ड्यूनडिन, न्यूज़ीलैंड, जून, 10 2013 -
परम पावन जी की पहली भेंट न्यूज़ीलैंड के विश्व धर्म संसद परिषद के युवा प्रतिनिधियों से हुई, जो कि कई धर्मों से थे। परम पावन जी ने उन्हें प्रोत्साहित किया, पर साथ ही इस पर बल दिया कि अंतर्धर्मीय समन्वय के लिए हमें वास्तव में क्रियावान होने की आवश्यकता है।
“धर्म का संबंध एक अधिक शांतिपूर्ण चित्त के परिष्कृत करने से है, अतः यदि धर्म संघर्ष का स्रोत बन जाए तो यह अत्यंत निराशाजनक बात है। हमारी परम्पराओं में प्रेम तथा करुणा धैर्य और सहनशीलता जैसे साझे संदेश हैं। यदि हम भी क्षमा के निर्देशों को स्मरण रखें तो फिर संघर्ष का कोई आधार न रह जाएगा।”
उसके बाद न्यूज़ीलैंड के सभी राजनैतिक दलों के जिन बारह संसदीय सदस्यों से वे मिले, वे संसदीय सदस्यों के 10% सदस्य थे। परम पावन जी ने उनके सहयोग के लिए उन्हें धन्यवाद दिया। तिब्बत और चीन के संबंध को लेकर उन्होंने सीधी बात की कि एक देश के रूप में और लोगों के रूप में चीनी बहुत अच्छे हैं, समस्या एक बन्द सर्वसत्तावाद प्रणाली की है।
“1.3 अरबों चीनी लोगों को, जिस वास्तविकता में वह जी रहे हैं, उसके विषय में जानने का अधिकार है और उस आधार पर वे सही तथा गलत के प्रति निर्णय लेने में भली भाँति सक्षम हैं। इसलिए जिस प्रकार की सेंसर व्यवस्था का सामना उन्हें करना पड़ रहा है, वह नैतिक रूप से गलत है। दूसरी, वर्तमान न्याय व्यवस्था केवल राजनैतिक हितों का ध्यान रखती है। सम्पूर्ण न्यायिक प्रणाली को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक ऊपर उठाना होगा।”
उन्होंने चार चीनी नेतृत्वों के युग की बात की, किस तरह माओ का युग सिद्धांतो को लेकर उल्लेखनीय था, डेंग युग आर्थिक उदारीकरण और चीन को विश्व के लिए खोल देना था, यद्यपि इसका परिणाम सर्वसत्तावादी पूंजीवादी व्यवस्था हुई। जियांग ज़ेमिन का युग साम्यवादी दल में मध्यम वर्ग के हितों को लेकर आया, जबकि हु जिन ताओ का उद्देश्य एक सद्भावनापूर्ण समाज का निर्माण था। वे इस कारण असफल नहीं हुए, क्योंकि उनके उद्देश्य में कोई ग़लती थी। पर इसलिए कि उन्होंने गलत शक्ति के उपाय उठाए थे। सद्भावना हृदय से आनी चाहिए, वह विश्वास पर आधारित है। शक्ति का प्रयोग भय की भावना लाता है, जो कि विश्वास के विपरीत है। उद्देश्य तो अच्छा था, पर उपाय गलत था।
शी जिनपिंग का नेतृत्व पाँचवा युग खोलता है। 1.3 अरब लोंगों के समाज में सद्भावना आवश्यक है, इसलिए जब पूर्व प्रधान मंत्री वेन जा बाओ ने चीन में सुधार की आवश्यकता की बात की, तो परम पावन ने कहा कि यह समय देखने का है कि क्या होता है ।
“उन्होंने घोषणा की कि हम स्वतंत्रता की माँग नही कर रहे।” यद्यपि चीनी प्रमाणों के अनुसार भी 7वीं, 8 वीं और 9वीं शताब्दी में तिब्बत स्पष्ट रूप से स्वतंत्र था। पर समय बदलता है । भारत को देखें । ब्रिटेन से आज़ादी से पूर्व यहाँ कई छोटे और बड़े राज परिवार थे जो स्वतंत्र रूप से अपना कार्य करते थे। स्वतंत्रता मिलते ही वे नए भारत में शामिल हो गए। इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों ने अपनी भाषा, लिपि और अनूठी संस्कृति बनाई रखी है और विकास का लाभ उठाया है।
