न्यूयॉर्क, संयुक्त राज्य अमेरिका, अक्तूबर १८, २०१३ - परम पावन दलाई लामा ने मैक्सिको से न्यूयॉर्क के लिए कल दोपहर उड़ान भरी और उनके मेजबान, तिब्बत केंद्र और गेर फाउंडेशन, की ओर से रातो क्योंगला रिनपोछे, रातो खेंपो निकोलस व्रीलैंड और रिचर्ड गेर, ने उनका स्वागत किया, जो उन्हें न्यूयॉर्क ले गए। उत्साहित तिब्बती उनके होटल के आसपास की सड़कों पर उमड़ पड़े, जबकि संगीतकारों और नर्तकों ने उनका आगमन मनाया और उन्हें एक पारम्परिक तिब्बती स्वागत प्रदान किया।
आज प्रातः जब वे बीकन थियेटर की ओर निकले, जहाँ वे लगभग ३००० लोगों को संबोधित करने वाले थे, तो वयोवृद्ध तिब्बतियों का एक समूह उनसे आशीर्वाद के लिए अपनी जप माला और तावीज लिए श्रद्धापूर्वक नम आँखों से उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। जैसे ही वह मंच पर गए, परम पावन ने अपने आसन के चारों ओर बैठे संघ में से कई पुराने मित्रों का अभिवादन किया और हाथ जोड़कर दर्शकों को नमस्कार किया। जैसे ही परम पावन ने आसन ग्रहण किया, रिचर्ड गेर ने एक संक्षिप्त परिचय दिया। उन्होंने घोषणा की कि पहले भिक्षुओं द्वारा पालि में मंगल सुत्त का सस्वर पाठ होगा, जिसके पश्चात संस्कृत में हृदय सूत्र का पाठ होगा और उसके बाद वे तिब्बती में इन स्तुति छन्दों का पाठ करेंगे, जो बुद्ध की शिक्षाओं के सार को अभिव्यक्त करते हैं।
"सभी को सुप्रभात",उन्होंने प्रारंभ किया,"एक बार फिर से हमें इकट्ठा होने का अवसर मिला है जैसे कि हममें से कई पहले कर चुके हैं। आप में से कितनों ने पहले हृदय सूत्र की व्याख्या सुनी है? अपने हाथ उठाएँ। तो हमारी पिछली बैठक के बाद आपने कितना आगे बढे हैं? इस तरह के प्रवचन देने का उद्देश्य अपने चित्त में, अपनी भावनाओं में परिवर्तन की क्षमता लाने की है, पवित्र होने की नहीं, पर अधिक सुखी और अंततः एक बुद्ध बनने की है।"
उन्हेंने हृदय सूत्र मंत्र के शब्दों, गते गते पारगते पारसंगते बोधि स्वाहा, को सम्भार, प्रयोग, दर्शन, भावना और अशैक्ष्य प्राप्ति के मार्ग से जोड़ा। उन्होंने बुद्ध को उद्धृत किया कि चेतना युक्त सभी सत्वों में बुद्धत्व का सार है। यदि उस बीज को पोषित किया जाता है तो वह बढ़ता है, पर उसके लिए आपको प्रयास करने की आवश्यकता है। यही इस तरह की चर्चा या प्रवचन का मुख्य उद्देश्य है।
परम पावन ने घोषणा की, कि वे अन्य धार्मिक परंपराओं का बहुत सम्मान करते हैं और जहाँ भी संभव होता है अंतर्धार्मिक सद्भाव की भावना को परिष्कृत करने का प्रयास करते हैं। उन्होंने आगे कहा कि जब भी वह गैर बौद्ध देशों में बौद्ध धर्म के विषय में बात करते हैं, तो सदा अपने श्रोताओं को सलाह देते है कि जन्म से उनका संबंध जिस धर्म से है उसी में बने रहें, यह टिप्पणी करते हुए कि अतीत में जिन मित्रों ने अपना धर्म परिवर्तित किया वे अंततः उलझ गए।
"भारत में ऐसे लोग हैं जो अमेरिकी संस्कृति के आक्रमण के बारे में शिकायत करते हैं। कृपया मेरी यात्रा को एशिया द्वारा अमेरिका पर आक्रमण के रूप में न समझें। यह एक परस्पर विनिमय है। मेरे कुछ ईसाई मठवासी भाइयों और बहनों ने कुछ बौद्ध अभ्यासों को अपनाया है और गत ५० वर्षों से मैंने हमारे बौद्ध भिक्षुओं और भिक्षुणियों से सामाजिक जुड़ाव के ईसाई उदाहरण का अनुसरण करने के लिए, विशेष रूप से शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्रोत्साहित किया है। मैंने कई ईसाई अभ्यासियों के सादे जीवन शैली की भी सराहना की है।"
