सिडनी, ऑस्ट्रेलिया, जून 15, 2013 - प्रातः ठीक 9:30 पर परम पावन दलाई लामा ने सिडनी मनोरंजन केन्द्र में पुनः अपना स्थान ग्रहण किया। रंगमंच की पृष्ठभूमि पर एक विशाल पर्दा है, जिस पर विभिन्न ऐतिहासिक बुद्ध की प्रतिमाओं के चित्र प्रदर्शित किए गए हैं। कल के पहले सत्र में दूसरी शताब्दी की ‘उपवास कर रहे बुद्ध’ की प्रतिमा का चित्र प्रदर्शित किया गया, जो परम पावन द्वारा सराही गई। दूसरे सत्र में सार्वभौमिक शांति का प्रतीक बेंडिगो, विक्टोरिया ऑस्ट्रेलिया की आधुनिक हरे पत्थर की बुद्ध प्रतिमा थी, जिसकी नक्काशी थाइलैंड में हुई थी और जिसकी प्राण प्रतिष्ठा 2009 में परम पावन ने की थी। आज प्रातः 6वीं शती की लकड़ी पर नक्काशी की गई बनी चीन की बुद्ध प्रतिमा और आज दोपहर 13वीं शती में जापान के कामाकुरा सेमहान बुद्ध की कांस्य प्रतिमा थी।
परम पावन जी ने श्रोताओं को प्रश्न पूछने के लिए आमंत्रित किया और पहले प्रश्नकर्ता ने पूछा कि जो लोग वेब प्रसारण के माध्यम से प्रवचन सुन रहे हैं, क्या वे यह मानकर चलें कि उन्हें मौखिक प्रसारण मिल रहा है। उनका संक्षिप्त उत्तर थाः ‘ठीक है’। अगला प्रश्न किसी ऐसे व्यक्ति से था, जिसने कहा कि उसे परोपकार और बोधिचित्त की भावना के उत्पाद की संभावना बहुत चुनौतीपूर्ण जान पड़ती है। परम पावन जी ने यह कहते हुए स्वीकार किया कि जब वे लगभग तीस के थे तो उन्हें लगा कि शून्यता की अनुभूति की जा सकती है, पर परोपकार की भावना बहुत कठिन थी। परन्तु निरंतर परिचय ने उसे सरल कर दिया है और यह एक ऐसी भावना है, जिससे वे स्वयं को बहुत निकट पाते हैं। प्रज्ञा के संदर्भ में और कब वस्तुओं का स्व अस्तित्व रखने वाली दृष्टि समाप्त होगी। परम पावन ने कहा कि स्वतंत्र अस्तित्व का स्वरूप निर्वाण के पूर्व क्षण तक बनी रहता है। यह पूछे जाने पर कि करुणा और किसी के प्रति दया की भावना में क्या अंतर है, उन्होंने कहा कि करुणा में केवल सहानुभूति की भावना नहीं होती पर उस ओर कुछ करने की भी इच्छा होती है।
आज हृदय सूत्र का पाठ कोरियन में लकड़ी की बनी मछली के स्थिर ताल पर बड़ी तेज़ी से हुआ, जिसके बाद जापानी में शरण गमन के पद का पाठ मर्मस्पर्शी रूप से हुआ, एक ऐसे रूप में, जिसके बारे में परम पावन ने कहा कि उन्होंने यह पहले कभी न सुना था।
उन्होंने नागार्जुन की रत्नावली से उद्धृत करते हुए अपने विचार प्रारंभ किएः
‘सत्त्वों के कल्याण के लिए जो परम निर्वाण प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें बोधिचित्त का विकास करना चाहिए, जो कि महाकरुणा और सही दृष्टि पर आधारित हो।’ यह वे तथ्य हैं, जिनको ध्यान के दौरान हमें अपने अंदर विकसित करने हैं।”
बोधिचित्त के प्रशिक्षण के विकास के लिए ध्यान में बैठना और ध्यानोपरांत सत्र आवश्यक है। आचार्य कमलशील के ‘भावना क्रम’ का मध्य भाग यह स्पष्ट करता है। वे कहते हैं कि ध्यान के बाद का समय भी महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। यह अपने क्लेशों को मुक्त करने का समय है।
परम पावन ने सलाह दी कि जो इस अभ्यास को लेकर गंभीर हैं, उन्हें थोड़ी जल्दी उठने का प्रयास करना चाहिए। उन्होंने कहाः
