मुंबई, भारत, 23 जनवरी 2013 – आज परम पावन दलाई लामा ने एक बहुत पुराने निमंत्रण को पूरा किया और मुंबई के हृदय में स्थित प्रतिष्ठित रोमन कैथोलिक कॉलेज सेंट ज़ेवियर्स गए। प्राचार्य फादर फ़्रेज़र मैस्करन्हास उन्हें कार से मुख्य प्रांगण में लेकर आए तो खिड़कियों और मंज़िल के छज्जों पर भावावेग से छात्रों ने हर्षोल्लास-भरे रूप से उनका स्वागत किया।
जब वह उस सभागार में पहुँचे, जहाँ उन्हें बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था, तब भी श्रोताओं ने उनका पुनः इस प्रकार स्वागत किया जो मात्र उत्सुकता नहीं थी, पर वे वास्तव में उन्हें देख कर प्रसन्न थे।
अपने संक्षिप्त परिचय में फादर फ़्रेज़र ने कहा,
“हम जीसुइट परंपरा के साझीदार हैं। हम केवल शैक्षिक उत्कृष्टता की ही कोशिश नहीं करते बल्कि हृदय और आत्मा को समृद्ध बनाने का भी प्रयास करते हैं। हम आपको यहाँ देख कर कृतज्ञ हैं, क्योंकि आप आज उपस्थित उन चन्द लोगों में से एक हैं जो इस विश्व के लिए अंतरात्मा की तरह हैं। हमारा यह विश्वास है कि आपके पास इक्कीसवीं सदी के लिए एक संदेश है।”
परम पावन ने एक विशिष्ट रूप में उत्तर दिया।
“आध्यात्मिक भाइयों और बहनों, युवा भाइयों और बहनों, जब मैं आप जैसे दूसरे लोगों से मिलता हूँ तो मैं सदा सोचता हूं कि मनुष्य के रूप में हम सब समान हैं। यह महत्त्वपूर्ण है। आज, हम 7 अरब मनुष्य सब समान हैं, भावनात्मक, मानसिक और शारीरिक रूप से। हम सब एक सुखी और सफल जीवन जीना चाहते हैं और हम सबको इसका अधिकार है।”
उन्होंने समझाया कि इसके बावजूद हम कई समस्याओं का सामना करते हैं और उनमें से बहुत सी हमारी अपनी बनाई हुई हैं। क्यों? क्योंकि हम अपने बीच कम महत्त्व वाले अंतर पर ध्यान केन्द्रित करते हैं – जाति, राष्ट्रीयता या आस्था और उनके भीतर कि हम अमीर हैं या गरीब, शिक्षित या अशिक्षित। उसके साथ ही हम इस तथ्य की उपेक्षा करते हैं कि हम सभी एक ही मानव परिवार के सदस्य हैं। हम धमकाते हैं, ठगते हैं और एक दूसरे का शोषण करते हैं। जब यह सब कुछ होता है तो हम सुखी कैसे हो सकते हैं?
उन्होंने कहा कि हम अब इक्कीसवीं सदी में हैं और अपनी शिक्षा और अपने तकनीकी विकास के साथ तो हमें और अधिक प्रसन्न होना चाहिए, लेकिन अक्सर संपन्न लोग भी भीतर से दुःखी हैं। वे तनावग्रस्त, कुंठित, शंकालु और संदेहग्रस्त हैं। फिर भी, हम मनुष्य सामाजिक प्राणी हैं, हमें समुदायों में ही रहना है।
मात्र भौतिक विकास मनुष्यों को अधिक सुखी नहीं बना सकता। परम पावन ने कहा कि कभी कभी वह सोचते हैं कि क्या पशु, जब वे किसी खतरे में या संकट में फँसे नहीं होते तो मनुष्यों से अधिक संतुष्ट और शांत होते हैं। दूसरी ओर, हमारे पास बुद्धि है, यह अद्भुत मानव मस्तिष्क है। और हमारी बुद्धि को खोलने की कुंजी शिक्षा है। पर अकसर हमारी आधुनिक शिक्षा प्रणाली में कुछ कमी सी लगती है। इसमें नैतिक दृष्टिकोण की कमी है। आज, बुद्धिमान और शिक्षित, लेकिन मूल्यों से शून्य लोगों का होना असामान्य नहीं है। उन्होंने उदाहरण के रूप में 11 सितम्बर के न्यूयॉर्क पर हमले करने वाले अपराधियों का उल्लेख किया। वे लोग, जिन्होंने वह योजना बनाई बहुत कुशाग्र थे। बुद्धिहीन लोग उसे परिणित नहीं कर सकते थे, लेकिन उस योजना के परिणाम मर्मांतक थे।
