हेनोवर, जर्मनी - सितम्बर १९, २०१३ - आज प्रातः परम पावन दलाई लामा को हेनोवर की पश्चिमी दिशा में पच्चीस किलोमीटर पर स्थित एक छोटे शहर वुनस्टॉर्फ में आमंत्रित किया गया। वुनस्टॉर्फ के मेयर रॉल्फ – एक्सेल एबरहार्ड्ट और उनकी पत्नी ने टॉउन हॉल पर पहुँचने पर उनका स्वागत किया। जबकि कुछ युवा संगीत के विद्यार्थियों ने उनके सम्मान में संगीत प्रस्तुत किया। अपने स्वागत कथन में मेयर ने उल्लेख किया कि कुछ वर्षों पूर्व मेयरों के एक सम्मेलन में उनकी भेंट परम पावन से हुई थी पर उन्होंने यह कल्पना भी न की थी कि वे वुनस्टॉर्फ आएँगे। ५०,००० लोगों का यह छोटा शहर ९७ राष्ट्रों का तथा सभी
महत्त्वपूर्ण धर्मों का प्रतिनिधित्व करता है। अपने उत्तर में परम पावन ने कहाः
“आदरणीय मेयर, मुझे यहाँ आमंत्रित करने के लिए और नौका की यह मॉडल भेंट करने हेतु, जो प्रतीक है कि किस तरह धार्मिक भाई बहन आपस में मिलकर कार्य कर सकते हैं, मैं आपके भावों की अत्यंत सराहना करता हूँ। आदर और शिक्षा के आधार पर धर्मों के बीच समन्वय बढ़ाना मेरे जीवन की प्रतिबद्धताओं में से एक है। जो समन्वय और सहयोग आपने यहाँ स्थापित किया है वह दूसरों के लिए उदाहरण प्रस्तुत करता है।”
टॉउन हॉल से परम पावन निकट के स्टेनह्यूड, स्टेनह्यूड नदी के दक्षिणी किनारे की ओर गाड़ी से गए, जहाँ वे एक विशाल शामियाने में एक स्कूल सभा के अतिथि थे। छात्रों की सभा को संबोधित करते हुए, उनमें से कुछ जो ठीक उनके सामने बैठे थे, कम उम्र के युवा शिक्षक और अभिभावक, उन्होंने कहाः
“मेरे युवा भाइयों तथा बहनों, भविष्य आपके कंधों पर टिका है। आपको शिक्षा की आवश्यकता है, पर आपको भविष्य के लिए एक दृष्टि की भी आवश्यकता है। मेरे कई मित्र इंगित करते हैं कि बहुत अधिक रूप से भौतिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा पर्याप्त नहीं है। उसमें हमारे चित्त और भावनाओं पर भी निर्देश शामिल होने चाहिए। विश्व अब छोटा हो गया है और एक स्थान पर जो होता है उसका प्रभाव अन्य स्थान पर पड़ता है। आज के ७ अरबों जीवित मनुष्यों के बीच हमारी कई समस्याएँ हैं, जिनमें हिंसा और युद्ध शामिल हैं, जो कि मानव निर्मित समस्याएँ हैं।”
अपना ध्यान अपने सामने बैठे बच्चों की ओर कर परम पावन ने पूछाः
“आपमें से कई अकसर झगड़ा करते हैं, हैं ना? जब मैं छोटा था, करीब ४ वर्ष का और मेरा भाई ६ साल का था, हम अकसर आपस में झगड़ते थे। पर जब भी हम ऐसा करते, हम उसे शीघ्र भूल जाते और मिनटों में साथ खेलने लगते। बड़े लोगों में किसी शिकायत को मन में पालने और उसका बदला लेने का अवसर ढूँढने की प्रवृत्ति होती है। जब हम संघर्ष का सामना करते हैं तो समाधान के लिए हमें एक मानवीय दृष्टिकोण की आवश्यकता होती हैः संवाद”
“मैं यह जानना चाहता हूँ कि कितने बच्चों को कभी न कभी अपने पिताजी से दंड मिला है, अपने हाथ ऊपर उठाएँ।”
परम पावन जी ने स्वयं अपने हाथ उठाए।
“मेरे पिताजी को जल्दी गुस्सा आता था और कभी भी वे ‘अपने हाथों का आशीर्वाद’ दे दिया करते थे। और आप में से कितनों को अपनी माँओं से दंड मिला है। देखिए, मैं अपने हाथ नहीं उठा रहा, क्योंकि मेरी माँ ने कभी मुझे दंड नहीं दिया। सोचिए, उन दिनों में, जब तुम्हारे माता पिता ने तुम्हें गले से लगाया और तुम्हें देखकर मुस्कुराए, तो आपको अधिक अच्छा लगा, इसके बजाय कि जब उन्होंने तुम्हें दंडित किया, है ना?”
