मुंडगोड, कर्नाटक, भारत - दिसम्बर २३, २०१४ - आज प्रातः गदेन जंगचे महाविहार में २५,००० से अधिक लोग, जिनमें ४३ देशों के २००० से अधिक विदेशी सम्मिलित थे, बड़ी उत्सुकता से परम पावन दलाई लामा के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे। परम पावन महाविहार के शीर्ष मंजिल पर अपने आवास से उतरे और मंदिर में मुख्य द्वार से प्रवेश करने के लिए बरामदे का चक्कर लगाते हुए शुभचिंतकों का अभिवादन स्वीकार कर और पुराने मित्रों की ओर देख हाथ हिलाया।
मंदिर के भीतर भिक्षुओं तथा साधारण लोगों की उत्साहभरी मुस्कुराहटों ने उनका अभिनन्दन किया गया। सिंहासन के समक्ष गदेन ठि रिनपोछे, शरपा छोजे और जंगचे छोजे और लिंग रिनपोछे, जिन्होंने, उन्हें महान १८ पथक्रम (लमरिम) की टीकाओं पर शिक्षा देने के िलए मूल निमंत्रण को प्रस्तुत िकया था, ने उनका स्वागत िकया।
सत्र तिब्बती में 'हृदय सूत्र' तथा 'अभिसमयालंकार' और 'मूल प्रज्ञा' के वन्दना के सस्वर पाठ से हुआ, जिसके पश्चात लमरिम वंशानुक्रम प्रार्थना का पाठ हुआ।
"आज हम यहाँ गदेन जंगचे महाविहार में एकत्रित हुए हैं, जहाँ हमारे पास काफी जगह है," परम पावन ने प्रारंभ किया। "मैं ज़ामर पंडित के 'महाबोधिपथक्रम' पर शिक्षा देने वाला हूँ, जो कि पंचेन लोबसंग छोज्ञेन के 'सरल मार्ग' पर एक टीका है। मुझे यह आमदो के एक गुरु से प्राप्त हुआ। मैं 'विमुक्ति हस्त धारण' पर भी प्रवचन दूँगा, जो मुझे क्याब्जे ठिजंग िरनपोछे से प्राप्त हुआ। यदि हम इस बार इसे समाप्त न कर पाएँ तो हम अगले वर्ष इसे समाप्त करेंगे।"
परम पावन ने उल्लेख िकया कि श्रोताओं में कई भिक्षु तीन पीठों से आए हैं - गदेन, सेरा और डेपुंग साथ ही टाशी ल्हुन्पो और नमडोललिंग। उन्होंने कहा कि विगत छह सौ वर्षों में उनका प्रभाव समूचे तिब्बत और उसके पार मंगोलिया तक में फैला था। शास्त्रीय ग्रंथों का अध्ययन कर जो बोधिचित्तोत्पाद व शून्यता की समझ से संबंधित है, उनके भिक्षु धर्म की सेवा करते हैं। उन्होंने उस अध्ययन के िलए 'पथ के क्रम' को आधार बनाये जाने की सराहना की।
भारतीय शास्त्रीय ग्रंथों द्वारा एक व्यापक दृष्टिकोण को, ितब्बत में रचित कई ग्रंथों की अपेक्षाकृत संकीर्ण केन्द्र की विषमता स्पष्ट करते हुए परम पावन ने कहा कि तिब्बती निर्वासन में आए, कठिनाइयों का सामना िकया और वे यहाँ वहाँ बिखरे हुए थे। पर परिणाम स्वरूप उन्होंने कहीं अधिक व्यापक दृष्टि प्राप्त कर ली है इसकी तुलना में यदि तिब्बत में जिस रूप में थे उसी रूप में होते। उन्होंने हरिभद्र की टिप्पणी का उल्लेख किया कि, दो प्रकार के शिष्य होते हैं, एक जो श्रद्धा से प्रेरित होते हैं, दूसरे जो युक्ति से। अधिकांश रूप से बौद्ध शिक्षाएँ तीक्ष्ण बुद्धि वालों के लिए हैं।