“हम तिब्बती भी विकास को महत्त्व देते हैं, जो इस बात से देखा जा सकता है कि तिब्बती शरणार्थी पाश्चात्य देश जाने के लिए किस प्रकार के खतरे उठाते हैं, जहाँ उद्देश्य आध्यात्मिक नहीं बल्कि नौकरी और धन कमाना है। चीन के लोक गणतंत्र के साथ रहना तिब्बत के हित में है, जब तक कि हममें सच्ची स्वायत्तता, अपनी संस्कृति, भाषा और अस्तित्व को बनाए रखनी की क्षमता है, जो चीन के संविधान में है। मुझे जानने वाले चीनियों ने बताया है कि यदि सभी चीनी लोग हमारे मध्यम मार्ग दृष्टिकोण को समझ लें तो वे सम्पूर्ण हृदय से हमारा समर्थन करेंगे। इसलिए शासन में कुछ कड़ा रुख रखने वाले के हित में यह बात बनाए रखनी है कि हम स्वतंत्रता की माँग कर रहे हैं।”
उन्होंने इस विड़म्बना की बात की कि विश्वसनीय सूत्र चीन में 400 अरब बौद्धों की बात करते हैं, जिसका यह अर्थ निकलता है यह देश विश्व के सबसे बड़ी बौद्ध जनसंख्या का घर है। पिछले वर्ष से परम पावन चीनी बौद्धों को प्रवचन दे रहे हैं।
परम पावन ने कहा कि चीन को प्रजातंत्र के मार्ग पर प्रोत्साहित करने के लिए वे इसे स्वतंत्र राष्ट्रों का उत्तरदायित्व समझते हैं। आर्थिक दृष्टिकोण से चीन पहले ही विश्व समुदाय से जुड़ चुका है। चीन के प्रजातंत्र अपनाने से न केवल चीनी लोगों को लाभ होगा, पर यह इस बड़े आणविक शस्त्रों वाले राष्ट्र को जिसके पास पहले से ही संयुक्त राष्ट्र राज्य सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट है, मुख्य धारा में ले आएगा।
परम पावन ने सुझाव दिया कि यह हो सकता है कि नोर्वे और स्वीडन जैसे राष्ट्र अधिक प्रभावशाली हैं, क्योंकि वे चीन के लिए किसी प्रकार का खतरा नहीं हैं।
यह पूछे जाने पर कि क्या उन्हें आशा है कि चीन में संवैधानिक आंदोलन तिब्बत की स्थिति में सहायक होगा। परम पावन ने कहा कि चीनी लोगों को प्रजातंत्र का कोई अनुभव नहीं है, अतः एक यथार्थवादी दृष्टिकोण यह होगा कि क्रमशः परिवर्तन लाया जाए। उन्होंने संकेत दिया कि संविधान में शामिल कुछ अधिकारों को अभी तक कार्यान्वित नहीं किया है और इसे निश्चित रूप से किया जाना चाहिए।
एक और प्रश्नकर्ता यह जानना चाहता था कि परम पावन उस समय कैसा अनुभव करते हैं जब चीनी दबाव के कारण नेता उनसे नहीं मिल पाते। उन्होंने उत्तर दिया कि उनके लिए जनता से मिलना सबसे महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि मानवीय सुख और अंतर्धर्मीय सद्भाव के लिए उनकी प्रमुख चिंता मानवीय मूल्यों का विकास है।
