सैन फ्रांसिस्को, कैलिफोर्निया, संयुक्त राज्य अमरीका - २२ फरवरी, २०१४ - सैन फ्रांसिस्को पहला स्थान था जब १९७८ में परम पावन संयुक्त राज्य अमरीका की अपनी प्रारंभिक यात्रा पर थे, जब उन्होंने रिचर्ड ब्लम और उनकी पत्नी डयान फेियनस्टीन का आमंत्रण स्वीकार किया था । आज वह ३० वर्ष पूर्व ब्लम द्वारा स्थापित शिक्षा तथा अन्य रूप में हिमालय क्षेत्र के लोगों की सहायता करने, जिसमें तिब्बती भी शामिल थे, अमेरिकी हिमालयन फाउंडेशन तथा विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए ब्लम केंद्र, जिसका उद्देश्य गरीबी और असमानता का निदान है, के अतिथि थे।
अपने परिचयात्मक भाषण में रिचर्ड ब्लम ने उल्लेख किया कि वेऔर परम पावन लगभग समवयस्क हैं, वे प्रथम बार उनसे १९७२ में मिले थे और उनको पुनः सैन फ्रांसिस्को में देख कर उन्हें बहुत प्रसन्नता है। उन्होंने टेड कैनेडी के एक उद्धरण के साथ समाप्त किया ः "उन सभी के लिए जो हमारी चिंता की परवाह करते हैं, कार्य निरंतर है, उद्देश्य बना रहता है, आशा जीवंत रहती है और स्वप्न कभी मृत नहीं होंगे।"
परम पावन ने सदा की तरह प्रारंभ किया:
"भाइयों और बहनों आपके बीच स्वयं को पाकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। मैं आज जीवित ७ अरब मनुष्यों के बीच एक हूँ। हम सभी सुख चाहते हैं और हममें से प्रत्येक को इसे प्राप्त करने का अधिकार है। समस्याओं के बिना एक विश्व असंभव है। बुढ़ापे की हमारी समस्याएँ हैं, पर हमारे पास बहुत अधिक अनुभव भी हैं - यही हमारा सौन्दर्य है। दूसरी ओर युवा लोग नए विचारों और महत्त्वाकांक्षी दृष्टि की नूतनता लिए हैं - वह उनका सौन्दर्य है। समस्याओं का सामना करते हुए हम एक सुखी जीवन जीने की आशा कैसे रख सकते हैं? हमारी समस्याओं में से कई हमारे अपने मानसिक दृष्टिकोण से संबंधित हैं। आप जितनी अधिक व्यापक और यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाएँगे उतना ही अधिक ऐसी समस्याओं से निपटने में सक्षम होंगे। अधिक सुख और अधिक शांति के लिए एक शांत चित्त बनाए रखना ही कुंजी है। यह सभी ७ अरब मनुष्यों के लिए सच है जो भावनात्मक, मानसिक और शारीरिक रूप से एक समान हैं।"
उन्होंने इंगित किया कि हमारी भौतिकवादी आधारित आधुनिक शिक्षा प्रणाली में नैतिकता का अभाव सा जान पड़ता है। उन्होंने आज प्रातः अपने पुराने मित्र और मनोवैज्ञानिक पॉल एकमन के साथ हुई बैठक का उल्लेख किया, जिन्होंने शिक्षा में सुधार हेतु अपने विचारों को रूपरेखा दी है, विशेषकर भावनाओं को मानचित्रित करने और उनके कार्य के ढंग में। माइंड एंड लाइफ इंस्टिट्यूट भी, जो आधुनिक वैज्ञानिकों और एशिया के मनन परंपराओं के बीच विचारों के आदान प्रदान के रूप में प्रारंभ किया गया था, अब सक्रिय रूप से विनाशकारी भावनाओं को नियंत्रित करने के परीक्षण में लगा हुआ है जिसे हमारी धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रणाली में सम्मिलित किया जा सकता है।
