धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश, भारत - दिसंबर २, २०१४ - लगभग ४००० की संख्या में श्रोतागण, जिनमें तिब्बती, ४९ देशों के आगंतुक और लगभग ६०० मंगोलियायी शामिल थे, थेगछेन छोलिंग चुगलगखंग में चार दिन के प्रवचन के प्रारंभ में आज प्रातः परम पावन दलाई लामा की प्रतीक्षा कर रहे थे । सिंहासन के चारों ओर बैठे लामा और गणमान्य व्यक्तियों में गदेन ठि रिनपोछे और जंगचे छोजे थे।
"आज हम 'महाबोधिपथक्रम', 'लम-रिम छेनमो' पर दृष्टिपात करने जा रहे हैं।" परम पावन ने घोषित किया। "आप में से कइयों ने यहाँ आने हेतु महान प्रयास किया है, और मैं आप को देख कर प्रसन्न हूँ। आपने अपनी भाषा में पुस्तक का एक संस्करण भी प्रकाशित किया है जिसके लिए मैं आपको बधाई देना चाहता हूँ।"
"मैं प्रायः प्राचीन विश्व के तीन महान एशियाई साम्राज्य के रूप में तिब्बत, मंगोलिया और चीन का संदर्भ देता हूँ। हम तिब्बतियों और मंगोलियायियों के बीच दीर्घ काल का ऐतिहासिक संबंध है, एक ऐसी कड़ी, जो हमारे साझा बौद्ध हितों से परे व्यापक रूप से है। जहाँ तक दलाई लामाओं के साथ संबंध का प्रश्न है, सर्वज्ञ सोनम ज्ञाछो, तीसरे दलाई लामा ने मंगोलिया की यात्रा की और वहाँ सशक्त संबंधों का निर्माण िकया। आजकल मैं 'दलाई लामा' नाम से अपना हस्ताक्षर करता हूँ और जब लोग पूछते हैं तो मैं समझाता हूँ कि यह एक मंगोलियाई नाम है, जो कि उस समय दिया गया था।"
परम पावन ने आगे तुवा, बुर्यातिया और कलमिकिया के जातीय मंगोलियाइयों की बात की, जो रूसी संघ के हैं। वे सभी अपने धार्मिक अध्ययन के लिए तिब्बती भाषा का उपयोग करते हैं। उनमें से कुछ महान विद्वान हुए हैं और परम पावन ने उनके द्वारा मंगोलियाइयों के कई महान ग्रंथों को पढ़ने का उल्लेख किया। पर उन्होंने कहा कि २०वीं शताब्दी में मंगोलियाई क्षेत्रों में बौद्ध धर्म में एक जबरदस्त गिरावट देखी गयी है पर इसके बावजूद धर्म में विश्वास बचा हुआ है। मंगोलिया की यात्रा करते हुए परम पावन ने साम्यवादी समय की प्रतिबंधताओं को समक्ष पाया, पर देखा कि उसके धरातल में सभी विश्वास प्रबल बने हुए हैं।
"अब जब आप पुनः अध्ययन और अभ्यास के लिए स्वतंत्र हैं, आपको अध्ययन के आधार पर एक समझ विकसित करनी चाहिए। इस ग्रंथ 'महानबोधिपथक्रम' को मात्र एक श्रद्धा की वस्तु के रूप में न देखें। इसे पढें और तर्क तथा समझ के आधार पर अपना विश्वास पाएँ।"
जब गुरु को मंडल समर्पण का समय आया, तो परम पावन ने मंगोलियाइयों को छेड़ते हुए जितना उनसे संभव हो उतने उच्च स्वर में सस्वर पाठ करने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने अपनी १९७९ में उनके देश की अपनी पहली यात्रा का स्मरण किया और किस तरह भिक्षु इस प्रकार ऊँचे स्वर में मंत्र का सस्वर पाठ कर रहे थे कि उनके पहले से ही गुलाबी चेहरे और भी लाल हो गए थे। उन्होंने कहा कि उनके उत्साह को देख और सोनम ज्ञाछो के समय के विषय में सोच वे अत्यंत भावुक हो उठे थे।