तिब्बत के भावी राजनैतिक प्रणाली के संबंध को लेकर एक प्रश्न के उत्तर में परम पावन ने यह स्पष्ट कर दिया कि अध्यक्ष माओ के प्रभुत्व में भी चीन तिब्बत को एक साधारण राज्य नहीं, पर एक विशिष्ट रूप में देखता था । केन्द्रीय सरकार ने किसी और क्षेत्र के साथ नहीं पर केवल तिब्बत के साथ खास समझौता किया। जब 1950 में पी एल ए ने तिब्बत में प्रवेश किया, तो केवल देश का एक भाग तिब्बत, जिसमें महत्त्वपूर्ण जनसंख्या एक समय तिब्बती राजा के अधिकार में थी पर समय के साथ चीनी प्रांतों में शामिल कर ली गई। यद्यपि तिब्बत का विभक्तिकरण हो गया था पर इन दूरस्थ क्षेत्रों में तिब्बती भावना प्रबल है। परम पावन ने ध्यान आकर्षित किया कि हाल में हुए आत्मदाह की अधिकतर घटनाएँ उन क्षेत्रों में हो रही हैं ,जो चीनी प्रशासन के अधिकार में हैं।
कैंन्टरबरी विश्वविद्यालय के विद्यार्थी संगठन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में माओरी खिलाड़ियों ने परम पावन जी का स्वागत अत्यंत तीखे और उत्साहपूर्ण ढंग से किया। उन्होंने उत्तर दियाः “मै आपके पारम्परिक स्वागत की प्रशंसा करता हूँ। जब मैं पहली बार न्यूज़ीलैंड आया तो आक्रामक जैसे दिखने वाले आपके स्वागत को देखकर मैं आश्चर्य से भर गया, जिसे देखकर ऐसा लगता है कि मानों आप अपने अतिथि की परीक्षा ले रहे हों, पर मैं देख रहा हूँ कि आप अपनी पारम्परिक भाषा और रीति रिवाज़ों को बनाए रखे हैं।”
“जब भी मैं लोगो से मिलता हूँ तो मैं भाई बहनों के रूप में उनका अभिनंदन करना चाहता हूँ। अतीत में हम एक दूसरे से अलग थे, परन्तु बेहतर सम्प्रेषण से यह स्पष्ट हो गया है कि मनुष्य रूप में हम सब समान हैं। हमारी भाषाएँ और संस्कृतियाँ अलग हो सकती है, पर शारीरिक और भावनात्मक रूप से हम सब समान हैं। हम सभी सुखी जीवन चाहते हैं और हम सब को उसे पाने का अधिकार है। विज्ञान और तकनीक, जिसका उद्देश्य एक अधिक सुखी मानव समाज का निर्माण सुनिश्चित करना है अब और अधिक दबाव और मानसिक चिन्ताएँ लेकर आया है। भौतिक सुविधाओं ने हमें शारीरिक सुख दिया है पर आवश्यक नही कि उसने हमारे चित्त को शांत किया हो।”
उन्होंने कहा कि ऐन्द्रिक अनुभूतियाँ जैसे संगीत सुनना और स्वादिष्ट भोजन का स्वाद लेना सुखकर है, पर उनसे जो संतोष मिलता है वह थोड़ी देर भर का होता है। हमें एक लंबे समय की मानसिक शांति के लिए दूसरे उपायों को खोजना होगा। उन्होंने स्पेन के बारसेलोना के एक इसाई भिक्षु का स्मरण किया जो बिना किसी भौतिक सुविधा के पहाड़ों में पाँच वर्ष एकांतवास कर रहा था। उन्होंने उससे पूछा कि वह क्या कर रहा था और जब उस भिक्षु ने बताया कि वह प्रेम पर ध्यान कर रहा था तो परम पावन ने उसकी आँखो में शांति की एक चमक देखी। दूसरी ओर उन्होंने कहा कि वे अरबपतियों से मिल चुके हैं, जिनके पास वह सब कुछ है जो वे चाहते हैं पर वे सदा दुःखी रहते हैं। यह स्पष्ट करता है सुख और शांत चित्त का परम स्रोत चित्त में निहित है।
परम पावन ने कहा कि कई समस्याएँ जिनका हम सामना करते हैं, हमारी अपनी बनाईं हैं, इसलिए हम उन्हें सुलझा भी सकते हैं। अधिकांश संघर्ष जिनका हमें सामना करना पड़ता है, के मूल में “उनकी” और “हमारी” जैसी विभाजक प्रबल भावनाएँ हैं। पर हम सामाजिक प्राणी हैं, जिनका अस्तित्व ही हमारे समाज के अन्य लोगों पर निर्भर करता है। उन्होंने कहा कि हमारे पास अवसर हैं कि हम इस शताब्दी को अधिक शांतिपूर्ण और सुखी बना सकते हैं, पर दृढ़ता से कहा कि इस प्रकार करने का उत्तरदायित्व उनके कंधो पर नहीं अपितु आज की इक्कसवीं शताब्दी के युवाओं पर है। उन्होंने बताया कि हाल ही में संयुक्त राज्य अमरीका में उन्हें उन नगरों के बारे में पता चला जो कि करुणा के घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर कर रहे थे, जिसे वे आशा का संकेत मानते हैं।
