मुंबई, भारत - १८ सितम्बर २०१४ - इंडियन मर्चेंट्स चैंबर (आईएमसी) की स्थापना २०वीं सदी के प्रारंभ में भारतीय उद्यमियों द्वारा व्यापार, वाणिज्य और उद्योग को बढ़ावा देने के लिए हुई थी। भारतीय अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने के लिए समर्पित होने के कारण महात्मा गांधी ने इसकी मानद सदस्यता स्वीकार की थी। इसका एक महिला वर्ग भी है, जो महिलाओं को व्यापारिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए प्रेरणा देने, प्रेरित करने, प्रोत्साहित देने से संबंधित है। अपने १०८वें संस्थापन दिवस समारोह के अवसर पर प्रबंधक समिति ने परम पावन दलाई लामा को मुख्य अतिथि के रूप में और 'धर्मनिरपेक्ष नैतिकता' पर संबोधित करने के लिए उन्हें आमंत्रित िकया था।
आई एम सी के अध्यक्ष, प्रबोध ठक्कर ने नरीमन प्वाइंट पर वाई बी चव्हाण सभागार में पहुँचने पर परम पावन का स्वागत किया और उन्हें मंच पर ले गए। उन्हें दीप प्रज्ज्वलित कर कार्यक्रम का उद्घाटन करने के लिए आमंत्रित किया गया। सुश्री लीना वैद्य, आई एम सी महिला वर्ग की पूर्व अध्यक्षा ने ६०० से अधिक खचाखच भरे दर्शकों को परम पावन का परिचय दिया।
सदा की तरह उन्होंने अपने व्याख्यान का प्रारंभ अपने श्रोताओं को भाइयों तथा बहनों के रूप में संबोधित करते हुए किया और कहा कि वे उनके बीच आकर कितने प्रसन्न थे और हँसी में कहा कि वे जानते थे कि विगत दो वर्षों से वे उन्हें आमंत्रित करने का प्रयास कर रहे थे। अपनी बात जारी रखते हुए वे बोले:
"जब भी मैं किसी से मिलता हूँ तो मैं उन्हें सिर्फ एक अन्य मनुष्य के रूप में देखता हूँ। हममें से कइयों के समक्ष कई समस्याएँ हैं, जिनमें से अधिकांश हमारी स्वयं की निर्मित हैं। वे इस कारण उत्पन्न होती हैं क्योंकि हम अपने बीच के गौण मतभेदों पर अधिक ध्यान देते हैं, इसके बजाय कि इस बात पर कि वह क्या है जो हमें एक मानव परिवार के सदस्यों के रूप में एक करती है। यदि हम सम्पूर्ण मानवता की सोचें तो हमारे बीच कोई झगड़ा नहीं होना चाहिए। जलवायु परिवर्तन हम सभी को प्रभावित करता है जबकि वैश्विक अर्थव्यवस्था का प्रकार्य भी राष्ट्रीय सीमाओं अथवा इस या उस धार्मिक विश्वास से परे है।"
"विश्व की जनसंख्या निरन्तर बढ़ रही है साथ ही निर्धनों की संख्या भी बढ़ रही है। धनाढ्यों तथा निर्धनों के बीच की खाई नैतिक रूप से अनुचित है। इन सब चीज़ों से निपटने के लिए हमें एक दूसरे को एक ही मानव परिवार के सदस्यों के रूप में देखना होगा। हमें एक दूसरे का विश्वास करना होगा और ऐसा विश्वास इस भावना पर आधारित किया जा सकता है कि हम सभी मनुष्यों के रूप में एक जैसे हैं।"
परम पावन ने कहीं एक भारतीय अधिकारी और उनकी पत्नी से मिलने और उनसे हाथ मिलाने की बात की। पर जब उन्होंने उनके बच्चंो की देखभाल करने वाली महिला से हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ बढ़ाया, तो वह संकोच के कारण सिमट गई क्योंकि स्पष्टतः उनके समक्ष वह छोटा महसूस कर रही थी। उन्होंने सोवेटो, दक्षिण अफ्रीका में एक अफ्रीकी परिवार के साथ हुई भेंट का भी वर्णन किया। जब परम पावन ने नए लोकतांत्रिक संविधान के तहत उनसे अधिक स्वतंत्रता और समानता प्राप्त करने की उनकी आशाओं के विषय में पूछा तो उनमें से एक ने अपना सिर झुका लिया और कहा "हम गोरों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते; हमारे दिमाग इतने अच्छे नहीं हैं। परम पावन ने कहा कि वे हैरान रह गए और उसे उलाहना देते हुए कहा कि गोरों और काले लोगों के दिमाग अलग नहीं हैं। उन्होंने तर्क दिया कि यदि उन्होंने वैज्ञानिकों से पूछा तो वे उन्हें बताएँगें कि उनके दिमाग अलग नहीं हैं। अंततः अफ्रीकी ने दीर्घ विश्वास के साथ स्वीकार किया कि यह सच हो सकता है, जबकि परम पावन को लगा कि उन्होंने कम से कम उसे सुनिश्चित कर कुछ हासिल किया।
भारत के प्रति अपने ध्यान को वापस लाते हुए, परम पावन ने कहा कि प्राचीन सिंधु घाटी सभ्यता ने अनूठी संख्या में विचारकों और दार्शनिकों को जन्म दिया था। समय के साथ उनसे जो हिंदू, जैन और बौद्ध परंपराओं ने जन्म लिया, उन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय के महान आचार्यों को जन्म दिया। आजकल कई वैज्ञानिक उस ज्ञान से सीखने के िलए उत्सुक हैं जो वहाँ विकसित हुईं थीं और इस तरह जो सिंधु घाटी में प्रारंभ हुई थी उसका प्रभाव, जो हम आज जानते हैं, उस पर भी बना हुआ है।
परम पावन ने १४/१५ शताब्दी के एक तिब्बती आचार्य की पंक्तियों को दोहराया जिसमें आता है 'कि तिब्बत, बर्फ की भूमि में स्वाभाविक रंग श्वेत है पर फिर भी जब तक भारत से प्रकाश नहीं आया तब तक तिब्बत अंधकार में था। केवल जब वह प्रकाश आया तो तिब्बत प्रकाशवान हुआ।' तिब्बतियों के लिए भारतीय गुरु थे जबकि वे शिष्य थे। पर उन्होंने हँसते हुए कहा कि वे बहुत अधिक विश्वसनीय शिष्य थे, क्योंकि ज्ञान की जो निधि नालंदा से निकली, वह भारत में फीकी पड़ चुकी थी, जबकि उसे तिब्बत में सुरक्षित रखा गया था। अब उसे उसके उद्गम स्थान में लौटा दिया गया है।
"आज, समकालीन भारतीयों में, भौतिक विश्व के आधुनिक ज्ञान को नालंदा परंपरा में व्यक्त प्राचीन ज्ञान के साथ जोड़ने की क्षमता है। आज की हमारी कई समस्याएँ, हमारी आंतरिक मूल्यों की कमी से निकलती हैं। हर कोई शांति चाहता है, पर यह कहाँ बसता है? जब किसी व्यक्ति का हृदय शांतिपूर्ण होता है तो वहाँ शांति और अहिंसा होती है। इस तरह आंतरिक की शांति के बिना अहिंसा असंभव है। इसलिए शांति इस पर निर्भर है कि हम अपनी भावनाओं का प्रबंधन किस प्रकार करते हैं। अपनी विनाशकारी भावनाओं के साथ निपटने के लिए हमें यह जानना होगा कि भावनाएँ किस प्रकार कार्य करती हैं। फिर हम अपने क्रोध और भय से निपट सकते हैं।"
परम पावन ने अपने श्रोताओं को छेड़ते हुए कहा कि अधिकांश भारतीय प्रतिदिन प्रातः गणेश, सरस्वती, शिव इत्यादि की प्रार्थना करना पसंद करते हैं, पर ऐसी प्रार्थनाएँ अपने आप में शांति नहीं लातीं। चित्त की शांति प्राप्त करने का उचित उपाय अपनी विनाशकारी भावनाओं पर काबू पाना और सकारात्मक भावनाओं का विकास करना है। उन्होंने कहा कि यह ज्ञान कि इसे किस प्रकार किया जाए, भारत के खजाने के रूप में उसकी प्राचीन आध्यात्मिक परंपराओं में निहित है।
"सुखी जीवन व्यतीत करने के लिए केवल धन की ही आवश्यकता नहीं, अधिक महत्वपूर्ण, चित्त की शांति की खोज है। हम इसे धर्मनिरपेक्ष नैतिकता, हमारी प्राचीन परंपराओं के आंतरिक मूल्यों को अपनाकर पा सकते हैं। परिणामतः हम एक ऐसे पाठ्यक्रम का विकास करने में कार्यरत हैं जिसके द्वारा हम अपनी शिक्षा प्रणाली में धर्मनिरपेक्ष नैतिकता को लागू कर सकें।"