"हम जिस भी धर्म शिक्षण से जुड़े हुए हों," उन्होंने कहा "कि यह महत्वपूर्ण है कि शिक्षक और श्रोता दोनों ही एक अच्छी प्रेरणा विकसित करें। उन्हें धन और ख्याति प्राप्त करने के विषय में सोचना नहीं चाहिए, और न ही वे इसलिए भाग लें, कि वे यह कह सकें कि मैंने यह शिक्षण तो कई बार सुना है। प्रमुख बात यह है कि जो हम नहीं चाहते, वह दुख है और जो हम चाहते हैं, वह सुख है। हमें दुख के कारणों से बचने और सुख के कारणों के विकास करने की आवश्यकता है। हमारी शारीरिक और मौखिक कुकर्मों को जो संचालित करता है, वह वास्तविक अस्तित्व की हमारी भ्रांत धारणा है। नैरात्म्य, शून्यता की समझ के विकास से ही हम इस भ्रांत धारणा पर काबू पा सकते हैं। और किसी और ने नहीं, केवल बुद्ध ने यह शिक्षा दी। आप को सुनने तथा अध्ययन करने और उस समझ पर ध्यान करने की आवश्यकता है, जब तक आप इसके अनुभव का उत्पाद न कर लें और इस प्रकार स्वयं को आंतरिक रूप से परिवर्तित न कर लें।"
शरणगमन तथा बोधिचित्तोत्पाद की चार पंक्तियों की चर्चा करते हुए परम पावन ने चन्द्रकीर्ति को उद्धृत किया, कि जो निर्वोणोच्छुक हैं उनके लिए शरण गमन की वस्तु बुद्ध हैं। उन्होंने कहा निरोध, मुक्ति धर्म के सच्चे मार्ग पथ का अनुसरण करके आता है। जो इस लक्ष्य को प्राप्त कर रहे हैं, वे संघ के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने टिप्पणी की कि प्रार्थना में 'मैं' शब्द शामिल है, यह कहने में कि 'मैं शरण में जाता हूँ' और 'मैं बुद्धत्व की प्राप्ति करूँ।' यद्यपि एक ठोस, निश्चित 'मैं' प्रतीत होता है पर हमें इसे जाँचने की आवश्यकता है क्योंकि वास्तव में ऐसा कोई स्वायत्त आत्म नहीं है।
ग्रंथ को खोलते हुए परम पावन ने समझाया कि पहले चार पद वन्दना के हैं। वे शाक्य के प्रमुख बुद्ध, दो बोधिसत्वों मंजुश्री और मैत्रेय, जिन्होंने प्रज्ञापारमिता की शिक्षाओं को आगे बढ़ाया और दो प्रमुख मानव नागार्जुन और असंग, जिन्होंने राह को प्रज्ज्वलित िकया, की वन्दना करते हैं। यह परम्पराएँ अतीश में एक साथ मिलकर आईं। परम पावन ने टिप्पणी की, कि संभवतः अन्य सत्व उपस्थित रहे होंगे पर बुद्ध के चार आर्य सत्यों की व्याख्या के मुख्य शिष्य मनुष्य थे। यद्यपि प्रज्ञापारमिता शिक्षा के मुख्य शिष्यों में बोधिसत्व इष्टदेव, जैसे मंजुश्री, अवलोकितेश्वर और मैत्रेय शामिल थे। चोंखापा उन सबके प्रति भी सम्मान व्यक्त करते हैं।
परम पावन ने कहा कि प्रज्ञापारमिता शिक्षाओं का स्पष्ट अर्थ शून्यता है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि िकसी शून्य वस्तु के बिना वहाँ शून्यता है। जैसा कि हृदय सूत्र स्पष्ट करता है कि रूप शून्यता का आधार है। उन्होंने पुनः कहा कि नागार्जुन, परिष्कृत दृष्टिकोण की व्याख्या के अग्रणी थे, जबकि असंग ने वैपुल्य चर्या हेतु वह भूमिका निभाई। अतीश शिक्षण की दोनों परम्पराओं के ग्राह्य पात्र थे। और उनसे कदम परम्परा की तीन परम्परायें अवतरित हुईं। शास्त्रीय परम्परा ने छह ग्रंथों पर ध्यान केंद्रित किया: शांतिदेव के 'शिक्षा समुच्चय' और 'बोधिसत्वचर्यावतार'; असंग द्वारा 'बोधिसत्व भूमि' और मैत्रेय द्वारा 'महायान सूत्रालंकार'; आर्यशूर की 'जातक माला' और 'बुद्ध वचन संग्रह'।