छात्रों ने परम पावन के लिए कई प्रश्न तैयार किए थे। मौसम परिवर्तन को लेकर उन्होंने सलाह दी कि हमारी वर्तमान जीवन शैली सदा के लिए इसी रूप में नहीं चल सकती; हमें एक अन्य योग्य जीवन शैली ढूँढनी होगी। उनके समक्ष यह अत्यावश्यकता रखी गई हाल की घोषणा के साथ कि कार्बन डाइओक्साइड एक अरब में 400 भाग पहुँच गई है और यह यदि बढ़कर 450 तक पहुँच गई तो हम एक खतरनाक बिन्दु तक पहुँच जाएँगे। उन्होंने कहा कि हमें इसे संबोधित करना होगा पर साथ ही जनसंख्या नियंत्रण पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।
उन्होंने इस्लाम और पश्चिम के संबंध को लेकर इस प्रश्न को कि यह संस्कृतियों की टकराहट है “बिलकुल गलत” कहते हुए सम्पूर्ण रूप से खारिज कर दिया। उन्होंने स्वीकार किया कि कुछ व्यक्ति बुरी तरह से व्यवहार करते हैं, पर इससे पूरे समुदाय का सामान्यीकरण कर देना कोई आधार नहीं है। उनका कहना था कि कई समस्याएँ जो आज हमारे समक्ष हैं वह बीसवीं शताब्दी में की गई हमारी त्रुटियों का परिणाम है, पर उन्होंने माना कि यह प्रश्न न सीधे सादे हैं और न ही सरल।
यह पूछे जाने पर कि वे मार्ग दर्शन के लिए किस की ओर देखते हैं, परम पावन ने कहा कि हमारा चित्त, कारण ढूँढने की हमारी भावना ही हमारा सच्चा मार्गदर्शक है। “मैं एक शांत चित्त के आधार पर अपनी बुद्धि का उपयोग करता हूँ और जो कुछ प्राचीन भारतीय चिंतन से सीखा है उसे काम में लाता हूँ।”
स्कूलों में नैतिकता प्रारंभ करने के प्रश्न ने परम पावन को यह कहने के लिए प्रेरित किया कि कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि नैतिकता धार्मिक शिक्षाओं पर आधारित होना चाहिए, पर हमारे वर्तमान विश्व की कठिनाई है कि पूछा जाए कि कौन सा धर्म। उनका सुझाव था कि हमें धर्म निरपेक्ष नैतिकता की आवश्यकता है, क्योंकि नैतिकता का वास्तविक अर्थ दूसरों के लिए आदर और चिंता रखना है, ऐसा कुछ जो कि समाज के लिए अच्छा और लाभकारी हो।
एक विद्यार्थी ने पूछा कि क्या हमारे आज के कार्य हमारे आगामी जन्मों को प्रभावित करते हैं और परम पावन ने कहा कि महत्त्वपूर्ण बात है कि एक अर्थवान जीवन जिया जाए, जिसको उन्होंने परिभाषित किया, कि यदि संभंव हो तो दूसरों की सहायता करो, पर कम से कम उनकी हानि न करो। एक और विद्यार्थी का प्रश्न था कि क्या वे परमार्थ सत्य पर विश्वास करते हैं, और यदि ऐसा है, तो वह क्या है । उन्होंने उत्तर दिया कि एक बौद्ध होने के नाते वे यह कहना चाहेंगे कि कुछ भी परमार्थ सत्य नहीं है; सब कुछ सांवृतिक है। एक और विद्यार्थी ने आश्चर्य जताया कि परम पावन शाकाहारी नहीं हैं और उन्होंने इस विरोधाभास