुख्य अभ्यास प्रेम है और उसे बाधाओं से बचाने हेतु हमें सहिष्णुता और क्षमा की आवश्यकता होती है। परिणामस्वरूप सभी प्रमुख धर्म करुणा, सहिष्णुता, संतोष और आत्मानुशासन के विषय में बात करते हैं। हमारे विभिन्न परंपराओं के आचार्य अपने शिक्षण में यथार्थवादी रहे हैं। चूँकि आत्मकेन्द्रिता प्रायः लालच की ओर जाती है, अतः उन सभी ने अपने जीवन में संतोष और सादगी के विकास की सलाह दी। पिछले ४० वर्षों में मुझे कई परंपराओं के शिक्षकों के साथ मिलने के कई अवसर प्राप्त हुए और मैंने सीखा कि हम सभी प्रेम की बात करते हैं। यदि हम इसे वास्तव में व्यवहार में लाते तो दोनों के बीच कोई अवरोध न होता और भ्रष्टाचार का कैंसर उत्पन्न नहीं हुआ होता। और सच कहूँ तो उनमें धार्मिक संघर्ष को जोड़ने के बिना भी विश्व में पर्याप्त समस्याएँ हैं।"
परम पावन ने स्पष्ट किया जहाँ एक व्यक्ति के स्वयं के व्यवहार के संदर्भ में एक सत्य, एक धर्म, बहुत सीमा तक अर्थवान है, पर समाज में एक व्यापक स्तर पर वास्तविकता यह है कि कई सत्य हैं और कई धर्म हैं। विश्व के कई भागों में ऐसे लोग रहते हैं जिनका अन्य धर्मों से अधिक संपर्क नहीं है। परन्तु भारत एक बहुलवादी, बहुधार्मिक समाज है जिसमें इसी धरा से जन्मे हिंदू धर्म, जैन धर्म और सिख धर्म, बाहर से आए धर्मों जैसे ईसाई, इस्लाम, पारसी धर्म और यहूदी धर्म के साथ पनपे हैं। यह सभी धर्म सद्भावपूर्वक शांति से साथ साथ रहते हैं।
"मैं स्वयं को प्राचीन भारतीय चिंतन का दूत मानता हूँ, जहाँ भी मैं जाता हूँ मैं अहिंसा और अंतर्धार्मिक सद्भाव के बारे में बोलता हूँ" परम पावन ने कुछ तािलयों की ध्वनि के बीच कहा। यद्यपि उनमें दार्शनिक रूप से मतभेद है, पर सभी धार्मिक परंपराओं का एक समान संदेश है। मैं प्रायः देखता हूँ कि हिंदू और बौद्ध परंपराएँ भाइयों की तरह हैं, पर एक दार्शनिक दृष्टिकोण से हमारे मत अलग हैं। जहाँ हिन्दू आत्मा के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं, बौद्ध इसके विपरीत अनात्मा का तर्क देते हैं। मैंने बारीकी से इन मतभेदों पर चर्चा की है। यद्यपि कुछ स्वामी और साधू बढ़ा चढ़ाकर रस्मंों के प्रदर्शन से संबंध रखते हैं पर ऐसे भी हैं जो बहुत पढ़े हुए हैं तथा गहन ज्ञान रखते हैं। मैं कुछ वर्षों पूर्व मथुरा में ऐसे स्वामी से मिला और हमारे बीच अच्छा विचार विमर्श हुआ। उन्होंने सांख्य परंपरा के कई अंगों पर, शाखाओं पर प्रकाश डाला जो किसी सृजनकर्ता पर बल नहीं डालते। पर जब आत्मा और अनात्मा के विरोधाभास का प्रश्न आया तो मैंने कहा, "आत्मा का सिद्धांत तुम्हारा काम है तथा अनात्मा का काम मेरा।"
परम पावन ने समझाया कि जिस प्रकार बुद्ध ने अलग अलग लोगों को अलग अलग समय पर और अलग अलग स्थानों पर विभिन्न शिक्षाएँ दी हैं क्योंकि लोगों के अलग अलग स्वभाव हैं, तो हम अपनी विभिन्न धार्मिक परंपराओं को विभिन्न समयों पर अलग अलग स्थानों पर अलग अलग लोगों की रुचि के अनुकूल हुआ मान सकते हैं। उन्होंने बताया कि एक बार हम ऐसी विविधता को ध्यान में रखें तो हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि आज जीवित ७ अरब मनुष्यंों में १ अरब कहते हैं कि उनका धर्म में कोई विश्वास, कोई रुचि नहीं है।
"यदि हम ऐसे लोगों से स्वर्ग और नरक अथवा ईश्वर या बुद्ध के िवषय में बात करें तो उनके बस यह कहने की संभावना है कि 'हमें उस की चिन्ता नहीं है।' उनको मनवाने और मानवीय सुख के सही स्रोत से उनका परिचय कराने के िलए हमें एक ऐसी नैतिकता की भावना को प्रस्तुत करना होगा जो िकसी विशेष धार्मिक परंपरा से ग्रहण नहीं करता। और इस का समर्थन करने के लिए मेरा सुझाव है कि जिस तरह हम अच्छे स्वास्थ्य के हित में शारीरिक स्वच्छता की शिक्षा देते हैं, हमें अब मानसिक या भावनात्मक शुचिता के बारे में शिक्षा देने की आवश्यकता है।"
परम पावन ने बल दिया कि जब वे धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के विषय में बोलते हैं तब वह धार्मिक परम्परा की निंदा नहीं कर रहे। अपितु वह शब्द का प्रयोग इस तरह से करते हैं जैसे वह भारत में प्रयुक्त होता है, तिरस्कार के लिए नहीं, पर सभी धर्मों के सम्मान के लिए और उनके िलए जो िकसी धर्म का पालन नहीं करते। उन्होंने कहा:
"मानवीय सुख की समृद्धि और हमारी धार्मिक परंपराओं के बीच सद्भाव को बढ़ावा देने की मेरी चिंता को लेकर यह मेरे आध्यात्मिक भाइयों के लिए मात्र एक रिपोर्ट है। मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ कि हम एक साथ इस तरह मिल सके।"
जैसे ही श्रोतागणों ने तािलयों की गड़गड़ाहट से अपनी सराहना व्यक्त की, परम पावन ने प्रतिभागियों में से प्रत्येक को एक सफेद रेशमी दुपट्टा प्रस्तुत किया। श्री जतिन हजारिका ने कृतज्ञता व्यक्त की। उन्होंने परम पावन को इस अवसर पर आकर गौरवान्वित करने के लिए, असम सरकार को उनकी सहायता तथा समर्थन तथा एल बी एस फाउंडेशन को इस प्रकार की पहल करने हेतु आभार व्यक्त किया।