“मैं गंभीर अभ्यासी होने का दावा नहीं करता, पर मैं प्रातः 3:30 उठता हूँ। मैं सीधा बुद्ध का ध्यान करता हूँ और शून्यता तथा बोधिचित्त के विषय में चिंतन करता हूँ। मैं थोड़ा व्यायाम करता हूँ और काफी समय विपश्यना ध्यान करने में लगाता हूँ। यही वास्तव में चित्त को परिवर्तित करता है। फिर मै सुबह का नाश्ता करता हूँ। मै सलाह देता हूँ कि यदि आप इसको लेकर गंभीर हैं तो अपना समय इस तरह नियोजित कर लें। प्रातः जल्दी उठने के लिए, निस्सन्देह आपको करीब सात घंटे की नींद की आवश्यकता है जो आपको एक आधारभूत तीक्ष्ण चित्त सुनिश्चित करेगा।”
उन्होंने एक घटना सुनाई कि जब वे बर्लिन में ठहरे थे और उनके होटल के सामने एक नाइट क्लब में उन्होंने जब वे सोने गए तब से उनके जागने तक लोगों को नाचते देखा। हँसते हुए वे बोले, कि आनंद लेने में कोई बुराई नहीं है, पर यदि आप एक कुशाग्र बुद्धि चाहते हैं तो आपको पर्याप्त नींद की आवश्यकता है। उन्होंने याद किया कि 1950 में तिब्बत में वे जब लोगों से मिले तो वे जानते थे कि वे लोग सच नहीं बोल रहे और यह भी देखा कि यदि वे लोगों को धोखा देना चाहते या ठगना चाहते थे तो भी उन्हें बुद्धि की आवश्यकता थी।
कमलशील के ‘भावनाक्रम’ में स्पष्ट किया गया है कि ध्यान के सत्रों के बीच क्या करने की ज़रूरत है। यह प्रारंभिक अभ्यासों के विषय में समझाता है। यद्यपि किसी पुण्य क्षेत्र की कल्पना का वर्णन नहीं है, यह सप्तांग अभ्यास की रूपरेखा देता है। फिर हम ध्यान में बैठते हैं और कल्पना या विश्लेषण करते हैं। अंत में सकारात्मक शक्ति का दूसरों के कल्याण के लिए समर्पित करना महत्त्वपूर्ण है। जब हम ध्यान से बाहर आते हैं तो हमारी जागरूकता छूटनी नहीं चाहिए। यदि हम अपना अभ्यास बनाए रखेंगें, तो जब हम अगले सत्र को प्रारंभ करेंगे तो यह हमारे ध्यान को सशक्त कर देगा।
परम पावन ने समझाया कि चित्त की एकाग्रता का विकास करने में ध्यान के लिए किसी वस्तु के रूप में हम कुछ भी ले सकते हैं जैसे कि एक पुष्प। सबसे पहले हमारे अपने चित्त में उसके विषय में एक स्पष्ट चित्र होना चाहिए, उसके बाद उस पर ध्यान केन्द्रित करें, अपनी आँखों से नहीं पर अपने चित्त में। उन्होंने कहा कि आँखों को बंद रखना सहायक हो सकता है पर आँखों को खुला रख और दृश्य चेतना को निष्क्रिय करना और अधिक सहायक होगा। समय के चलते, हम चित्त को ही ध्यान की वस्तु बना सकते हैं। वस्तु जो भी हो, महत्त्वपूर्ण बात है, कि अपनी ऐन्द्रिक चेतनाओं के कारण चित्त भटके नहीं। हमें अतीत के विचारो और भविष्य की संभावनाओं को लेकर भी ध्यान बँटने की स्थिति से बचना चाहिए।
“स्थिर ध्यान की स्थिति में रहने का प्रयास कीजिए। क्रमशः आप पाएँगे कि आप बैठने के समय को बढ़ा सकते हैं। एक भावना जन्म लेगी, जैसे निर्मल जल या फिर एक स्पष्ट आइने में देखना, जो बिना कुछ जोड़े सब कुछ प्रतिबिम्बित करता है। एक बार आपको किसी प्रकार का अनुभव हो जाए तो उसके साथ बने रहने का प्रयास करें। इसी तरह आप शमथ या एकाग्रता का विकास कर सकते हैं। आप चित्त की स्पष्टता और जागरूकता को देख सकते हैं। आप चित्त के भीतर के क्षण क्षण होते परिवर्तित रूप को देख सकते हैं और साथ ही देख सकते हैं कि किस तरह चित्त जो वस्तु और विषय है, वे दोनों उसी चित्त का भाग हैं।”