परम पावन ने कहा कि कुछ लोगों का मानना है कि नैतिकता की एक धार्मिक नींव होनी चाहिए। परन्तु वे धर्मनिरपेक्ष नैतिकता के भारतीय प्रारूप के पक्षधर हैं। यह सभी धार्मिक परंपराओं के प्रति और उन लोगों के प्रति भी जिनकी कोई धार्मिक मान्यता नहीं है, निष्पक्ष सम्मान की आवश्यकता पर बल देता है। यह आधुनिक भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान में भी अभिव्यक्ति पाता है जिसमें भारत के बहु - धार्मिक, बहु - सांस्कृतिक समाज का ध्यान रखा गया है। परम पावन ने टिप्पणी की, कि आज जीवित ७ अरब मनुष्यों में कम से कम १ अरब लोग किसी भी धर्म में विश्वास न करने का दावा करते हैं और यदि हमारी शिक्षा प्रणाली में नैतिकता को सम्मिलित करना है तो उन्हें शामिल करना होगा। इस बीच जो अपने आप को धार्मिक मानते हैं उनमें से ऐसे भी बहुत हैं जो या तो शरारती हैं या अपने अभ्यास को लेकर बहुत गंभीर या सच्चे नहीं हैं, और जिन्हें नैतिकता की भावना की आवश्यकता है।
इस बिंदु पर परम पावन ने दोलज्ञेल (शुगदेन) देवता की पूजा करने वालों पर बोलने के लिए विषयांतर किया जो उनके प्रवेश के समय हॉल के बाहर सड़क पर प्रदर्शन कर रहे थे। वे चिल्लाते हुए बैनर लहरा रहे थे, और उनके चेहरे आक्रामक भाव से विकृत प्रतीत हो रहे थे। उन्होंने कहा कि इसी प्रकार के लोगों ने १९९७ में एक अच्छे भिक्षु और उनके विद्यार्थी की धर्मशाला में परम पावन के निवास के पास एक रात हत्या कर दी थी जब वे एक ग्रंथ का चीनी में अनुवाद कर रहे थे। आज उनका नारा था 'झूठ बोलना बंद करो' ,पर प्रश्न यह है कि वास्तव में झूठ कौन बोल रहा है।
"हाल ही में पोप फ्रांसिस ने एक जर्मन बिशप को कैथोलिक चर्च की शिक्षा के साथ असंगत एक असाधारण जीवन शैली जीने के लिए डाँट कर निलंबित कर दिया था", परम पावन ने सूचना दी। "वे इस तरह के पाखंड का अंत करना चाहते थे। हाल ही में पूर्वी भारत में जब मुझसे पूछा गया कि क्या आधुनिक शिक्षा नैतिकता के बारे में पर्याप्त मार्गदर्शन करती है, तो मैंने बताया कि भ्रष्ट लोगों में कई चतुर और शिक्षित लोग शामिल हैं। स्पष्ट है कि धनाढ्यों और निर्धनों के बीच और चौड़ी होती हुई खाई को पाटने के लिए और अधिक प्रयास करना होगा। इसमें नैतिकता शामिल है और केवल प्रार्थना से इसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसके लिए सच्चाई, ईमानदारी और पारदर्शिता पर आधारित कार्रवाई की आवश्यकता है। ये विश्वास उत्पन्न करते हैं जो सच्ची मैत्री की ओर ले जाता है। और चूँकि हम सामाजिक प्राणी हैं, हमें न केवल मित्रों की आवश्यकता होती है पर हम अस्तित्व के लिए ही दूसरों पर निर्भर हैं।"
