नई दिल्ली, भारत - २१ सितंबर २०१४ - भारत में विद्यमान विविध आध्यात्मिक परम्पराओं का सम्मेलन का दूसरा दिन दूसरे विस्तृत सत्र, जिसका विषय था, 'पर्यावरण, शिक्षा और समाज' से प्रारंभ हुआ। संचालक अरुण कपूर ने इस सुझाव से चर्चा शुरू की, कि प्रतीत होता है कि हम प्रकृति के साथ प्रतिस्पर्धा में जी रहे हैं। लोग और प्रकृति एक दूसरे से पृथक नहीं हैं, उन्होंने कहा, इसलिए इसके साथ प्रतिस्पर्धा करना अथवा प्रकृति पर विजय प्राप्त करने का प्रयास एक भूल है।
उन्होंने सबसे पहले अपनी बात रखने के लिए डॉ श्यामा चोना को बुलाया। उन्होंने गांधी की उक्ति का स्मरण किया कि जहाँ तक प्राकृतिक संसाधनों का संबंध है, हर किसी की आवश्यकता के लिए पर्याप्त है, लेकिन हर किसी के लोभ के लिए पर्याप्त नहीं है। शिक्षा के संबंध में उन्होंने कहा कि बिना नैतिकता के इसका कोई मूल्य नहीं, यदि यह मात्र रोज़गार के योग्य बनाता है तो इसका मूल्य सीमित है पर यदि यह आपको आध्यात्मिक और नैतिक मूल्य भी देता है तो यह सम्पूर्ण है।
महामंडलेश्वर स्वामी कैलाशनन्द ब्रह्मचारी ने टिप्पणी की कि इस तरह की सभा का सूत्रपात करने के लिए परम पावन दलाई लामा की सराहना की जानी चाहिए। यह ध्यान में रखते हुए कि प्रतिभागियों से मानवता को सुधारने तथा पर्यावरण के संरक्षण के उपायों की चर्चा करने के िलए कहा गया था, महत्वपूर्ण प्रारंभिक बिंदु अपने विचारों को घृणा और क्रोध से मुक्त करना था। शाइस्ता अंबर, जिन्होंने पास के एक अस्पताल में रोगियों की सहायता करने के प्रयासों में, एक मस्जिद की स्थापना की, जो कि अभी भी देश की अकेली मस्जिद है जिसकी देख भाल एक महिला कर रही है। समाज में महिलाओं की स्थिति को संबोधित करते हुए उन्होंने दुख व्यक्त किया कि साधारणतया वे पीछे छूट जाती हैं। उनकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता, उनकी उपेक्षा होती है तथा गर्भ में ही मार दी जाती हैं। उन्होंने पूछा कि यह किस प्रकार की मानसिकता है जिसके कारण स्त्रियों के साथ इस प्रकार का व्यवहार होता है। उन्होंने कहा कि यदि महिलाओं को उचित शिक्षा और समान अवसर प्रदान किए गए तो धनवानों और निर्धनों के बीच की खाई में महत्वपूर्ण परिवर्तन आएगा।
यह टिप्पणी करते हुए कि अधिकांशतः शिक्षा प्रणाली लोगों को अधिक अर्जित करने के लिए सक्षम करती है, श्री सुगुणेन्द्र तीर्थ स्वामी ने सुझाया कि मन की शांति जैसे बेहतर लक्ष्य रखे जाने चाहिए। उन्होंने इस बात पर सराहना व्यक्त की, कि उन्हें किस प्रकार एक बेहतर जीवन जिया जाए, जैसे सम्मेलन मे भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ। डॉ भालचंद्र मुंगेकर ने स्वीकार किया कि हमारी आधारभूत आवश्यकताएँ हैं, पर न संतुष्ट होने वाला लोभ, प्राकृतिक आपदाओं को जन्म देता है। उन्होंने कहा कि जहाँ शिक्षा को समाज में सुधार हेतु एक प्रभावी तंत्र होना चाहिए, पर भारत में शिक्षा का एक बड़ी सीमा तक निजीकरण किया गया है, अतः यह आंतरिक मूल्य उत्पन्न करने के स्थान पर लाभार्जन का एक साधन बन गया है।