परम पावन ने उन तथ्यों की ओर संकेत किया जो स्थिरता में बाधा डालते हैः ध्यान बँटना और उत्तेजना, जबकि मानसिक शैथिल्य स्पष्टता को बाधित कर सकता है। उन्होंने सलाह दी कि प्रारंभ में ध्यान सत्र छोटे हों, पर उन्हें क्रमशः बढ़ाया जा सकता है।
दोपहर के खाने के दौरान परम पावन तिब्बतियों, मंगोलाई और भूटान के एक समुदाय से मिले।
“हम सभी की धार्मिक और सांस्कृतिक परम्परा की साझेदारी है और यह उस समय प्रारंभ हुई जब शांतरक्षित तिब्बत में बौद्ध धर्म लेकर आए। हम उसे तथा अपनी भाषा को लेकर गर्व का अनुभव कर सकते हैं।”
प्रवचन स्थल पर लौटने पर उन्होंने कहाः
“मैं 1956 में 2500वीं बुद्ध जयन्ती के उत्सव में भाग लेने के लिए भारत आया था, उस समय मैने एक पाश्चात्य भिक्षुणी को देखा था। जब 1959 में, मैं भारत लौटा तो मैंने पूछा कि वह कहाँ है और यह सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ कि बौद्ध धर्म को लेकर उसका मन भर गया था और बौद्ध धर्म की काफी आलोचक हो गई थी। स्पष्ट था कि उसने प्रारंभ में पर्याप्त जाँच पड़ताल नहीं की थी। साधारणतया जब मैं विदेशों में बोलता हूँ, तो लोगों से कहता हूँ कि आप जिस धर्म में पैदा हुए हो उसी से जुड़ा रहना कहीं अधिक भला है। परिवर्तन सरल नहीं है, और इसमें कुछ एक प्रकार का खतरा जुड़ा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अपवाद हो सकते हैं, जैसे यहाँ ये भिक्षु और भिक्षुणियाँ, जो एक लम्बे समय से अभ्यास में लगे हैं।”
उन्होंने खुनु रिनपोछे का ‘रत्न दीप’ खोला, यह कहते हुए कि वे उसे जल्दी जल्दी पढ़ते हुए मौखिक दीक्षा देंगे और जहाँ किसी पद का स्पष्टीकरण करना होगा, वहीं रुकेंगे। उन्होंने 303 पद पढ़े। जब वे रुके तो उन्होंने कहा कि वे उसे कल समाप्त करेंगे, जब वे साधारण लोगों को व्रत देंगे, बोधिचित्तोत्पाद के लिए आयोजन और बोधिसत्व व्रत देंगे ।
उन्होंने स्पष्ट किया कि अब तक उनके द्वारा दी गई ग्रंथ की व्याख्या एक व्याख्यान के रूप में थी, पर कल के विभिन्न आयोजन एक गुरु - शिष्य संबंध के रूप में होंगे। इसलिए उपस्थित श्रोताओं में जो भी दुरात्मा दोलज्ञेल, जो शुगदेन के नाम से भी जानी जाती है, की पूजा करते हैं, उनसे वे आग्रह करना चाहते हैं कि वे न आएँ। उन्होंने कहाः
“अज्ञान के कारण 1951 से 1970 तक मैं इस की पूजा करता रहा। बाद में मैंने पाया कि 5वें दलाई लामा, जिन्हें इसका पूरा ज्ञान था, ने कहा था कि यह एक ऐसा अस्तित्व है जो विकृत प्रार्थनाओं के कारण पैदा हुई है, जो सत्त्वों को और बुद्ध की शिक्षाओ को हानि पहुँचाती है। 13वें दलाई लामा ने भी इसे सीमित करने का प्रयास किया। मैंने अनुभव किया कि यह गंभीर है और मेरा इसके विषय में अन्य लोगों को बताने का उत्तरदायित्व बनता है, यद्यपि उनकी इसको लेकर क्या प्रतिक्रिया होती है, यह उन पर निर्भर करता है। ”
‘रत्न दीप’ का पाठ करते हुए परम पावन ने कई पदों के उनकी विशिष्टताओं के लिए संदर्भ दिए; निम्नलिखित पद के लिए उन्होंने कहा कि वह विशिष्ट रूप से महत्त्वपूर्ण हैः
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प्रातः जब तुम उठते हो, तो बोधिचित्त के सम रहने का उद्देश्य हृदय से जनित करो। शाम को सोने के पूर्व जाँच लो कि आपने जो कुछ भी किया है वह बोधिचित्त के अनुसार है अथवा उसके विपरीत।