इसके बाद परम पावन ने दर्शकों से प्रश्न आमंत्रित किए और पहला था कि नालंदा का ज्ञान तिब्बत में किस प्रकार संरक्षित हो पाया। उन्होंने उत्तर दिया कि ३०० से अधिक मूल भारतीय ग्रंथों का जो अधिकतर संस्कृत में थे, तिब्बती में अनुवाद हुआ। लगभग १० ग्रंथों का चीनी से अनुवाद किया गया। इन ग्रंथों की सामग्री को प्रमुखतः तीन मुख्य शीर्षकों के अंतर्गत देखा जा सकता है विज्ञान, दर्शन और धर्म। विज्ञान का अध्ययन किसी अन्य अकादमिक विषय की तरह किया जा सकता है। दर्शन के संदर्भ में चार आर्य सत्य की व्याख्या एक बौद्ध निर्देश है, परन्तु सत्य द्वय की व्याख्या एक शैक्षिक दृष्टिकोण से कोई भी अध्ययन कर सकता है। बौद्ध साहित्य में पाए ऐसे स्रोतों से विज्ञान की एक पुस्तक तैयार की गई है और इस समय एक अंग्रेजी संस्करण में तैयार किया जा रहा है, जिसमें से अन्य अनुवाद तैयार किए जा सकते हैं।
परम पावन ने कहा कि आज जीवित ७ अरब मनुष्यों में १ अरब स्वयं को गैर धार्मिक होने की घोषणा करते हैं। उनके साथ भी चित्त की शांति का विचार और साथ ही उसे प्राप्त करने के उपाय साझा करने के मार्ग भी होने चािहए और उनका मानना है कि यह शिक्षा के माध्यम से किया जा सकता है।
यह पूछे जाने पर कि एक भौतिक विश्व में, जीवन के साथ एक आध्यात्मिक मार्ग का संतुलन किस प्रकार बिठाया जाए, परम पावन ने ध्यानाकर्षण किया कि, भौतिक सुविधाएँ केवल शारीरिक सुख देती हैं, जो आवश्यक है। उन्होंने कहा कि ऐन्द्रीय सुख कुछ क्षणिक संतुष्टि देता है, परन्तु मानसिक अनुभूति से प्राप्त संतोष जो ऐन्द्रीय सुखों पर निर्भर नहीं होता, वह दीर्घकालीन होता है। बहुतों की मान्यता है कि सुख धन तथा शक्ति पर निर्भर करता है, जबकि कुछ स्त्रियों का मानना है कि इसके लिए एक सुंदर चेहरे की आवश्यकता है। परम पावन ने १९६० के तिब्बती सरकार के एक अधिकारी की बात की, जो पहले एक भिक्षु थे पर उन्होंने अपना चीवर का त्याग कर विवाह कर लिया। परम पावन ने उन्हें छेड़ा कि उनकी पत्नी बहुत आकर्षक नहीं थीं और उसने प्रत्युत्तर में कहा कि संभवतः देखने में वे बहुत सुंदर नहीं हैं, पर जहाँ तक आंतरिक सौन्दर्य का प्रश्न है, वे असाधारण थीं। परम पावन ने पुष्टि की, कि ऐसा आंतरिक सौंदर्य, सौहार्दता ही वास्तव में महत्वपूर्ण हैं।
उन्होंने टिप्पणी की कि दुर्भाग्य से इन दिनों हम ऐसे धार्मिक लोग भी देखते हैं जो भ्रष्ट हैं। उनमें आस्था तो है पर नैतिकता की कोई भावना नहीं है। वे प्रतिदिन प्रातः पुष्प तथा धूप द्वारा प्रार्थना करते हैं, पर ऐसा प्रतीत होता है मानों वे माँग रहे हैं, "कृपया मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मेरी भ्रष्ट गतिविधियाँ सफल हों।" दर्शकों में हँसी छा गई और परम पावन ने एक भक्त क्यूबा के शरणार्थी की एक और कहानी सुनाई, जिससे वे संयुक्त राज्य अमेरिका में मिले थे, जिसने उनसे सच्चाई से कहा कि वह प्रतिदिन प्रार्थना करता था कि भगवान शीघ्रातिशीघ्र फिदेल कास्त्रो को स्वर्ग ले जाएँ।