फादर डॉ एम डी थॉमस ने अपना सम्बोधन यह कहते हुए प्रारंभ किया कि इस सम्मेलन का एक अंग होना सभी के लिए अपने विश्वास को बहाल करने का एक अद्भुत अवसर था। उन्होंने परम पावन की उनकी इस पहल के लिए प्रशंसा की। उन्होंने आगे कहा कि वह धनवानों और निर्धनों के बीच की खाई के विषय में बात करना चाहते हैं, क्योंकि जनसंख्या का एक तिहाई भाग, गरीबी रेखा से नीचे रह रहा है। उन्होंने कहा कि इन लोगों को भोजन, वस्त्र, आवास और अन्य लोग जिस गरिमा का जीवन जी रहे हैं उसकी खोज है। उन्होंने सुझाव दिया कि प्रत्येक गिरजाघर, मंदिर, मस्जिद आदि यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि उनके आसपास के क्षेत्र के गरीबों की देख भाल हो।
प्रोफेसर जितेंद्र बाबूलाल शाह ने जैन परंपरा के प्राचीन मूल का उल्लेख किया जो कम से कम बुद्ध के समकालीन था। यह ऐसी परम्परा है, जो अच्छे और बुरे, कुशल व अकुशल, रचनात्मक और विनाशकारी में अंतर करने पर बल देती है। उन्होंने कहा कि जिन लोगों को इस तरह के भेद का पता नहीं है वे नहीं जान पाएँगे कि एक सुखी जीवन कैसे जिया जाता है। महत्वपूर्ण बात दूसरों का अहित न करना अथवा उनकी शांति भंग न करना है। उन्होंने भी इस प्रकार के सम्मेलन के आयोजन द्वारा प्रदत्त अवसर के लिए परम पावन की सराहना की।
सभा पुनः चर्चा समूहों में बाँट दी गई। कल दो दलों के साथ होने के बाद आज परम पावन अन्य दो दलों के साथ रहे और उनकी चर्चाओं में योगदान दिया:
"जब प्राकृतिक आपदाओं आती हैं तो मेरे विचार से लोग आम तौर पर असहाय अनुभव करते हैं। हमें यह स्वीकारते हुए कि हम प्रकृति का एक अंग हैं, वस्तुओं को एक व्यापक दृष्टिकोण से देखना होगा।"
शिक्षा के बारे में उन्होंने कहा:
"मुझे प्रतीत होता है कि आधुनिक शिक्षा भौतिकता पर अत्यधिक केंद्रित है, जबकि यह धर्म है जो आंतरिक मूल्यों से संबंधित है। परन्तु आज हमें जिस बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है वह धर्मनिरपेक्ष नैतिकता है जो धार्मिक परंपराओं के आधार हैं।"
जब एक अच्छे शिक्षक की परिभाषा पूछी गई तो उन्होंने कहा :
"ऐसा एक जिसके पास न केवल अधिक ज्ञान है, पर जो छात्र के संपूर्ण विकास के प्रति चिंता रखता है।"
दूसरा चर्चा दल, जलवायु परिवर्तन और अपने जन्मदिन के दिन वृक्षारोपण करना ताकि उनके दाह संस्कार के लिए जो लकड़ी आवश्यक हो, उसकी पूर्ति हो सके, को लेकर एक योजना की चर्चा कर रहा था। परम पावन ने कहा कि वे बाबा आम्टे द्वारा अपनाए गए एक सरल दफनाने की क्रिया, जिसमें कपास के कफन के साथ दफन और कब्र पर एक वृक्षारोपण हो, से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने इस दल में भी अपनी भावना को दोहराया कि मौजूदा शिक्षा प्रणालियाँ हमारे समक्ष आने वाले नैतिक संकटों से निपटने के लिए अपर्याप्त हैं। उन्होंने धर्मनिरपेक्ष नैतिकता तथा महिलाओं द्वारा और अधिक सक्रिय नेतृत्व की भूमिका को निभाने की आवश्यकता को दोहराया। चूँकि इस अथवा उस धार्मिक परम्परा के मूल्य आज जीवित ७ अरब मनुष्यों के अनुरूप नहीं होंगे, इसलिए धर्मनिरपेक्ष नैतिकता एक अधिक प्रभावी समाधान प्रस्तुत करती है।
मध्याह्न के भोजनोपरांत का तीसरा विस्तृत सत्र की रिपोर्ट को परिष्कृत करने और प्रस्तावित कार्य योजना के लिए समर्पित किया गया था। इस सत्र के संचालक राजीव मेहरोत्रा ने इस इच्छा पर बल दिया कि ऐसा सुनिश्चित किया जाए कि प्रत्येक प्रतिनिधि की आवाज सुनी जा सके। उन्होंने हर चर्चा दल से एक रिपोर्ट पढ़ने वाले को आमंत्रित किया कि वे अपनी की गई चर्चा का संक्षेप रूप प्रस्तुत करें। इसके पश्चात एक मसौदे की घोषणा पढ़ी गई। सभा में उपस्थित लोगों से टिप्पणियाँ आमंत्रित की गईं, जिसके बाद चाय का अंतराल हुआ, जबकि एक अंतिम दस्तावेज तैयार किया जा रहा था।
