बाइलाकुप्पे, कर्नाटक, भारत - २९ दिसम्बर २०१३ - बाइलाकुप्पे में प्रातः के नभ में अधिक कोहरा था जब परम पावन दलाई लामा ने आज प्रातः सेरा मे विहार छोड़ा। सीरा जे पहुँचने पर उनका अभिनंदन कपड़े पर बने गुरु पद्मसंभव के एक बड़े चित्र के दृश्य ने किया जो एक इमारत के सामने नीचे लटक रही थी। एक संक्षिप्त प्रस्थापना करने की प्रार्थना पर उन्होंने उचित श्लोक पढ़े और थंका के निचले भाग में मुट्ठी भर चावल और फूल की पंखुड़ियाँ डाली।
एक बार पुनः हृदय सूत्र के सस्वर पाठ के बाद, नूतन योग्यता प्राप्त गेशों का एक दल शरपा छोजे से अपने प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए पंक्तिबद्ध हो गए और तत्पश्चात आसन के चरण के पास परम पावन के साथ तसवीर खिंचवाने के लिए एकत्रित हुए।
मंगोलिया के एक छोटे दल ने मंडल और बुद्ध के काय, वाक् और चित्त के तीन प्रतीक भेंट किए। उसके बाद परम पावन ने अपनी मेज पर प्रार्थना की एक प्रति देखी जिसकी रचना उन्होंने खलखा जेचुन दम्पा की शीघ्र वापसी के लिए की थी और वे जानना चाहते थे कि कौन उसका वितरण कर रहा है। इसने उन्हें यह समझाने के लिए प्रेरित किया कि जब वे १० साल के थे तब से वह जेचुन दम्पा को जानते थे।
"वे मंगोलिया गए थे और जब मैं वहाँ उनसे मिला तो वह काफी दुर्बल और अस्वस्थ थे। मैंने उनसे कहा कि उन्हें मंगोलिया में पुनर्जन्म लेने पर विचार करना चाहिए। बाद में उन्होंने मुझे यह पूछते हुए संदेश भेजा कि उन्हें कहाँ और कब देह त्याग करना चाहिए, एक असामान्य अनुरोध। मैंने उनसे कहा कि यदि उन्होंने मंगोलिया में देह त्यागा तो उचित होगा, पर यह भी लोसर (तिब्बती नव वर्ष) से पहले करना ठीक न होगा। और ऐसा ही हुआ। नव वर्ष के कुछ दिनों में उनका निधन हो गया। मैंने समदोंग रिनपोछे को अपने प्रतिनिधि के रूप में उनके शरीर के आगे खाता (तिब्बती दुपट्टा) रखने के लिए भेजा। परन्तु इसके पहले कि वह पहुँचते, ओज़र रिनपोछे ने मुझे संदेश भेजा कि वहाँ लाल बोधिचित्त के संकेत थे और वे पूछ रहे थे कि उन्हें क्या करना चाहिए। मैंने कहा 'प्रतीक्षा'। समदोंग रिनपोछे समय पर पहुंचे, दुपट्टा रखा और रिनपोछे ने अपना ध्यान समाप्त किया।"
"इस प्रार्थना में उनके पिछले जीवन का संदर्भ है और इसमें यह कामना है कि वे मंगोलिया में शिक्षा देने में सक्षम एक विद्वान के रूप में लौटें। इसमें कहा गया है कि त्रिरत्न के आशीर्वाद की शक्ति से और पलदन ल्हमो की सहायता से, हम आपके लौटने की प्रार्थना करते हैं।"
परम पावन ने समझाया कि उनका जन्म सीलिंग और कुमबुम के पास हुआ था और उस क्षेत्र के लोग दलाई लामा की तुलना में जेचुन दम्पा के अधिक निकट थे। उनके (परम पावन) माता पिता उनके करीब थे। बाद में ल्हासा में, जब वह अपनी माँ से मिलने गए तो उन्होंने जेसुन दम्पा को उनके साथ पाया। उन्होंने कहा कि वह तब से उन्हें जानते हैं और वह लोक और धर्म के कल्याण के लिए समर्पित थे।