उन्होंने समझाया कि नैतिकता अथवा नैतिक मूल्यों का संबंध सकारात्मक व्यवहार से है और हमारी शिक्षा के दौरान हमें उनके बारे में सीखने की आवश्यकता है। हमें साधारण ज्ञान, अनुभव और वैज्ञानिक खोजों के आधार पर मूल्यों की आवश्यकता है, जिन्हें परम पावन धर्मनिरपेक्ष नैतिकता कहकर संदर्भित करते हैं।
प्रश्नोत्तर के दौरान, पहला प्रश्न था कि वे खाली समय में क्या करते हैं, उत्तर था, मुख्य रूप से, पढ़ना। एक के मन में जिज्ञासा थी कि क्या एक धार्मिक नेता के बजाय वे एक साधारण जीवन जीने की लालसा रखते हैं। उन्होंने अपने शिक्षक के साथ ध्यान एकांत में बैठने की बात की जब वे छोटे थे और गड़रियों को अपनी भेड़ों के साथ चराते हुए आते सुनते थे और यह सोचते थे कि वे कितने खुश होंगे। पर बाद में उन्हें अनुभव हुआ कि वे उनके लिए कुछ लाभदायी कर सकते हैं। यह पूछे जाने पर कि वे उन स्थितियों में भी किस तरह सहानुभूति की भावना रख सकते हैं जो अन्य लोगों में क्रोध भरती है, उन्होंने कहा कि अत्यंत क्रोधित व्यक्ति भी अंततः एक अन्य मनुष्य है। अंत में एक विद्यार्थी जानना चाहता था कि क्या युद्ध रहित विश्व की कल्पना की जा सकती है और परम पावन ने उत्तर दिया कि ऐसा संभव है, पर इसके लिए सच्चा प्रयास करना होगा।
जैसे ही परम पावन वहाँ से रवाना हुए समूचे श्रोता वर्ग ने साथ मिलकर गीत गाया। एक स्थानीय रेस्तराँ ने उनके तथा उनके साथ आए कर्मचारियों के लिए दोपहर के खाने का तोहफा दिया। उसके बाद वे स्टेनह्यूड सरोवर के एक छोटे से टापूस्टेनह्यूड बदेंस गाड़ी से गए जहाँ उन्हें सुनने के लिए ५००० लोग जमा हुए थे। उन्होंने प्रारंभ कियाः
“मनुष्य के रूप में हम सब समान हैं, हममें कोई अंतर नहीं है। माँओं ने हम सब को जन्म दिया और अपने दूध और वात्सल्य से हमारा पोषण किया। करुणा का यह प्रथम बीज है, जिसका हमने अनुभव किया है, जिसे हम दूसरों की भलाई के लिए बुद्धि के प्रयोग से प्रबल कर और बढ़ा सकते हैं। सरल, साधारण करुणा इस बात पर निर्भर होने लगती है कि लोग हमारे विषय में क्या सोचते हैं। यह हमारे शत्रुओं पर लागू नहीं होती। दूसरी ओर, अभ्यास की हुई करुणा सभी सत्त्वों पर लागू होती है, यहाँ तक कि उन पर भी जो हमारे लिए बैर भाव रखते हैं।”
परम पावन ने समझाया कि किस तरह हम करुणा को परिष्कृत करने के पक्ष– विपक्ष का विश्लेषण कर सकते हैं, इस सीमा तक, कि हम अपने शत्रुओं के हानिकारक गुणों की भी सराहना करने लगते हैं, क्योंकि वे हमें सहिष्णुता और धैर्य के विकास का अवसर देते हैं। और हमें अपनी करुणा की भावना को सुरक्षित रखने के लिए सहिष्णुता और धैर्य की आवश्यकता है।
“कभी कभी लोग इन गुणों को दुर्बलता की निशानी मानते हैं”, उन्होंने कहा,“पर वे नहीं हैं। क्रोध दुर्बलता की निशानी है। सच्ची करुणा और आत्मविश्वास गहन आत्मिक शांति पर आधारित है।
“कभी कभी लोगों को यह ग़लतफ़हमी हो जाती है प्रेम और करुणा केवल दूसरों के लिए लाभदायी होती है। यह फिर से बिल्कुल गलत है; अभ्यासी को ही आत्म- विश्वास और शांत चित्त के रूप में सीधा लाभ पहुँचता है।
“कुछ लोग प्रेम और करुणा के अभ्यास को केवल धार्मिक अभ्यास से जुड़ा मानते हैं और यदि उनकी धर्म में रुचि नहीं है तो वे इन आंतरिक गुणों की उपेक्षा करते हैं। पर प्रेम और करुणा ऐसे गुण हैं जिन्हें मनुष्यों को साथ रहने के लिए ज़रूरत पड़ती है।”
उन्होंने इशारा किया कि सहिष्णुता और क्षमा का अर्थ यह नहीं कि आप किसी के गलत कार्यों को दब्बूपन से स्वीकार कर लें; कभी कभी किसी के गलत कामों के खिलाफ कदम भी उठाने पड़ सकते हैं।