"अब, रातो क्योंगला रिनपोछे और मैं, दोनों स्वर्गीय क्याब्जे लिंग रिनपोछे के विद्यार्थी हैं। वे वरिष्ठ छात्र हैं, पर मुझ कनिष्ठ का नाम दलाई लामा है। उनके और रिचर्ड गेर, जो कि मेरे मित्र और तिब्बत के मित्र हैं, के साथ मेरा अंतरंग संबंध है। उन्होंने मुझसे यह शिक्षा देने का अनुरोध किया। गत कई वर्षों से रिनपोछे ने अष्टसहस्रिका प्रज्ञा पारमिता का मौखिक संचरण देने के लिए अनुरोध किया है। जब हम कल हवाई अड्डे से आ रहे थे तो उन्होंने पुनः उल्लेख किया, और मैंने सोचा, "चलिए अब प्रारंभ कर दें।" यह ग्रंथ ५०० पृष्ठ लंबा है, तो इसे देखते हुए एक सीमा तक यह मुझे चुनौतीपूर्ण लगता है, पर मैं अभी सब पढ़ने की कोशिश नहीं करूँगा, मैं बस आज प्रारंभ करूँगा।"
उन्होंने समझाया कि प्रज्ञा पारमिता सूत्र, बौद्ध धर्म ग्रंथों का एक बड़ा भाग है। जिन भागों का तिब्बती में अनुवाद हुआ है, उसमें से सबसे लम्बा १,००,००० पंक्तियों का है और १२ खंडों में है, २५,००० पंक्तियों का सूत्र ३ खंडों में है, यह संस्करण जिसमें ८००० पंक्तियाँ है, एक खंड में है, जबकि सबसे लघु सूत्र ‘अ’ वर्ण का है। 'अ' निषेध दर्शाता है, 'नहीं' इस संदर्भ में, कि, जब सब कुछ स्वतंत्र अस्तित्व रखता प्रतीत होता है, वह नहीं है। अन्य तत्वों के कारण अस्तित्व रखते हुए, वह वास्तव में परस्पर आश्रित है। परन्तु स्वतंत्र रूप से दिखाई देने पड़ना ही मोह जैसे क्लेशों का आधार है, जो अंततः हमारे लिए समस्याएँ लाता है। ८००० पंक्तियों के संबंध में परम पावन ने एक कहानी सुनाई।
"१७ मार्च १९५९ को रात १० ल्हासा समय के अनुसार मैंने नोर्बुलिंगा छोड़ा। इसके कुछ समय पहले ९: ३० बजे मैंने इस पुस्तक के कुछ पृष्ठ पढ़े, इसलिए यह मेरे लिए एक विशेष महत्व रखता है।"
"मुझे सेरकोंग छेनशब रिनपोछे से मौखिक संचरण प्राप्त हुआ और मैंने ३० वर्ष पूर्व डेपुंग में यह शिक्षा दी, ऐसे समय जब गेन पेमा ग्यलछेन और गेन ञीमा जैसे महान गुरु थे। तिब्बती परंपरा में इस ग्रंथ को विशेष श्रद्धा के साथ माना जाता है । डोमतोनपा ने इसे विशेष सम्मान दिया और मैंने उनकी परम्परा का पालन किया है, कि किसी भी नई परियोजना से पूर्व इसका पाठ करना, जैसे कि एक भवन का निर्माण प्रारंभ करने में।"
ऐसी भूमिका देकर परम पावन ने अपना पाठ प्रारंभ किया और शीघ्र ही उस संदर्भ में पहुँचे, जिसमें बुद्ध के चारों ओर के संघ में से, एक जिसे अर्हत प्राप्त नहीं हुई थी – आनंद। संभवतः बुद्ध का संबंधी होने के कारण उसमें अहं का एक तत्व था, जो उसकी अनुभूति में बाधक था, जिसके कारण उसे बाद में झिड़की सुननी पड़ी।
परम पावन ने अपनी सलाह दोहरायी कि वे तिब्बतियों को बौद्ध सिद्धांत के ३०० खंडों, जिनमें से यह ग्रंथ एक है, श्रद्धा की वस्तुओं के रूप में इतना नहीं, अपितु पाठ्य पुस्तकों, अध्ययन की वस्तुओं के रूप मे देखने के लिए कहते हैं। उन्होंने दोहराया कि धर्म का वास्तविक अभ्यास हमारे भावनाओं के परिवर्तन में है।
