उन्होंने कहा कि वज्रयान अथवा गुप्त मंत्र यान भी इसी प्रकार के जांच के क्षेत्र में आ गया है। उन्होंने यह स्वीकार किया कि बौद्ध और हिंदू तंत्र के बीच कई अभ्यास आम हैं। उनमें प्राण अथवा श्वास योग, ऊर्जा चक्र नाड़ी और बिन्दु की धारणा तथा आंतरिक ताप का योग आदि शामिल हैं। उन्होंने कहा कि उन्होंने इन बातों पर कुशल हिंदू अभ्यासियों के साथ चर्चा की है। उन्होंने कहा:
"मैंने खुनु लामा रिनपोछे से पूछा कि परंपराओं में किस प्रकार अंतर करें और उन्होंने कहा कि ऐसा अनुष्ठान के आधार पर नहीं किया जा सकता, पर दृष्टि के आधार पर किया जा सकता है। बौद्ध अभ्यास का आधार नैरात्म्य की दृष्टि पर आधारित है जबकि हिंदू अभ्यास स्वयं या 'आत्मा' की दृष्टि पर आधारित है।"
परम पावन ने समझाया कि ८वीं शताब्दी में तिब्बत में बौद्ध धर्म की स्थापना एक तिकड़ी, उपाध्याय, आचार्य तथा धर्मराज द्वारा हुई। उपाध्याय शांतरक्षित, विहार विनय के भारतीय आचार्य, विख्यात दार्शनिक और तर्कशास्त्री थे। आचार्य पद्मसंभव, निपुण तांत्रिक भिक्षु नहीं थे। परिणाम यह हुआ कि तिब्बत में दो समुदायों का जन्म हुआ, लाल चीवर वाले भिक्षु और श्वेत वस्त्र वाले तांत्रिक। भारत में केवल भिक्षुओं ने एक समुदाय का गठन किया। जब कोई भारतीय भिक्षु तांत्रिक को विहार समुदाय की सीमा को छोड़ना होता तो वह आम तौर पर अपने आप चला जाता। परम पावन ने आगे कहा:
"प्रोफेसर एल एम जोशी, स्वर्गीय भारतीय विद्वान ने मुझे बताया कि भारत में बौद्ध धर्म के पतन के लिए तीन कारणों का योगदान रहा। पहले का संबंध भ्रष्टाचार से था, जब विहारीय समुदाय की रुचि धन के संचय में अधिक हो गई, जिससे सार्वजनिक सम्मान कम हो गया। दूसरे का संबंध तंत्र से जुड़े व्यवहार के प्रदर्शन में अत्यधिक वृद्धि थी, जो कि विहार के मानदंडों के ठीक विपरीत है, जिससे फिर सार्वजनिक सम्मान कम हो गया। तीसरी स्थिति थी, कि शासकों में बौद्ध संस्थानंों की सहायता करने में रुचि कम हो गई।"
इस संदर्भ में परम पावन ने एक चीनी बौद्ध के कुछ वर्ष पूर्व के रिपोर्ट के विषय में बताया जिसने उन्हें बताया था कि कुछ वर्ष पूर्व तिब्बती लामा महान आचार्यों की आड़ में चीन आ रहे थे। पर अंततः यह उभरा कि उनकी रुचि प्राथमिक तौर पर धन और औरतों पर थी। बड़े खेद के साथ परम पावन ने उनके हस्तक्षेप की दलीलों के उत्तर दिए कि भारत में रहते हुए वे इस ओर कुछ बहुत कम ही कर सकते हैं। पर उन्होंने चीनी बौद्धों को प्रबल सलाह दी कि वे स्वयं को आध्यात्मिक गुरु के गुणों से परिचित करवाएँ और उस मानक की पृष्ठभूमि में ऐसे गुरुओं का परीक्षण करें। उन्होंने कहा कि यह सलाह पश्चिम में भी समान रूप से लागू होती है।
तंत्र का अभ्यास जो अभ्यास पुस्तिकाओं में वर्णित है वह पहले से ही शून्यता की समझ के होने को मानकर चलता है। इष्ट देव योग में सर्वप्रथम शून्यता पर चिंतन और उसी चित्त का ध्यान देवता के रूप में प्रकट होना शामिल है। ऐसी ध्यान की प्रक्रियाएँ अत्यंत परिष्कृत हैं और अभ्यासी को एक साधारण चित्त के स्थान पर चेतना के एक सूक्षमतर स्तर के प्रयोग की अनुमति देते हैं। यह न मात्र शक्तिशाली है, अपितु ज्ञान के लिए सूक्ष्म अवरोधों पर काबू पाने का एक मात्र मार्ग है। परम पावन ने टिप्पणी की:
"हमारे दो शत्रु हैं, आत्म - पोषण अथवा आत्म केन्द्रित भावना और आत्म के प्रति भ्रांत धारणा। शून्यता की समझ इनका विरोध कर सकता है। मैं शून्यता की समझ का कोई दावा नहीं करता, पर मुझे लगता है कि मैं कह सकता हूँ कि मैं लगभग वहाँ हूँ और मैं आपको अभ्यास की शक्ति का आश्वासन दे सकता हूँ। बौद्ध धर्म के िलए सामान्य रूप से और विशेष रूप से नालंदा परंपरा में हमारी बुद्धि का उपयोग करना और अपनी भावनाओं को परिवर्तित करने की आवश्यकता महत्वपूर्ण है। मैं अब एक अधिक उम्र का व्यक्ति हूँ, पर मैं अभी भी अपने आप को एक छात्र मानता हूँ। साथ ही मैं साधारणतया तिब्बती परम्परा को बौद्ध धर्म का सम्पूर्ण रूप मानता हूँ, क्योंकि यह ऐसी प्रणाली है जो आपको पालि और संस्कृत परंपराओं, महायान और वज्रयान को एक ही सत्र में उपयोग करने की अनुमति देती है।"