परम पावन ने कहा कि यद्यपि कइयों ने पहले सुना होगा, पर वे उन लोगों के िलए बौद्ध धर्म का एक प्रासंगिक परिचय देना चाहते हैं जो उन स्थानों से आए हैं जो पारंपरिक रूप से बौद्ध नहीं हैं। उन्होंने अपने शिक्षा को लेकर व्यवहार के संबंध में बुद्ध की सलाह को उद्धृत किया, कि जिस प्रकार एक सुनार सोने का परीक्षण व जाँच करता है, उसे उसी समय स्वीकार करो जब आपने प्रतिस्थापित कर लिया हो कि वह सच्चा है। नागार्जुन और अन्य आचार्यों ने उनकी सलाह का अनुपालन िकया, यह भेद करने के िलए कि उनकी शिक्षाओं में से कौन सी नीतार्थ हैं और शब्दशः स्वीकार की जा सकती हैं तथा कौन सी नेयार्थ हैं और व्याख्या की अपेक्षा रखती हैं।
उन्होंने टिप्पणी की कि आज जीवित ७ अरब लोगों में कम से कम १ अरब दावा करते हैं कि उनकी िकसी धर्म में आस्था नहीं है। जो अन्य हैं, उनमें से कई सच्चे नहीं हैं और वे मात्र अपने चुने धर्म को सतही तौर पर मानते हैं। परम पावन ने पोप फ्रांसिस द्वारा एक जर्मन बिशप जो संभवतः सादगी और संतोष का उपदेश दे रहा था जबकि स्वयं सुख साधन भरा जीवन जी रहा था, की बर्खास्तगी के लिए उनकी प्रशंसा की। परम पावन ने सुझाया कि ठि रिनपोछे और तिब्बती विहाराध्यक्षों को समान रूप से सख्त होना चाहिए।
धार्मिक परंपराओं को दो वर्गों में िवभाजित करते हुए, एक जो सृजनकर्ता ईश्वर में िवश्वास करते हैं और अन्य जो सृजन को कार्य कारण सिद्धांत और कर्म के कार्यों का परिणाम मानते हैं, जिसका सार है कि हमें जो अनुभव करना पड़ता है वह हमारे कार्यों का फल है। भारत में ऐसे बौद्ध हैं जो डॉ बी आर अम्बेडकर के उदाहरण का अनुसरण करते हैं, जो कर्म शब्द के प्रयोग पर क्रोध प्रकट करते हैं क्योंकि यह शब्द ब्राह्मणों द्वारा निचली जातियों के अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करने के लिए प्रयोग किया जाता है। परम पावन ने टिप्पणी की, कि जहाँ जैन एक सृजनकर्ता ईश्वर को स्वीकार नहीं करते वे एक अंतहीन आत्मा पर बल देते हैं। दूसरी ओर बौद्ध इस बात को अस्वीकार करते हैं कि किसी प्रकार की स्वतंत्र आत्मा है। मध्यमक दर्शन के अनुसार आत्मा स्वतंत्र नहीं, पर संतति के आधार पर ज्ञापित है।
बौद्ध धर्म के अंदर पालि परंपरा विशेष रूप से िवनय के ग्रंथों और चर्या को संरक्षित करती है। संस्कृत परंपरा, जिसमें तंत्र शामिल है चीन, साथ ही कोरिया, जापान और वियतनाम में फैली। ८वीं सदी में यह शांतरक्षित व पद्मसंभव द्वारा भारत से तिब्बत लाई गयी। यह शांतरक्षित थे, जिन्होंने बौद्ध साहित्य के तिब्बती अनुवाद को प्रोत्साहित किया और परम पावन ने कहा कि वे अत्यंत भावुक हो जाते हैं जब वे इस ७३ वर्षीय भारतीय आचार्य द्वारा स्वयं तिब्बती सीखने के िलए िकए गए प्रयास के विषय में सोचते हैं। परिणाम स्वरूप, आज कोई भी तिब्बती अपनी भाषा में बुद्ध की शिक्षाओं का अुनभव करने में समर्थ है। संस्कृत मात्र विद्वानों की एक भाषा बन गई है और पालि बौद्ध सोच की गहनता को व्यक्त नहीं करती। पर तिब्बती, वर्तमान में बौद्ध दार्शनिक विचारों को व्यक्त करने की सबसे सक्षम भाषा है और इसी कारण इसका संरक्षण इतना महत्वपूर्ण है।