मौखिक संचरण या पथ के चरण परम्परा का संबंध, किसी प्रारंभिक साधक के आध्यात्मिक मार्ग के चरण से लेकर प्रबुद्धता के स्तर तक है। सारंशित निर्देश की परम्परा में संक्षिप्त सारांश शिक्षाएँ शामिल थीं, जिन्हें एक शिष्य सरलता से व्यवहार में ला सकता है।
गुरु और उनकी शिक्षा की महानता के विषय पर बोलने के पश्चात परम पावन ने सुझाया कि उनके श्रोता चार घंटे के सत्र के बीच एक छोटा अंतराल लें। जब वे लौटे तो उन्होंने मंगोलियाइयों को प्रश्न पूछने के लिए आमंत्रित किया। पहला बोन परंपरा से संबंधित था। परम पावन ने स्वीकार किया कि बोनपो आत्माओं की पूजा करते थे और धन अर्जित करने हेतु अभ्यास किया करते थे, ऐसी प्रथाएँ जो अब भी बची हुई हैं। उन्होंने थुकेन छोकी ञीमा के कथन को उद्धृत किया कि बौद्ध धर्म और बोन ने एक दूसरे को प्रभावित किया है और कुछ सीमा तक परस्पर घुल मिल गए हैं। परन्तु बौद्धाभ्यास में आत्मा की पूजा पर्याप्त नहीं है, जो आपको उपलब्ध हैं उन गहन शिक्षाओं का अध्ययन करने की आवश्यकता है। इनमें ऐसी व्याख्याएँ सम्मिलित हैं, जो कि आज वैज्ञानिकों को भी रुचिकर लग रही हैं।
अगला प्रश्न दोलज्ञल से संबंधित था। परम पावन ने कहा कि कहानी पाँचवें दलाई लामा के समय से प्रारंभ होती है और वह यह जानते थे कि यह क्या था। अपनी आत्मकथा में वे बताते हैं कि तथाकथित टुल्कु डगपा ज्ञलछेन, टुल्कु गेलेग पलसंग के सच्चे अवतार नहीं थे। डगपा ज्ञलछेन की माँ ल्हा-अज्ञल ने चालाकी से पंचेन लोबसंग छोज्ञेन पर उसके बेटे को इस तरह पहचानने के लिए मनवा लिया। पंचम दलाई लामा ने इस मान्यता को स्वीकार नहीं किया। वे िलखते हैं कि दोलज्ञल का जन्म विकृत प्रार्थनाओं से हुआ, जो अन्य सत्वों और धर्म का अहित करता हुआ विश्वासघाती आत्मा के रूप में प्रकट हुआ। परम पावन आगे समझाया:
"मेरे विनय आचार्य, क्याब्जे लिंग दोर्जे छंग, वे गुरु जिनसे मुझे अपने भिक्षु संवर प्राप्त हुए, वे दोलज्ञल अभ्यास को लेकर तनिक भी प्रसन्न न थे, पर चूँकि ठिजंग रिनपोछे, मेरे कनिष्ठ शिक्षक, बड़ी प्रबलता से यह अभ्यास किया करते थे, इसलिए उन्होंने इसकी खुले तौर पर आलोचना नहीं की। परन्तु उन्होंने अपने अंतरंग शिष्यों को इसका अभ्यास न करने का निर्देश दिया था। ठिजंग रिनपोछे के कारण मैंने इस अभ्यास को करना प्रारंभ किया। बाद में, मैं इसके अभ्यास को लेकर शंकित हुआ और इसके इतिहास की जाँच की। इस प्रकार मुझे दोलज्ञल की वास्तविक प्रकृति और इसके साथ जुड़े विवाद का संज्ञान हुआ। मैंने यह अभ्यास बंद कर दिया। लिंग रिनपोछे, मेरे प्रमुख शिक्षक थे, वे गुरु जिनसे मुझे प्रमुख दार्शनिक निर्देश इत्यादि प्राप्त हुए। जब मैंने उन्हें बताया कि मैंने दोलज्ञल का अभ्यास बंद कर दिया है तो वे बहुत खुश थे। उन्होंने कहा: "यह उत्तम है।" मैंने ठिजंग रिनपोछे को भी बताया कि मैंने यह करना बंद कर दिया था और इस विषय की जाँच करने के िलए जो कदम उठाए थे जिससे मैं इस निष्कर्ष पर पहुँच पाया था, उनके विषय में उन्हें समझाया। उन्होंने सहमति जताई कि वे प्रक्रियाएँ अचूक थीं और मैंने जो किया था उस में कोई त्रुटि न थी।