"मंगोलिया के एक बार फिर मुक्त होने के बाद, मैंने औपचारिक रूप से पहचानकर उन्हें मान्यता दी और आसन पर विराजित किया, उस समय वे भारत के मध्य प्रदेश (आजकल छत्तीसगढ़) में निवास कर रहे थे। अन्य बातों के साथ साथ वे दोलज्ञल प्रश्न पर विशेष रूप से मेंरे समर्थक और सहायक थे। जोनंगपा और दूसरों के अनुरोध पर, अपनी मैत्री का स्मरण करते हुए उनकी शीघ्र वापसी के लिए मैंने इस प्रार्थना की रचना की।"
"हममें से वे सब जो गौतम बुद्ध के अनुयायी हैं, उनकी व्यापक और गहन शिक्षाएँ आज २१वीं सदी में अब प्रासंगिक और आवश्यक हैं", परम पावन ने ज़ोर दिया। "करुणा और अहिंसा सभी धर्मों के संदेश में आम हैं, पर जो बौद्ध धर्म को अनूठा बनाता है वह प्रतीत्यसमुत्पाद का दृष्टिकोण है। जे रिनपोछे ने कहा कि कोई भी बुद्धि रखने वाला इसमें गलती नहीं निकाल सकता।"
बुद्ध के पद चिह्नों पर चलते हुए संन्यासियों ने गृहस्थ जीवन छोड़ दिया है। चार आर्य सत्य के संदर्भ में आध्यात्मिक अभ्यास करते हुए उन्हें इस अवसर को सार्थक बनाने की आवश्यकता है। दुख का अनुभव होता है, लेकिन इसके निरोध का भी शिक्षण दिया जाता है। यदि आप दूसरों का अहित करेंगे तो आप दुखी होंगे, यदि आप उनकी सहायता करें तो आप सुख का अनुभव कर सकते हैं। ये परिणाम क्रमश: एक अनुशासनहीन और एक अनुशासित मन के परिणाम के रूप में उत्पन्न होते हैं।
"कोई सत्व दुख नहीं चाहता। अज्ञान के कारण दुख उत्पन्न होता है, जो सही ज्ञान के विकास द्वारा दूर किया जा सकता है। 'शाक्यमुनि बुद्ध मैं तुम्हें श्रद्धा अर्पित करता हूँ, जिसने पवित्र धर्म की शिक्षा दी, और वह सिखाया जो आपने देखा। आपका अनुशीलन करते हुए मैं सभी कमियों को दूर करने में सक्षम हो पाऊँगा।"
ऐसा नहीं है कि बुद्ध ने यह सिखाया है और हम उसका पालन कर रहे हैं, हमें इसे समझने के लिए कारण का प्रयोग करना होगा। कुछ लोग केवल विश्वास पर अपनी साधना को आधारित करते हैं, पर एक बौद्ध को अपना विश्वास का कारण पर आधारित करना चाहिए।
"२१वीं सदी में बौद्ध धर्म में रुचि लेने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। उदाहरण के लिए हम सुनते हैं कि चीन में ४०० करोड़ बौद्ध हैं। एक बात जो मुझे अजीब जान पड़ती है वह मैत्रेय के बारे में बात और उनसे बोधगया में मिलने की प्रार्थना, जबकि हमारे पास पहले से ही शाक्यमुनि बुद्ध का शिक्षण है। भविष्य में कुछ अन्य शिक्षण की माँग की तुलना में, हमारे पास पहले से ही जो शिक्षा है क्या हमें उसका लाभ नहीं उठाना चाहिए?"