परम पावन ने यह माना कि कुछ लोग ऐसे हैं, जो इस विवाद में उलझे हैं कि क्या महायान और तंत्र बुद्ध द्वारा देशित थे, और इसलिए क्या तिब्बती बौद्ध धर्म एक विशुद्ध परंपरा है। पर जे चोंखापा अपने 'महाटीका' में कहते हैं कि चार आर्य सत्यों की शिक्षा बौद्ध धर्म की सभी परम्पराओं में दी जाती है, जबकि बुद्ध की सभी देशनाएँ सत्य द्वय पर आधारित हैं। और सत्य द्वय को समझने के िलए आपको मध्यमक दर्शन पर निर्भर होना होगा।
'ज़ामर पंडित' के 'महाबोधिपथक्रम' की ओर मुड़ते हुए परम पावन ने उल्लेख किया कि १३वें दलाई लामा के नोर्बुलिंगा राजभवन में लेखक ज़ामर पंडित का एक चित्र है। उन्होंने कहा कि किसी भी प्रवचन को सुनने से पहले हमें अपने उद्देश्य को सही करना चाहिए। हमें िकसी इनाम की आशा करते हुए सुनना नहीं चािहए और न ही डींगे मारने के लिए कि हमने कितने प्रवचन सुने हैं। उन्होंने सुझाया कि बुद्ध, धर्म और संघ में शरण लेना हमें बौद्ध बनाता है। बोधिचित्तोत्पाद हमें महायान का एक अंग बनाता है। 'मैं' की स्थिति को ध्यान में रखते हुए जो ये कदम उठाता है, वह हमें यह समझाता है कि आत्म उस रूप में नहीं होता जिस रूप में वह दृश्य है।
'ज़ामर पंडित का भाष्य' छह प्रारंभिक चर्याओं से प्रारंभ होता है, प्रेरणा जनित करना, समर्पण को सजाना इत्यादि जिसके िलए परम पावन ने फाबोंखा के 'विमुक्ति हस्त धारण' को खोलने के पूर्व पाठ िकया।
शिक्षण में भाग लेने वाले प्रत्येक को मध्याह्न का निशुल्क, सादा शाकाहारी भोजन दिया गया।
अंतराल के पश्चात लौटने पर परम पावन ने कहा ः
"यदि आप मात्र अपने स्वयं के कल्याण के विषय में सोचते हैं तो यह मुक्ति की कामना करने के लिए पर्याप्त है, पर यदि आप दूसरों की सहायता करना चाहते हैं, तो आप को बोधिचित्त के आधार पर प्रबुद्धता प्राप्त करने की आवश्यकता है। जब तक आप आत्म पोषित विचारों के साथ व्यस्त हैं, वे इसमें एक बाधा हैं। और बोधिचित्त के बिना आप जो भी तांत्रिक अभ्यास करें, वह उद्देश्य में फलित न होगा। और तो और हमें प्रतीत्य समुत्पाद की समझ की आवश्यकता है। जे चोंखापा ने अपने 'प्रतीत्य समुत्पाद की स्तुति' में इस सिद्धांत के लिए न केवल हृदय की गहराइयों से अपितु अपनी अस्थियों की मज्जा से अपनी प्रशंसा व्यक्त की है।"
परम पावन ने उल्लेख किया कि १९वीं सदी के उत्तरार्ध और २०वीं सदी के उत्तरार्ध में जु मीफम ने जे रिनपोछे के विचारों की व्याख्या पर कुछ आलोचना व्यक्त की। जैसे खुनु लामा रिनपोछे ने उन्हें बताया था, कि पाट्रुल रिनपोछे के एक शिष्य मिनयक कुनसंग सोनम ने, इस आलोचना का उपयुक्त रूप से प्रतिकार िकया।