“एक बार हममें करुणा का दृढ़ अभ्यास हो जाए, तो हमारे चित्त की स्थिति और प्रबल हो जाती है, जो आंतरिक शांति की ओर उन्मुख करती है, जिससे आत्मविश्वास उत्पन्न होता है, जो भय को कम करता है। इससे समुदाय में सृजनात्मक सदस्य बनते हैं। दूसरी ओर आत्म केन्द्रित भावना, दूरी, संदेह, अविश्वास और एकाकीपन की ओर ले जाती है, जिसका परिणाम दुःख होता है।”
“हमारी स्वाभाविक करुणा के कारण, जब प्राकृतिक प्रकोपों को आघात होता है, तो लोग दूर दराज़ से सहायता करने आते हैं।”
श्रोताओं में से कुछ सदस्य प्रश्न करने सामने आए। पहला था, कि किस तरह एक बेहतर विश्व बनाया जाए और परम पावन ने उत्तर दिया कि हमें सौहार्द में और वैश्विक उत्तरदायित्व भावना में प्रशिक्षण आवश्यक है। जब यह पूछा गया कि इस्लाम के बारे में वे क्या सोचते हैं, उन्होंने उत्तर दियाः
“इस्लाम विश्व के प्रमुख धर्मों में से एक है, जिसके १ अरब से अधिक अनुयायी हैं। कई मुसलमान प्रेम के अभ्यास पर बल देते हैं। जब मैं वाशिंगटन में ११ सितम्बर की घटना के प्रथम स्मरण समारोह में गया, तो मैंने सभा से यही कहा कि यद्यपि यह आक्रमण मुसलमान पृष्ठभूमि लोगों द्वारा किया गया पर इससे सभी मुसलमानों की निंदा करने का कोई आधार नहीं है। मैंने ध्यान दिलाया कि किसी भी धार्मिक समुदाय में शरारती लोग होते हैं, चाहे वे बौद्ध, ईसाई, हिंदू या जैन हों। परिणामस्वरूप, उस समय से मैंने कई बार मुसलमानों के पक्ष में बोला है।”
यह पूछे जाने पर कि क्या हमें जानवरों के प्रति दयालु नहीं होना चाहिए, परम पावन ने समझाया कि वे पूरी तरह से शाकाहारी भोजन को प्रोत्साहित करने हेतु प्रतिबद्ध हैं, यद्यपि स्वास्थ्य कारणों से वे स्वयं पूर्ण रूप से शाकाहारी नहीं हैं। इस प्रश्न के उत्तर में कि सार्थक जीवन क्या है, उन्होंने कहाः
“मैं सदा कहता हूँ कि जीवन का उद्देश्य सुखी होना है। भविष्य को लेकर कोई गारन्टी नहीं है, पर हम आशा में जीते हैं। जब हमारी आशाएँ चूर चूर हो जाती हैं, तो हम सच में पीड़ित होते हैं।”
एक महिला ने समझाया कि वह २५ वर्ष पूर्व पोलैंड से आई थी, पर अब वह पोलैंड में जर्मन मानी जाती है और जर्मनी में पोलिश। वह जानना चाहती थी कि तुम क्या कर सकते हो जब तुम्हारा कोई घर नहीं। परम पावन ने उत्तर दियाः
“मैं भी बेघर हूँ। हमारे यहाँ एक कहावत है, ‘जब लोग तुम्हें देखकर मुस्कुराएँ तो उसे तुम घर कहो; जहाँ लोग तुम्हारे प्रति प्यार जताएँ, तो उन्हें अपना माता पिता मानो।’
एक छोटी बच्ची ने पूछा कि क्या परम पावन को मूंगफली का मक्खन अच्छा लगता है और उन्होंने उत्तर दिया कि उनकी जीभ को तो अच्छा लगता है, पर उनके डॉक्टरों ने उसके लिए मनाही की है। अंत में एक छोटे बालक ने पूछा कि परम पावन अपना देश छोड़ भारत क्यों आ गए। उनका उत्तर थाः
“वह एक लम्बी कहानी है, जिसे आपको पढ़नी चाहिए। एक चीनी लेखक ने दर्ज किया है, कि संघर्ष के प्रारंभिक दिनों में जितने तिब्बती मारे गए उनकी संख्या ३००,००० से अधिक थी। जब मैंने अपना स्थान छोड़ा तो १७ मार्च १९५९ को ल्हासा समय के अनुसार रात के १० बजे थे। यह न जानते हुए कि मैं आने वाला दिन देख पाऊँगा अथवा नहीं, मैं वहाँ से निकला।
“एक साम्यवादी चीनी सैन्य अधिकारी ने सूचना दी कि मार्च १९५९ से सितम्बर १९६० तक ल्हासा के आसपास सैन्य कार्रवाई में मारे गए तिब्बतियों की संख्या ८७,००० थी।
“धन्यवाद।”
कल परम पावन जी भारत रवाना होने के लिए हवाई उड़ान भरने से पूर्व वियतनाम के वियन गियाक विहार में बोलेंगे।