दोपहर के भोजन के बाद अपना प्रवचन जारी रखते हुए उन्होंने त्रिरत्न अनुस्मृति सूत्र की व्याख्या प्रारंभ की, जो उन्हें डेपुंग स्तुति संग्रह के एक अंग के रूप में तगडग रिनपोछे से प्राप्त हुई थी। यह ग्रंथ एक प्रकार की स्तुति है, जो त्रिरत्न के गुणों को प्रतिबिम्बित करती है। पारंपरिक क्रम, बुद्ध का प्रकट होना उनके द्वारा धर्म की व्याख्या, जिसका संबंध निरोध और सत्य की प्रकृति की अनुभूति के संदर्भ में है। वे जो इस प्रकार की अनुभूति करते हैं, संघ बन जाते हैं। परन्तु व्यक्तिगत स्तर पर धर्म पहले अनुभूति के रूप में आता है, और उसे संघ बनने की ओर उन्मुख करता है। और उस अनुभूति को एक लम्बे समय तक परिष्कृत करने के पश्चात वह बुद्ध बनता या बनती है।
परम पावन ने इस बात पर बल दिया कि जो महत्वपूर्ण है, वह यह कि, बोधिचित्त के प्रति समर्पण का भाव हो। उन्होंने टिप्पणी की, कि जो भी बोधिसत्व के तीन अनगिनत कल्पों के कार्य को बहुत लम्बा मानते हुए, तंत्र के १२ अथवा १३ वर्षों में बुद्धत्व के उद्देश्य की ओर प्रवृत्त होते हैं, वे एक सीमा तक आत्मकेन्द्रित भाव दर्शाते हैं। उन्होंने एक कहानी सुनाई कि, जब अतीश तिब्बत में थे तो वे भारत में जो कुछ भी हो रहा था उससे जुड़े रहना चाहते थे। वे एक हेवज्र अभ्यासी के विषय में सुनकर हैरान हो गए, जिसने शमथ प्राप्त कर लिया, पर ऐसा पता चला कि उसने स्रोतापन्न, जो कि अर्हत बनने की पहली स्थिति है, का पद प्राप्त कर लिया था, क्योंकि उसने बोधिचित्त का विकास नहीं किया था।
यदि हम यह प्रश्न करें कि किस कारण से हम समझते हैं कि त्रिरत्न की प्राप्ति संभव है, तो इसका कारण है कि हममें तथागत गर्भ है। उन्होंने आगे कहा कि बुद्ध अभ्यास के तीन प्रशिक्षण हैं – शील, समाधि और प्रज्ञा – जो अनूठी है, वह है, नैरात्म्य की व्याख्या। यह, समझ अथवा प्रज्ञा, अध्ययन और शिक्षण जिसके पश्चात आलोचनात्मक, प्रश्नात्मक चिंतन और समाधि के अनुभव की पूर्णता से आती है। परन्तु उसके बाद ऐसे अर्थपूर्ण विश्लेषण को अपने जीवन में उतारना होता है। बुद्ध का उद्देश्य था कि उनकी शिक्षाओं का कार्यान्वयन हो।
इस संबंध में, परम पावन ने टिप्पणी की, कि महायान और हीनयान के बीच का अंतर पदानुक्रम के माध्यम से नहीं, अपितु उनके क्षेत्र के विस्तार के संदर्भ में समझा जाना चाहिए। पालि परंपरा का अभ्यास महायान अभ्यास का आधार है। महायान एक विकल्प नहीं, परन्तु आधारभूत वाहन को बढ़ाता है। इसी तरह, तंत्रयान के अनुयायी, महायान के अभ्यास में जोड़ते हैं।
हृदय सूत्र की व्याख्या में परम पावन ने समझाया कि शब्द 'रूप शून्यता है और शून्यता रूप है, रूप से पृथक शून्यता नहीं है ----- ' इत्यादि, का संबंध सत्य द्वय से है। सांवृतिक और परमार्थिक सत्य अलग सत्ताएँ नहीं हैं, वे विभिन्न दृष्टिकोणों को संदर्भित करती हैं। जैसा समझा जाता है, वैसा शून्यता वस्तुओं के अस्तित्व को नकारती नही है। यह कल्पना है, वस्तुओं के गुणों की अतिशयोक्ति है, हमारा उसके प्रति जो लगाव है, अथवा हम उसका विरोध करते हैं, उसका खंडन किया जाता है। यह प्रतिध्वनित करता है, उस वार्तालाप को जो परम पावन और अमेरिकी मनोचिकित्सक हारून बेक के बीच हुई थील और जिन्होंने बताया कि किसी वस्तु के प्रति हमारा लगाव अथवा विरोध ९०% हमारा प्रक्षेपण है।
अत्यंत ऊर्जा और उत्साह के साथ परम पावन ने घोषणा समय से परे, शिक्षा दी । वे कल प्रातः अपना प्रवचन जारी रखेंगे।