“हमें केवल एक प्रशिक्षित बुद्धि ही नहीं अपितु सहृदयता भी चाहिए। तब स्वाभाविक रूप से समुदाय की भावना और उत्तरदायित्व की भावना जन्म लेगी। आप जीसुआइट ज्ञान देने के अलावा हमारी नैतिक कुशलता का भी ध्यान रखते हैं। ईसाईयों ने संसार के कितने हिस्सों में एक सर्वांगीण शिक्षा देने में महान योगदान किया है। अब मुझे इस पर कोई आश्चर्य नहीं होता कि ऐसी जगहों पर, जहाँ लोग बेहद निर्धन हैं, वहाँ ईसाई भाई और बहनें गरीबों और ज़रूरतमंदों को ऊपर उठाने हेतु काम करते हैं।”
साथ ही उन्होंने कहा, ऐसे मिशनरी भी हैं जो स्पष्ट रूप से दूसरों को अपने धर्म में परिवर्तित करने की कोशिश करते हैं और वह उसका समर्थन नहीं करते। वह कहते हैं इससे सिर्फ समस्या उत्पन्न होती है। आस्था, एक निजी और वैयक्तिक निर्णय है। आध्यात्मिक परम्पराओं के बीच समन्वय का विकास करना उनके जीवन की प्रतिबद्धताओं में एक है। और इस संदर्भ में भारत विभिन्न धर्मों द्वारा साथ-साथ सौहार्द के साथ जीने की 1000 साल पुरानी परम्परा निभा रहा है। अपनी विदेश यात्राओं के दौरान परम पावन अकसर जीवन्त धार्मिक सौहार्द के उदाहरण के रूप में भारत की ओर संकेत करते हैं। यह केवल कोई पुरानी परम्परा नहीं है, अपितु आज के लिए तात्कालिक महत्त्व की बात है। प्रेम, करुणा, सहिष्णुता और संतोष के रूप में आध्यात्मिक अभ्यास का सार एक साझे संदेश का भाग है, जो विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों द्वारा समर्थित है।
परम पूज्य दलाई लामा ने घोषणा की कि हमारी धार्मिक परम्पराएँ मनुष्यता को अत्यधिक लाभ पहुँचाती है और उनका
विचार है कि वे भविष्य में भी यह करती रहेगी। लेकिन, आज जीवित 7 अरब लोगों में से संभवतः 1 अरब अपने को अधार्मिक मानते हैं। शेष 6 अरब में कई जिस आस्था की घोषणा करते हैं उसके प्रति निष्ठा रखते प्रतीत नहीं होते। यहाँ भारत में, जो बहुत गहरे अर्थ में एक धार्मिक देश है, अनगिनत परिवार प्रति दिन किसी धार्मिक मूर्ति या प्रतीक के आगे प्रार्थना करते हैं, प्रसाद चढ़ाते हैं। पर जब हम यह देखते हैं वे अपना दैनिक जीवन कैसे बिताते हैं, तब हमें यह सोचना पड़ता है कि कहीं वह सचमुच यह तो नहीं कह रहे, “कृपया मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मेरा भ्रष्ट और शोषक काम सफल हो। आप ईश्वर से इस तरह की चीज़ कैसे माँग सकते हैं?”
उन्होंने कहा कि आज चुनौती है कि ऐसे लोगों को सत्य के मूल्य, ईमानदारी, करुणा तथा दूसरों के प्रति चिंता के प्रति आश्वस्त करें। हम ऐसा कैसे कर सकते हैं? शिक्षा का सार्वभौमिक प्रभाव होता है। हमें शिक्षा में सहृदयता लानी होगी। इसे करने का एक ढंग यह है कि हम यह दिखाएँ कि सहृदयता आंतरिक शांति का स्रोत है, और यह, आंतरिक शांति और आत्मविश्वास लाता है। आज वैज्ञानिक खोजें यह बता रही हैं कि निरंतर भय और क्रोध में रहने से हमारी प्रतिरक्षा की शक्ति क्षीण हो जाती है, जिसका नकारात्मक प्रभाव हमारे शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ता है।
उन्होंने अपनी पढ़ी एक रिपोर्ट का भी उल्लेख किया कि जो लोग झूठ बोलते हैं वे अधिक तनाव का अनुभव करते हैं।
“मुझे स्वयं इसका कुछ अनुभव है। सन् 1952 से 1958 के बीच, जब तिब्बत पहली बार चीनी साम्यवादी अधिकारियों द्वारा दबाया गया था, मुझे प्रायः मुस्कुराना और झूठ बोलना पड़ता था कि सब कुछ कितना शानदार था। फिर 1959 में मैं ल्हासा से भाग निकला और भारत आया। नौ वर्ष तक मैं ढोंगी की तरह जिया और उसे तभी उतार फेंका जब मैं भारत की स्वतंत्रता में पहुँचा। मेरा जीवन सरल नहीं रहा है। सोलह की उम्र में मैंने अपनी आजादी खोई और 24 में अपना देश खो दिया। अब मेरे देश तिब्बत में अगर कुछ है तो चीजें और बिगड़ी हैं। तिब्बती जन मानस मुझ पर अपना विश्वास बनाए रखे हैं, इसलिए मैं एक भारी उत्तरदायित्व ढो रहा हूँ।”