परम पावन ने टिप्पणी की, कि मात्र िकसी ग्रंथ को कंठस्थ करना ही पर्याप्त नहीं है, हमें उसके अंदर देखने की आवश्यकता है और आत्मा की भ्रांति का मुकाबला करने के िलए जो समझ हमने प्राप्त की है उसका उपयोग करने की आवश्यकता है। उन्होंने आगे कहा कि कुछ लोग ऐसे हैं जो िनर्देशों को केवल चर्या के िलए समझते हैं, जबकि पाँच शास्त्रीय ग्रंथ केवल बौद्धिक समझ का स्रोत हैं। शिक्षण की शैलियों के संबंध में उन्होंने अनुभवात्मक निर्देश का उल्लेख किया जिसमें गुरु, विषय का एक अंग शिक्षित करता है और अगली शिक्षा उसी समय देता है जब शिष्य ने पूर्व सुनी शिक्षाओं के संदर्भ में कुछ अनुभव उत्पन्न किया हो। उन्होंने मिलारेपा का उदाहरण दिया जो अपने आचार्य से परामर्श करने के लिए उसी समय अपना एकांतवास छोड़ते थे जब उन्हें िकसी स्पष्टीकरण की आवश्यकता होती थी। एक बार जब उन्हें वह मिल जाती तो वे अपनी गुफा में लौट जाते। उनके संबंध में फबोंखा रिनपोछे कहते हैं कि वे एक व्यावहारिक प्रवचन देने का इरादा रखते हैं।
यह नालंदा परम्परा थी जिसमें तीन विशुद्धताओं की रूप रेखा से प्रारंभ किया जाता था, आचार्य की निर्देश, शिष्य के िचत्त और धर्म के विषय की विशुद्धता, विक्रमशिला परंपरा में लेखक की महानता, शिक्षण की महानता और किस प्रकार श्रवण िकया जाए का वर्णन था। 'विमुक्ति हस्त धारण' में अतिश के जीवन का विस्तृत वर्णन और उनके तिब्बत आगमन का वर्णन है। अंत में, परम पावन ने कहाः
"अतीश इस प्रकार के थे। हम सब को भी उनके समान होने की प्रेरणा रखनी चाहिए ः बुद्धिशाली, विद्वान, सुस्वभाव और नैतिकता पूर्ण।"
परम पावन ने उल्लेख िकया कि १३वें दलाई लामा अपने जीवन काल के पूर्वार्ध में फबोंखा िरनपोछे के पक्षधर थे जब उन्होंने एक सांसारिक दृष्टिकोण अपनाया, तथा हयग्रीव एकांतवास और गोलियों के निर्माण का उदाहरण िदया जिसके बारे में ठिजंग रिनपोछे ने उन्हें बताया था। परन्तु शुगदेन के साथ फबोंखा की भेंट के बाद, जिसके परिणामस्वरूप वह खुले रूप में सांप्रदायिक बन गए, अपने जीवन के उत्तरार्ध में १३वें दलाई लामा तथा वे दूर हो गए थे।
सत्र के अंत से पहले, परम पावन ने कहा कि तिब्बती राजाओं ने दो महत्वपूर्ण ग्रंथ, कमलशील का 'भावना क्रम' और अतीश के 'बोधि पथ प्रदीप' का अनुरोध किया था। उन्होंने जे चोंखापा के 'मार्ग के तीन प्रमुख अंग' और अतीश के ' बोधि पथ प्रदीप ' के बीच तुलनात्मक दृष्टिकोण भी प्रस्तुत िकया। एक चित्त को भव चक्र के आकर्षणों से विमुख करने पर आधारित है, जबकि दूसरा तीन प्रकार की क्षमता वाले पुरुषों के दृष्टिकोण की व्याख्या करता है।
सत्र का समापन मंदिर को पूरित करने वाली लमरिम प्रार्थना के उत्साह पूर्ण सस्वर पाठ से हुआ। प्रवचन प्रातः पुनः जारी रहेंगे।