को स्वीकार किया। वे दूसरों को यदि संभव हो तो शाकाहारी होने के लिए प्रोत्साहित करते हैं पर वे स्वयं शाकाहारी नहीं हैं । उन्होंने समझाया कि साधारणतया तिब्बती शाकाहारी नहीं होते और जब वे 1960 में बीस महीनों के लिए शुद्ध शाकाहारी बने तो वे बीमार पड़ गए और उनके चिकित्सकों ने उन्हें सलाह दी कि अपनी सेहत बनाए रखने के लिए वे अपने पुराने आहार पर लौट जाएँ। पर यह सूचित करते हुए उन्हें प्रसन्नता हो रही थी कि तिब्बती समाज में, विशेषकर बड़े मठों में लगभग सभी आम रसोईघर अब शाकाहारी हैं।
मध्याह्न के भोजन के बाद परम पावन क्राइस्ट चर्च से दक्षिणी नगर ड्यूनडिन गए। वहाँ पहुँचने पर एक टेलिविज़न के पत्रकार ने उनसे पूछा कि वे क्यों आए थे । उन्होंने उत्तर दियाः “सबसे पहले तो मुझे निमंत्रण मिला था और जब ऐसा होता है तो उसे अस्वीकार कर देना मूर्खता है। पर यहाँ एक तिब्बती लामा, जिसे मैं अच्छी तरह जानता था, द्वारा स्थापित एक बौद्ध केन्द्र है। वह एक अच्छा विद्वान और भिक्षु था। जब उसका देहांत हो गया तो उसका एक विद्यार्थी, जो स्वयं भी एक विद्वान और अच्छा भिक्षु था, शिक्षक बन गया। दुःख की बात यह है कि अचानक उसकी भी मृत्यु हो गई, इसलिए मैं अपनी संवेदना प्रकट करने और यह देखने कि ये पुराने मित्र कैसे हैं, आया हूँ।”
धरज्ञे बौद्ध केन्द्र में उत्साहपूर्ण स्वागत के बाद परम पावन ने 54 वर्षों के अपनी शरणार्थी के विषय में बात की कि शरणार्थी के प्रारंभिक दिनो में तिब्बतियों को अपने देश को खोने का बहुत दुःख था। पर अब जिस ज्ञान और संस्कृति को उन्होंने सुरक्षित रखा है वे उसे लेकर अत्यंत गर्व का अनुभव करते हैं। आदरणीय लागोन रिनपोछे ने केन्द्र के विषय में एक प्रारंभिक रिपोर्ट की और परम पावन के दीर्घायु की प्रार्थना के साथ उसे समाप्त किया। अपने रिपोर्ट में निदेशक ने संस्थापक गेशे नवांग धरज्ञे और उनके छात्र आदरणीय थुबतेन रिनपोछे के कार्यों का स्मरण किया। उन्होंने इस तथा इस केन्द्र से जुड़े अन्य केन्द्रों की कक्षाओं तथा मीटिंग की रूपरेखा प्रस्तुत की। उन्होंने कहा कि सदस्य तिब्बत की समस्या का जब भी हो सकता है, समर्थन करते हैं और यह भी बताया कि किस तरह स्थानीय ओटागो विश्वविद्यालय का चिकित्सा विभाग तिब्बती दवाइय़ों के प्रति रुचि दिखा रहा है।
अपने उत्तर में परम पावन ने अब तक की उपलब्धियों की प्रशंसा की और सुझाव दिया कि तिब्बती दवाइयों, जिनके व्यापक हित हैं, के प्रति रुचि बनाए रखने में और अधिक काम किया जा सकता है। उन्होंने पूजा वेदी के पास मुख्य स्थान पर रखे कांग्युर और तेंग्युर ग्रंथों की भी चर्चा की और समझाया कि किस तरह लोग इन ग्रंथों को न केवल पूजा की वस्तु न मानकर उनका अध्ययन करें। उन्होंने कहा कि उनमें बौद्ध विज्ञान और दर्शन है, जो किसी की भी रुचि का विषय हो सकता है और जिसका शैक्षिक परिस्थितियों में लाभकारी अध्ययन हो सकता है, साथ ही केवल बौद्धों के लिए वे धार्मिक निर्देश हो सकते हैं। उन्होंने केन्द्र के सदस्यों से इसे ध्यान में रखने को कहा।