उन्होंने अपने सहायक भिक्षुओं में से एक की कहानी सुनाई, जिसे 18 वर्ष एक चीनी जेल में बंदी बना कर रखा गया था, जो अंततः 1980 के दशक में मिले कुछ अवसरों में से एक के दौरान भारत आया। परम पावन से बातचीत करते हुए इस भिक्षु ने बताया कि जेल में रहते हुए वह कई बार खतरे में था। यह सोचकर कि वह अपने जीवन के खतरे की बात कर रहा है, परम पावन ने उससे पूछा कि उसका क्या मतलब था, और उसने कहा कि वह अपना धैर्य खोने और अपने चीनी जेलरों के प्रति करुणा के भाव को छोड़ने के खतरे में था। परम पावन इसे आध्यात्मिक अभ्यास के कर्म का एक उदाहरण मानते हैं।
छात्रों ने एक के बाद एक बुद्धिमत्तापूर्ण प्रश्न पूछे। पहला नैतिक मूल्यों के बारे में था, जिस पर उन्होंने कहा कि, जो खुशी देता है उसे अच्छा माना जा सकता है और जो पीड़ा देता है उसे नकारात्मक। हमें जो करना है वह यह है कि नकारात्मक को कैसे छोड़ें और अच्छे को पोषित करें। जैसे हम अपने शारीरिक स्वास्थ्य के लिए शारीरिक सफाई रखते हैं वैसे ही हमें अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए भावनात्मक स्वच्छता का विकास करने की आवश्यकता है।
अहिंसा के प्रचारक के रूप में परम पावन से पूछा गया कि क्या बल का प्रयोग कभी भी सही ठहराया जा सकता है। उन्होंने उत्तर दिया,
“हिंसा और दुःख को जन्म देती है। युद्ध कानूनी और संगठित हिंसा है। प्राचीन समय में समुदाय खुद को एकाकी समझ सकते थे,
परन्तु आज जलवायु परिवर्तन और वैश्विक आर्थिक समस्याओं के लिए राष्ट्रीय सीमाओं का कोई मतलब नहीं रह गया है, वे हम सबको प्रभावित करती हैं। हमारे हित दूसरों के साथ बँधे हुए हैं। इस कारण से युद्ध अब कालबाह्य है। बीसवीं सदी हिंसा और रक्तपात का युग थी। हमें आशा करनी चाहिए कि इक्कीसवीं सदी भिन्न हो सकती है। इसके विपरीत इसे संवाद की सदी होना चाहिए।
“बौद्ध सिद्धांत के अनुसार बात करें तो, अहिंसा और हिंसा के बीच का अंतर कर्म में उतना नहीं है, जितना उसकी प्रेरणा में है। मुझे आशा है कि आज के युवा एक दृष्टि विकसित कर सकते हैं कि न केवल विवाद और संघर्ष संवाद से सुलझाए जाएँ बल्कि यह भी कि भविष्य में हमारा संसार विसैन्यीकृत होगा।”
एक और प्रश्नकर्ता ने विज्ञान और आध्यात्मिकता के बारे में पूछा और परम पावन ने कर्नाटक में पुनर्स्थापित डेपुंग विहार में वैज्ञानिकों और भिक्षुओं के बीच छह दिन की उस बैठक की बात की, जिसमें उन्होंने भाग लिया था। भौतिकवाद और आध्यात्मिकता में किस प्रकार संतुलन बिठाया जाए, यह पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि आध्यात्मिकता, मन की शांति प्राप्त करने के उपायों से सम्बन्धित है, जबकि भौतिकवाद शारीरिक सुविधा से जुड़ा है। हमें दोनों चाहिए। परन्तु हमें अमीर और ग़रीब के बीच की विशाल खाई जैसी कठिनाइयों को भी संबोधित करना है।
परम पावन ने एक अपील से बात समाप्त की।
“मेरे युवा मित्रों, यहाँ हममें से जो 50 या 60 साल से ऊपर के हैं, वे बीसवीं सदी के लोग हैं, एक काल जो जा चुका है, जिसे हम बदल नहीं सकते। अधिक से अधिक यह एक स्मृति है, जिससे हम सीख ले सकते हैं। मैं विश्वास करता हूँ कि तुममें से जो इक्कीसवीं सदी के हैं, उन्हें एक दृष्टिकोण बनाना चाहिए कि यह करुणा की शताब्दी हो सकती है, एक युग, जिसमें मनुष्यकृत समस्याएँ कम हो और शांति पनपे। तुम्हीं हो, जो कुछ कर सकते हो और परिवर्तन ला सकते हो, मेरी पीढ़ी के लोग केवल इसके दृष्टा होंगे कि तुम लोग कैसे बढ़ते हो। भविष्य तुम्हारे हाथों में है।”