"चित्त की शांति और शारीरिक कल्याण का आपस में निकट का संबंध है। कुछ वर्षों पूर्व एमरी विश्वविद्यालय के एक वैज्ञानिक ने मुझे बताया कि निरंतर क्रोध, भय और शंका हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को खा जाता है। दूसरी ओर, चित्त की शांति और सौहार्दता आत्मविश्वास लाती है।"
परम पावन से पूछा गया कि क्या सरकारें या संयुक्त राष्ट्र विश्व में परिवर्तन लाएँगी। उनका उत्तर था कि परिवर्तन वास्तव में व्यक्ति के साथ शुरू होता है। उन्होंने ७ अरब मनुष्यों की एक महान मानव परिवार से संबंधित सोच की सराहना की। और जिनके बच्चे थे, उनसे आग्रह किया कि वे उनके प्रति प्रेम रखें और विश्व को लेकर एक व्यापक परिप्रेक्ष्य को विकसित करने में उनकी सहायता करें।
एक बार पुनः दोलज्ञेल (शुगदेन) के विषय पर आते हुए उन्होंने कहा कि एक समय उन्होंने स्वयं उस देवता की पूजा की थी। पर क्रमशः उन्हें इस बात का अनुभव हुआ कि इसमें कुछ गलत था, विशेष कर बौद्ध परंपरा के संदर्भ में। उन्होंने उसके इतिहास को देखा और पाया कि यह ५वें दलाई लामा के दौरान अस्तित्व में आई थी, जिन्होंने उसे एक दुष्ट देवता कहा था और जिसका जन्म विकृत प्रार्थनाओं के कारण हुआ था जो धर्म तथा सत्वों के िलए हानिकारक है। उनका सुझाव था कि प्रदर्शनकारी ५वें दलाई लामा से शिकायत करें ।
जब परम पावन होटल से निकले तो कुछ भिक्षुणियों ने उनसे कहा कि यह धार्मिक स्वतंत्रता का प्रश्न था पर वे इसे दूसरे रूप में देखते हैं। इस देवता की पूजा सांप्रदायिकता और धार्मिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध के साथ साथ जाती है। उन्होंने स्मरण किया कि वे खुनु लामा रिनपोछे से एक ञिंगमा शिक्षण प्राप्त करने के इच्छुक थे तथा अपने मुख्य गुरु लिंग रिनपोछे के परामर्श को याद किया। इस देवता की पूजा के साथ कोई भी संबंध न होने के बावजूद, लिंग रिनपोछे ने इस भय से कि वह देवता उनका अहित कर सकता है, उन्हें इस की शिक्षा को न लेने के प्रति आगाह किया। उन्होंने इसे अपनी स्वयं की धार्मिक स्वतंत्रता को विवश करने के एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने घोषित किया कि दोलज्ञल की पूजा बंद करने के पश्चात ही वास्तव में उन्होंने धार्मिक स्वतंत्रता का आनंद उठाया। श्रोताओं ने इस पर तालियाँ बजाईं।
"अज्ञान और विकृत जानकारी के कारण इस अभ्यास के अनुयायी पूर्ण रूप से भ्रमित हैं। भारत में उनके अपने विहार हैं जहाँ वे जो चाहे कर सकते हैं। उनके शिक्षकों में से एक केलसंग ग्याछो ने एक बार इंग्लैंड में एक संवाददाता से कहा कि १४वें दलाई लामा ने तिब्बत समस्या को लेकर कुछ लाभकारी नहीं किया है। क्या यह एक प्रकार का झूठ नहीं है?"