सम्मेलन के समापन सत्र की संचालिका डॉ किरण बेदी थीं, जिन्होंने नौ आध्यात्मिक परंपराओं के प्रतिनिधियों से कहा कि उनके समक्ष जो प्रश्न था वह यह कि, "हम कैसे एक बेहतर मनुष्य बनाते हैं?" उनमें से प्रत्येक को दिए गए कुछ मिनटों के समय को लेकर वे सख्त थीं। यहूदी धर्म के रब्बाइ ईजेकील ऐज़ाक मालेकर ने उल्लेख किया कि शायद भारत मात्र ऐसा देश है जहाँ यहूदियों को किसी भी प्रकार के भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा है। उन्होंने व्यर्थ की बातें न करने और दूसरों की बुराई न करना सीखा था। बहाई की डॉ बेल्ला ने अपने समुदाय द्वारा चलाए जा रहे शिक्षा के क्षेत्र में चल रहे कार्यक्रम की चर्चा की और आशा जताई कि उसमें इस बैठक में उठाए गए प्रश्नों में से कुछ पूरे होंगे। पारसियों के लिए डॉ होमी बी ढल्ला ने सम्मेलन की प्रशंसा की और इसे आगे बढ़ाने की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने आगे कहा कि शिक्षा महत्वपूर्ण थी, पर संगीत और खेल को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए।
सिखों के लिए, ज्ञानी गुरबचन सिंह ने समानता, प्रेम और स्नेह जैसे गुणों को प्रमुखता दी, जिसके आधार पर समाज में सुधार लाया जा सकता है। एच जी आर्कबिशप डॉ फेलिक्स मचाडो ने अपने सहयोगियों को स्मरण कराया कि सभी लोग शांति के लिए चाहें जिस धर्म की ओर मुड़ें, ईश्वर के समक्ष समान हैं। जिस प्रश्न के उत्तर की आवश्यकता है वह यह कि क्या वे एक दूसरे के समक्ष एक समान होना चाहते हैं या नहीं। इस्लाम के डॉ सैयद कल्बे सादिक ने ध्यानाकर्षित किया कि जिस रूप में लोग बने हैं, उस संदर्भ में वे समान हैं फिर चाहे वे जिस आकार, रंग या आकार के हों।
तरुण सागर महाराज, एक दिगम्बर जैन ने इस प्रकार की सम्मेलन बुलाने में परम पावन की सफलता की प्रशंसा की और कहा कि किसी और के लिए यह संभव न हो पाता। उन्होंने इस प्रयास की तुलना मेंढ़कों के एक संग्रह के वजन करने से की जिसमें यह अर्थ निहित था कि, किसी और के करने पर मेंढक कूद रहे होते और भाग रहे होते। रामचरित मानस के प्रतिपादक, संत श्री मोरारी बाप ने पूछा कि हम इस पृथ्वी को रहने योग्य एक और अधिक उपयुक्त जगह कैसे बना सकते और स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर यह सुझाते हुए दिया कि आवश्यक गुण सत्य, प्रेम और करुणा हैं।
एच जी आर्कबिशप डॉ अनिल जोसेफ थॉमस कौटो ने बैठक की अंतिम घोषणा अंग्रेजी में पढ़ी और उसके बाद प्रो. गेशे नवांग समतेन ने उसका हिन्दी अनुवाद पढ़ा। प्रस्तावना में प्रतिभागी भारत की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को पहचानते हैं, जो आध्यात्मिक और धार्मिक परंपराओं की विविधताओं का सम्मान करते हुए संवाद द्वारा एक दूसरे को समृद्ध करते हैं पर साथ ही स्वयं की व्यक्तिगत विशेषताओं और अभ्यासों को बनाए रखते हैं। वे यह पहचानते हैं कि परोपकारिता, आत्म अनुशासन और करुणा सभी धर्मों के लिए आम हैं और विविध स्थानीय समुदाय, भारत और एक अन्योन्याश्रित विश्व का आधार हैं। वे स्वीकार करते हैं कि उनका अपना सुख तथा विकास दूसरों पर निर्भर है, इत्यादि। इसके बाद कार्रवाई के लिए सिफारिशें हैं, जो कि सीधे दो दिन की चर्चाओं से उत्पन्न होती हैं।
