थेगछेन छोलिंग, धर्मशाला, भारत - नवम्बर ११, २०१३ - आशु घोषणा किए जाने के उत्तर में कि परम पावन दलाई लामा मलेशिया के एक समूह द्वारा किए गए अनुरोध पर सार्वजनिक व्याख्यान देंगे, धर्मशाला के निवासी आज प्रातः तड़के ही चुगलाखंग में एकत्रित हुए। परम पावन ने प्रवचन के पूर्व श्वेत तारा अनुज्ञा प्रदान करने की प्राथमिक अनुष्ठान की तैयारी की।
"तुम सिर्फ मंत्र पाठ कर अपने उद्देश्य को नहीं प्राप्त कर सकते", उन्होंने कहा, "केवल वास्तविकता को प्रकट करके ही बुद्ध मुक्ति का मार्ग इंगित करते हैं। हमारे १०० कांग्यूर के खंड और २२० तेंग्यूर के खंड हैं; ये अध्ययन के ग्रंथ हैं। शिक्षा का उद्देश्य यह है कि हम अपने अंदर परिवर्तन लाएँ। इस के लिए अध्ययन की आवश्यकता है और इसका अर्थ यह है कि हमें अपनी बुद्धि का उपयोग करना है।"
"उन्होंने फिर उस पद को समझाया जिसमें बुद्ध, धर्म और संघ में शरण लेने की और बोधिचित्तोत्पाद की पंक्तियाँ शामिल हैं। इन कार्यों का विषय 'मैं' है और उन्होंने कहा कि हमें सोचना है कि ‘मैं’ कौन है जो बुद्ध बनता है। नागार्जुन ने कहा: आत्मा न तो स्कंध में है और न ही उससे अलग है। तथागत के स्कंध नहीं होते, फिर तथागत क्या है?"
बौद्ध विचारों की चार परम्पराओं का संदर्भ देते हुए परम पावन ने उल्लेख किया कि नैरात्म्य को नागार्जुन की शिक्षाओं में सबसे अच्छी तरह से समझाया गया है। तिब्बत में बौद्ध धर्म के आने के संबंध में उन्होंने स्पष्ट किया कि सम्राट सोंगचेन गम्पो ने एक चीनी और नेपाली राजकुमारियों से विवाह किया था और दोनों अपने साथ सम्माननीय बौद्ध प्रतिमाएँ लेकर आए थे। सम्राट ठिसोंग देचेन के पिता तिब्बती थे पर उनकी माँ चीनी थी। पर चीन के साथ इन मौजूद संबंधों के बावजूद वे बौद्ध शिक्षाओं के स्रोत के लिए भारत की ओर प्रवृत्त हुए। उन्होंने शांतरक्षित तथा पद्मसंभव को तिब्बत आने के लिए आमंत्रित किया और तीनों ने मिलकर बर्फ की भूमि पर बौद्ध धर्म को दृढ़ता से प्रतिस्थापित किया।
"हम नालंदा परम्परा का पालन करते हैं, जिसमें नालंदा पंडितों द्वारा रचित ग्रंथों को कंठस्थ करना और अध्ययन शामिल है। इसने हमें बौद्ध मार्ग का एक संकीर्ण नहीं अपितु एक व्यापक दृष्टिकोण दिया है। बौद्ध धर्म मात्र एक प्राचीन परम्परा नहीं है, यह आज भी प्रासंगिक है। यह हमारे अध्ययन, सीखने और समझने के लिए एक शिक्षा है। नालंदा में रचे इन शास्त्रीय ग्रंथों में महान प्रज्ञा है।"
परम पावन ने उल्लेख किया कि पारम्परिक रूप से तिब्बत में तीन आचार्य हैं, जो मंजुश्री के प्रकट रूप माने जाते हैं। वे हैं साक्य पंडित, लोंगछेन रबजम्पा और जे चोंखापा। जे चोंखापा के अद्भुत लेखन में से परम पावन ने ‘मार्ग के तीन प्रमुख अंग’, जो उन्होंने अपने आठ शिष्यों में से एक छाखो ङवांग डगपा द्वारा लिखे प्रार्थना पत्र के उत्तर में रचा था, की व्याख्या की आशा रखते हैं। अन्य ग्रंथों में जो इन्होंने इस शिष्य के लिए रचे, बोधिसत्त्व सदाप्ररुदिता के अवदान और १३ इष्टदेव यमन्तक की साधना शामिल हैं।
परम पावन ने इस और भविष्य के जीवन के आकर्षण से मुक्त होने के लिए दृढ़ संकल्प की स्थापना, परात्म परिवर्तन की भावना के अभ्यास से बोधिचित्त का विकास, अज्ञान पर काबू पाने के लिए प्रतीत्य समुत्पाद को समझ कर गहन प्रज्ञा के उत्पाद पर एक संक्षिप्त विवरण देना प्रारंभ किया। उन्होंने जे रिनपोछे के ङवांग डगपा को दिए गए उपदेश से समाप्त किया।
“ एकांत का सेवन करके तथा वीर्य बल उत्पन्न करके,
पुत्र, आत्यन्तिक उद्देश्य को शीघ्र सम्पादन करो।”
श्वेत तारा अनुज्ञा, जो परम पावन ने समाप्त की, वह 'पंचम दलाई लामा की गुह्य दृष्टि' से ली गई थी, जो परम पावन ने कहा कि उन्हें तिब्बत में तगडग रिनपोछे से मिली थी। उन्होंने अंतिम सलाह के कुछ शब्दों के साथ समाप्त कियाः
"शिक्षण का उद्देश्य अभ्यास है। अभ्यास विश्लेषण के बारे में है; मैंने यही किया है। सुनो और पढ़ो, जो तुमने सीखा है उस पर सोचो और ध्यान करो। आप में से जो धर्मशाला में रह रहे हैं, मैं परसों दिल्ली जाने के लिए निकल रहा हूँ। बाद में मैं लमरिम शिक्षा पूर्ण करने दक्षिण भारत जा रहा हूँ। मैं दो महीनों के लिए बाहर रहूँगा। जब मैं लौटूँगा तो हम पुनः एक दूसरे से मिलेंगे।"