'चित्त शोधन के अष्ट पद' कदमपा परंपरा से संबंधित है, जो परम पावन ने कहा कि अतीश से प्रारंभ हुआ जिनमें व्यापक तथा गहन परंपराएँ मिली थीं। रचनाकार, गेशे लंगरी थंगपा इस शिक्षा का स्रोत शरावा, पोतोवा और डोम तोनपा से अतिश तक ले गए। इसका िवषय, चित्त का सांवृतिक और परमार्थिक बोधिचित्त है और यह ऐसा ग्रंथ है जो परम पावन को अत्यंत प्रिय है। उन्होंने उसे कंठस्थ कर लिया है और जब भी उन्हें अवसर मिलता है, जैसे कि जब वे पाते हैं कि हवाई अड्डे में विलम्ब हो रहा है तो मन ही मन उसका पाठ करते हैं। उन्होंने शीघ्रता से उसे पढ़ा और प्रत्येक पद को संक्षेप में बताया।
पहला दूसरों के प्रति उचित व्यवहार पर बल देता है, दूसरा कि हम स्वयं को अन्य की तुलना में निम्न समझें। तीसरा, हमें क्लेशों के प्रति सचेत रहने के िलए चेतावनी देता है, चौथा हमें दुष्ट प्रवृत्ति वाले सत्वों को बहुमूल्य मानने को कहता है। पांचवा हमें पराजय स्वीकार कर दूसरों को िवजय देने को कहता है, छठा कि हमारी आशा कि अच्छा करने पर अच्छा मिलेगा निराशाजनक होगा। सातवाें का संदर्भ परात्मसमपरिवर्तन से है जबकि आठवीं की अंतिम दो पंक्तियाँ दृष्टि को स्पष्ट करती हैं।
मध्याह्न भोजन के पश्चात परम पावन ने १००० तिब्बतियों के साथ एक बैठक की। २७० वैंकूवर से थे, जबकि अन्य शेष अधिकांश रूप से कैलगरी, सिएटल और पोर्टलैंड से आए थे। स्थानीय प्रतिनिधि की रिपोर्ट के पढ़ने के बाद एक पारंपरिक गीत का कार्यक्रम हुआ। रिपोर्ट में, कनाडा में तिब्बती पुनर्वास की नई लहर के रूप में अरुणाचल प्रदेश से आए तिब्बतियों के लिए स्थानीय समुदाय द्वारा धनराशि जमा करने के प्रयास का उल्लेख किया गया। रिपोर्ट में यह भी उल्लेख था कि परम पावन के िवरोध में शुगदेन समर्थकों के प्रदर्शन को देखकर वैंकूवर तिब्बती कितने त्रस्त थे। उन्होंने उन्हें समूचे विश्व में तिब्बतियों के लिए दुख का स्रोत कह संबोधित किया।
उसके उत्तर में परम पावन ने कहा कि वे कितने खुश थे कि उन सब से मिलने का यह अवसर प्राप्त हुआ।
"हमें निर्वासन में आए ५५ वर्ष हो चुके है और नई पीढ़ी अपने स्वयं के बच्चों का पालन पोषण कर रही हैं। हम अपने धर्म और संस्कृति के प्रति समर्पित बने हुए हैं जबकि तिब्बती भावना और सशक्त हुई है। हमारे धर्म और संस्कृति के कारण तिब्बती मुद्दा ताजा बना रहता है और लोगों को आकर्षित करता है। जैसा कि मैंने पहले समझाया कि हमारी बौद्ध परंपरा मात्र अकेली ऐसी परम्परा है जो तर्क और कारण को अपनाती है। और यह भी उतना ही सच है कि नालंदा परंपरा को सबसे उचित प्रकार से तिब्बती भाषा में समझाया गया है। जहाँ भारत में नालंदा विश्वविद्यालय खंडहर में पड़ा है, परन्तु उसने जिस परंपरा को जन्म दिया वह तिब्बतियों के बीच जीवित है। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि आज चीन में अनुमानतः ४-५०० अरब बौद्ध हैं, जिनमें से कइयों में इन चीजों के प्रति रुचि बढ़ रही है।"
दोलज्ञेल/शुगदेन मुद्दे पर टिप्पणी को लेकर परम पावन ने कहा यह ५वें दलाई लामा के काल में प्रारंभ हुआ था जिसके विषय में उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा और यह उल्लेख किया कि यह आत्मा किस प्रकार धर्म और सत्वों का अहित कर रही है। उन्होंने कहा कि, ५वें और १३वें दलाई लामाओं ने इस अभ्यास को प्रतिबंधित किया था, पर ७वें दलाई लामा के समय भी प्रमुख गुरुओं ने इसका विरोध किया था। इस संदर्भ में, यह एक त्रुटि थी कि उन्होंने यह अभ्यास किया, पर जब उन्होंने देखा कि यह एक गलती थी तो उन्होंने उसे बंद कर दिया।
"मुझे इन प्रदर्शनकारियों पर दुख होता है," उन्होंने कहा, "क्योंकि उन्हें सही जानकारी नहीं है। उदाहरण के लिए हैम्बर्ग में उन्होंने मेरे चित्र प्रदर्शित िकए हैं जिनमें एक मुस्लिम टोपी पहना हुआ हूँ और कहा कि बौद्ध होने की जगह मैं एक मुसलमान हूँ। मैं चिंतित नहीं हूँ क्योंकि सत्य सामने आएगा। प्रदर्शनकारियों में से कुछ तिब्बती हैं। मैं उनके प्रति दुख का अनुभव करता हूँ और उनके प्रति मेरे मन में कोई क्रोध नहीं है।"