यह प्रश्न पूछे जाने पर कि यदि आज वह आई एस आई एस नेताओं में से किसी एक से मिलें तो वे क्या कहेंगे, उन्होंने उत्तर दिया कि जब लोगों की भावनाएँ पूर्ण रूप से नियंत्रण से बाहर हो जाती हैं, तो उनसे निपटना अत्यंत कठिन है। उन्होंने ११ सितम्बर की घटना के बाद अपने मित्र राष्ट्रपति बुश को लिखे गए पत्र का स्मरण किया, जिसमें उन्होंने संवेदना व्यक्त की पर साथ ही यह आशा भी व्यक्त की कि इसके परिणामस्वरूप जो भी कदम उठाए जाएँगे, वे अहिंसक होंगे। उन्होंने इस जोखिम के प्रति चेताया कि अन्यथा एक बिन लादेन दस या एक सौ बिन लादेन बन जाएगा, जो प्रतीत होता है, कि हुआ है। उन्होंने उल्लेख किया कि मुसलमान मित्रों ने उन्हें बताया है कि एक मुसलमान जो रक्तपात का कारण बनता है मुसलमान नहीं होता और जिहाद बाह्य संघर्ष के बारे में नहीं है, अपितु हमारी विनाशकारी भावनाओं से जूझने के विषय में है।
एक अन्य प्रश्नकर्ता ने उल्लेख किया चीनी राष्ट्रपति और उनकी पत्नी इस समय भारत की यात्रा पर हैं और वह जानना चाहता था कि परम पावन उनके बारे में क्या सोचते हैं। उन्होंने उत्तर दिया कि सबसे पहले तो यह एक राजनैतिक प्रश्न है और वे २०११ से राजनैतिक उत्तरदायित्व से पूर्णतः सेवानिवृत्त हो चुके थे। दूसरी ओर उनका सुझाव था कि यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि भारत चीन संबंध परस्पर विश्वास पर स्थापित किए जाएँ। उन्होंने आशा व्यक्त की, कि शी जिनपिंग भारत में समय बिताते हुए यह देखेंगे कि यद्यपि इस देश में विभिन्न भाषाएँ, लिपियाँ और सांस्कृतिक परंपराएँ पनपती हैं, पर वे अपने साथ अलगाववाद अथवा देश के विघटन का कोई संकट नहीं लातीं। उन्होंने टिप्पणी की, कि चीनी नेताओं द्वारा किए गए सामाजिक सद्भाव की सराहना बल के प्रयोग से नहीं बल्कि मात्र विश्वास के आधार पर आ सकती है। इस बीच चीन एकमात्र देश है जहाँ आंतरिक सुरक्षा का बजट रक्षा के बजट से अधिक है।
उन्होंने शी जिनपिंग के भ्रष्टाचार से निपटने के प्रयासों के प्रति समर्थन और प्रशंसा व्यक्त की और पेरिस में उनके द्वारा की गई टिप्पणी, कि चीनी संस्कृति को पुनर्जीवित करने में बौद्ध धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका है, का उल्लेख किया। चीनी प्रणाली में जहाँ कट्टरपंथियों द्वारा एक यांत्रिक दृष्टिकोण अपनाना जारी है जिसमें सामान्य ज्ञान के लिए बहुत कम स्थान है, शी जिनपिंग और अधिक व्यावहारिक और यथार्थवादी प्रतीत होते हैं।
"कुल मिलाकर मैं आशावान हूँ," उन्होंने कहा, और आगे जोड़ा "कि मैं निश्चित रूप से उनके पिता शि ज़ोंगुन को जानता था, जो चाउ इनलाई के सचिव थे।"
एक अंतिम प्रश्नकर्ता ने हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म के बीच का अंतर पूछा। परम पावन ने उत्तर दिया कि शील, नैतिकता, समाधि - एकाग्रता, और विपश्यना, वे सब एक जैसे हैं। वे दोनों भी कर्म और पुनर्जन्म का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। जहाँ उनमें अंतर है वह उनके आत्मा और नैरात्मा पर बल देने को लेकर है। उन्होंने कहा:
"मैं एक बौद्ध हूँ, इसलिए मैं नैरात्मा दृष्टि का अनुपालन करता हूँ, पर आप जो भी विश्वास रखें, आत्मा या नैरात्मा यह एक व्यक्तिगत बात है।"
बैठक को समाप्त करते हुए आई एम सी के महिला वर्ग की अध्यक्षा श्रीमती आरती संघी, ने परम पावन को आने के लिए और एक विचारशील व्याख्यान के लिए धन्यवाद दिया। श्रोताओं ने उत्साह भरी तालियों से समर्थन किया और जैसे ही वे भवन से बाहर निकले, कई उनका सान्निध्य प्राप्त करने हेतु आगे आए।