"प्रारंभ में मैंने सार्वजनिक रूप से यह जानकारी किसी को न दी। पर अंततः मैंने लोगों को दोलज्ञल के विषय में सलाह देना प्रारंभ किया तथा यह स्पष्ट किया कि यह उन पर निर्भर था कि वे िकस प्रकार की प्रतिक्रिया रखते हैं। मैंने इस बात पर बल नहीं दिया कि दूसरों को क्या करना चाहिए। कई तिब्बतियों और पश्चिमी देशों के लोगों ने अभ्यास के इतिहास को समझा और इसे करना बंद कर दिया। अतीत में कई महान गुरु थे, जिन्होंने दोलज्ञल के अभ्यास का कट्टर विरोध किया, उदाहरणार्थ, सातवें दलाई लामा के समय में ठिछेन ञवंग छोगदेन और १३वें दलाई लामा के समय में खंगसर दोर्जे छंग। १३वें दलाई लामा की मृत्यु पर दोलज्ञल ने उत्साह भरी प्रसन्नता व्यक्त की। यद्यपि मैंने लोगों को परिस्थिति समझा दी है, पर वे उसका कैसे उत्तर देते हैं, यह उन पर निर्भर है। जो भी हो, आज दोलज्ञल के अभ्यासी हैं, जो मेरी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं।"
"यदि आप मंगोलियाई इस अभ्यास को बन्द करना चाहते हैं, तो समझ के आधार पर ऐसा करें। दोलज्ञल की प्रकृति के बारे में पता लगाएँ। यदि आप को चिंता सताए कि अगर आप ने बन्द कर दिया तो वह आपका अहित करेगा तो उसे बताएँ कि आप निर्दोष हैं और यदि उसे किसी प्रकार की शिकायत है तो वह उन्हें मेरे पास ला सकता है । यदि आप मेरी सलाह मान कर बंद कर दें तो आपका कुछ बुरा न होगा।"
परम पावन ने उल्लेख किया कि गदेन ठि रिनपोछे के मार्गदर्शन में गेलुगपा समिति ने एक पुस्तक निकाली है, जिसमें पूरे विषय की बहुत अच्छी तरह से जांच हुई है। उन्होंने सुझाव दिया कि मंगोलियाई में अनुवाद करने के लिए यह अच्छी पुस्तक होगी। बाद में पूछे गए एक प्रश्न के संबंध में परम पावन ने समझाया कि दोलज्ञल से जुड़ी सांप्रदायिकता, जो गेलुगपा लोगों को अपने घर में ञिङमा ग्रंथ रखने पर प्रतिबंध लगाती है, वह धार्मिक स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने के समान है। उन्होंने कहा कि अपनी सबंधित परम्परा के प्रति निष्ठा बनाए रखते हुए गैर सांप्रदायिक दृष्टिकोण को अपनाना कहीं बेहतर है। उन्होंने सभी परंपराओं के ग्रंथों में रुचि लेने और उनके अध्ययन का सुझाव दिया।
'महानबोधिपथक्रम' की ओर लौटते हुए परम पावन ने जे चोंखापा के कथन को उद्धृत किया कि कई लोग हैं जो अभ्यास करना चाहते हैं, पर उन्होंने बहुत कम अध्ययन किया है। मार्ग का अनुसरण करने तथा निरोध को प्राप्त करने के लिए आपको जानना होगा कि वे क्या हैं। परम पावन ने तत्पश्चात त्वरित गति से ग्रंथ का पाठ प्रारंभ किया, जो मौखिक संचरण प्रदत्त करता है। वे आगामी दिनों में उसका संचरण और व्याख्या जारी रखेंगे।