इसके बाद परम पावन को उनकी अंतिम टिप्पणी करने के लिए आमंत्रित किया और जब उन्होंने परम पावन से कहा कि उनके पास केवल २५ मिनट हैं तो वे हँस पड़े।
"आदरणीय भाइयों और बहनों, आप सभी ने पिछले दो दिनों में इस बैठक में भाग लिया है। हमारे कार्यवाही में कुछ भी पाखंड से भरा या भ्रष्ट नहीं है। मेरे लंबी अवधि के मित्र, तरुण सागर महाराज, पूरी तरह से नग्न हैं, यह संकेत है कि वे सच्चे हैं। मैं उनके दृढ़ संकल्प का बड़ा प्रशंसक हूँ। वे मुझे स्मरण कराते हैं कि हमारी कार्यवाही पूरी तरह से पारदर्शी है, जिसमें कुछ भी छिपाया नहीं गया है।"
"इस देश की सहस्र वर्षों की धार्मिक सद्भाव की भावना बहुत मूल्यवान है। अतीत में, जब भी मैंने इस प्रकार की आध्यात्मिक शिक्षकों की बैठकों में भाग लिया, मैं प्रायः स्वयं को प्राचीन भारतीय ज्ञान, जिसका अर्थ नालंदा परंपरा है, के एक छात्र के रूप में वर्णित करता हूँ। हम तिब्बती प्राचीन भारतीयों को अपना गुरु मानते हैं, जबकि हम शिष्य हैं। पर मैं प्रायः बल देकर कहता हूँ कि हम विश्वसनीय शिष्य हैं क्योंकि हमने उस ज्ञान को ठीक उसी प्रकार संरक्षित रखा है जो हमें आपसे प्राप्त हुआ। धार्मिक सद्भाव और अहिंसा करुणा पर निर्भर करते हैं। मैं अपने आप को इन गुणों का एक दूत मानता हूँ।"
उन्होंने कहा कि धर्म के नाम पर हो रहे संघर्ष का मुकाबला करने के लिए कार्रवाई करने की एक बढ़ती आवश्यकता है क्योंकि मात्र अच्छे शब्द और अच्छी प्रेरणा अब पर्याप्त नहीं हैं। उन्होंने आगे कहा कि यदि हर एक ने प्रयास किया तो इन प्रयासों में वृद्धि होगी। आखिरकार मानवता व्यक्तियों का एक संग्रह है, अतः प्रारंभ एक व्यक्तिगत स्तर पर होना चाहिए।
"सभी धर्म करुणा के विषय में बात करते हैं और इसी आधार पर हम इस सदी को शांति और करुणा की एक सदी बनाने का प्रयास कर सकते हैं। और इसी के समान आधार पर हम धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण विश्वास न करने वालों के समक्ष प्रस्तुत कर सकते हैं। बस मैं इतना ही कहना चाहता हूँ। धन्यवाद।"
मुख्य अतिथि, किरण रिजीजू, जो गृह राज्य मंत्री और अरुणाचल प्रदेश से एक सांसद हैं, को सभा को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया। उन्होंने कहा कि एक गृह राज्य मंत्री के रूप में यदि और जब भी देश में सांप्रदायिक अशांति हो, तो वह परिस्थिति को शांत करने के लिए पुलिस और यदि आवश्यकता पड़े तो सेना भेज सकते हैं। परन्तु उन्हें लगता है कि आध्यात्मिक शिक्षकों की ओर से आया संदेश और अधिक प्रभावी हो सकता है। उन्होंने परम पावन दलाई लामा की भूरि भूरि प्रशंसा कि वे एक साथ इतने सारे आध्यात्मिक शिक्षकों को एक साथ लाए। उन्होंने कहा कि उनके पास कहने के लिए और कुछ नहीं था, उनका मानना था कि धर्म गुरुओं के संदेश उन्हें उनके लक्ष्य तक पहुँचाएँगे। उन्होंने कहा कि बैठक के परिणाम स्वरूप जो भी दस्तावेज तैयार होंगे वे उन्हें अवश्य पढ़ेंगे और बैठक के उद्देश्यों के समर्थन में उनसे जो बन पड़ेगा वे करेंगे।
टी आइ पी ए द्वारा थेंक यू इंडिया गीत के प्रदर्शन और भारतीय राष्ट्रीय गान के साथ इस प्रेरणात्मक कार्यक्रम का समापन हुआ।