चित्त की प्रकृति की ओर लौटते हुए, परम पावन ने एक मित्र का उद्धरण दिया जिन्होंने उनसे कहा था कि सभी धर्म तीन प्रश्नों के उत्तर की ओर प्रवृत्त होते हैं ः आत्मा क्या है, क्या इसका कोई प्रारंभ है? और क्या इसका कोई अंत है? ऐसे धर्मों के िलए जो एक सृजनकर्ता ईश्वर में विश्वास रखते हैं, वह आत्मा का निर्माण करता है, अतः इसका प्रारंभ है, पर यह स्पष्ट नहीं है कि क्या इसका अंत है। जैन तथा सांख्य जैसी परंपराओं के लिए स्व - सृजन के अतिरिक्त अन्य कोई सृजनकर्ता नहीं है। बौद्धों के लिए शरीर का एक प्रारंभ और अंत है, परन्तु सन्तति की नहीं। मात्र बौद्ध इस पर ज़ोर देते हैं कि शरीर और चित्त से पृथक कोई आत्मा नहीं, जिसका यह अर्थ नहीं कि कोई आत्मा है ही नहीं।
मुक्ति चेतना से संबंधित है और बौद्ध धर्म चित्त की बहुत अधिक व्याख्या प्रदान करता है। प्राचीन भारत में, परम पावन ने जारी रखा, वे परम्पराएँ, जिन्होंने शमथ और विपश्यना का विकास किया, में चित्त की प्रकृति की गहन व्याख्याएँ शामिल थी। वे व्याख्यायित करती है कि अंततः नकारात्मक या विनाशकारी भावनाएँ अज्ञानता पर आधारित हैं जिसका प्रतिकारक ज्ञान और जागरूकता है। अज्ञान दुख का कारण है, परन्तु अपना मानवीय बुद्धि का पूरा उपयोग करने पर हम इस पर काबू पा सकते हैं। मानव बुद्धि का उपयोग करके हम इसे दूर कर सकते हैं। एक बार आप अपने चित्त को नियंत्रित कर सकें तो आप अपने शरीर पर पूरा नियंत्रण कर सकते हैं ।
"चित्त तथा जागरूकता की निरंतरता का एक और संकेत है", परम पावन ने कहा, "वे बच्चे जिन्हें अपने पूर्व जन्मों का स्मरण है। वर्जीनिया विश्वविद्यालय के इयान स्टीवेंसन ने इससे संबंधित व्यापक शोध किया है। मैं स्वयं भारत में कुछ लड़कियों से मिला जिनमें इस प्रकार की स्मृतियाँ थी और मुझे बताया गया था कि एक छोटे के बच्चे के रूप में मुझे अपने पूर्व जन्म के पक्षों की स्मृतियाँ थी, हालांकि आज मुझे यह स्मरण नहीं रहता कि कल क्या हुआ था।"
"२०वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, वैज्ञानिकों ने इसकी पहचान प्रारंभ की, कि मस्तिष्क के अतिरिक्त चित्त जैसा कुछ है। फिर उन्होंने मस्तिष्क के लचीलेपन को जाना। बौद्ध दृष्टिकोण से, कोई भौतिक वस्तु कभी भी शरीर का पर्याप्त कारण नहीं हो सकती। ऐसी मान्यता है कि चित्त पानी की तरह स्पष्टता लिए हुए है, और उसकी प्रकृति जागरूकता है।"
श्रोताओं के कई प्रश्नों का संक्षेप में उत्तर देने के पश्चात सभी पियानो और वायलन चेलो पर तिब्बती राष्ट्रीय गान की एक अद्वितीय प्रस्तुति के लिए सम्मान भाव से खड़े हो गए। संगीतकारों तथा अपने मेज़बानों को उन्हें आमंत्रित करने के लिए धन्यवाद देते हुए परन्तु मंच छोड़ने से पहले परम पावन ने श्रोताओं को एक ओर फहराते हुए तिब्बती ध्वज के बारे में बताया। उन्होंने समझाया कि १९५५ में माओ चेतुंग ने उनसे पूछा था कि क्या तिब्बत का कोई ध्वज है, और यह सुनकर कि ध्वज है, उनसे कहा कि यह महत्त्वपूर्ण है कि उसका संरक्षण किया जाए और चीन के ध्वज के साथ फहराया जाए। परम पावन ने ठिठोली करते हुए कहा कि, आज जहाँ चीनी कट्टरपंथी तिब्बती ध्वज को लेकर यह शिकायत करते हैं कि यह अलगाववाद का प्रतीक है, उन्हें लगता है कि वहाँ माओचे तुंग ने उसका प्रयोग करने की अनुमति दी, उनकी इस बात पर सभी हँस पड़े।
कल, परम पावन बर्कले में बोलेंगे