परम पावन ने लमरिम ग्रंथों का उल्लेख व्यावहारिक नियम पुस्तिका के रूप में करने की प्रवृत्ति की ओर ध्यान आकर्षित किया जैसे मानो पाँच शास्त्रीय ग्रंथ केवल सैद्धांतिक सिद्धांत के बारे में हैं। उन्होंने कहा कि हम अधिकांश लोगों को यह कहते हुए नहीं सुनते कि 'मैं माध्यमक का अध्ययन कर रहा हूँ और उसे अभ्यास में डाल रहा हूँ।' यह इस तथ्य के बावजूद है कि इसका उद्देश्य आत्म केन्द्रित व्यवहार और आंतरिक अस्तित्व को लेकर हमारी भ्रांति का शमन करना है। वास्तव में, लमरिम का मुख्य केन्द्र बोधिचित्त का विकास है।
परम पावन ने पुनः 'मंजुश्री मुखागम' का पाठ प्रारंभ किया, इस अवलोकन के साथ कि ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ तुम मृत्यु से बच सकते हो।' उन्होंने कहा कि शक्तिशाली, प्रसिद्ध लोग सभी मृत्यु के शिकार हुए हैं। मृत्यु अपरिहार्य है, पर उसका समय अनिश्चित है। कल या अगला जीवन, यह अनिश्चित है कि पहले क्या आएगा। केवल एक ही वस्तु जो सहायक होगी वह पुण्य संभार है। जब वे 'दक्षिण परम्परा' की ओर मुड़े तो वैसा ही था ः 'ऐसा कुछ निश्चित नहीं है कि कल हमारी मृत्यु नहीं होगी। 'द्रुत मार्ग' में यह सलाह थी कि इस जीवन से कैसे लाभान्वित हुआ जाए।
जब वे 'मंजुश्री मुखागम' में त्रिरत्न शरण गमन की व्याख्या पर पहुँचे, तो उन्होंने उल्लेख किया कि १३वें दलाई लामा ने फबोंगखा रिनपोछे को एक पत्र द्वारा आड़े हाथ लिया था जिसमें उन्होंने लिखा 'मैं सोचता हूँ कि एक रौद्र सांसारिक आत्मा का समर्थन लेते हुए (लाभ सुरक्षित करने के लिए) विशेष रूप से शरण गमन उपदेशों का विरोध करता है।'
मध्याह्न के भोजन के बाद, परम पावन से मिलने सुमित्रा कुलकर्णी आई, जो महात्मा गांधी की पोती है उन्होंने गांधी के लिए और भारत की सदियों पुरानी अहिंसा और अंतर - धार्मिक सद्भाव के प्रति अपनी सराहना व्यक्त की। जब उन्होंने सुझाव दिया कि आज इन विचारों को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है वह विशेष रूप से युवा पीढ़ी के लोगों के बीच तो वह पूरे दिल से सहमत हुई, उनसे यह कहते हुए कि उनकी दृष्टि में महत्त्वपूर्ण कारक अहिंसा और सत्य हैं। उन्होंने भविष्य में एक अंतर्धार्मिक बैठक बुलाने की आशा का उल्लेख किया और इच्छा व्यक्त की कि वे भी उसमें सम्मिलित हो। उन्होंने उत्तर दिया, "यदि मैं जिंदा रही तो मैं आऊँगी।" उन्होंने कहा, "हाँ हाँ पर यदि आप न भी हों पर आप आत्मा रूप में आएँ और उन्होंने उत्तर दिया मेरी आत्मा तो पहले से ही आपके साथ है।"
जब उनके प्रवचन प्रारंभ शुरू करने का समय आया तो परम पावन उन्हें मंच पर ले गए और श्रोताओं से उनका परिचय कराया। उनके संक्षिप्त भाषण, जिसमें उन्होंने परम पावन से िमलने के आने पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की और उनके नेतृत्व को वह कितना मूल्यवान समझती हैं बताया, का प्रत्युत्तर तालियों की गड़गड़ाहट थी।
परम पावन ने तीन लमरिम ग्रंथों से पढ़ना बनाए रखा और वे एक स्थान पर 'प्रलाप' के अर्थ को स्पष्ट करने रुके। उन्होंने कहा कि आज कल साधारण तौर पर लोग फिल्मों, क्लिप और छवियों को देखने, संगीत सुनने और विभिन्न उपकरणों द्वार बेकार की बातें करने में अत्यधिक समय लगा रहे हैं जिससे निश्चित रूप से ध्यान भंग होता है। उन्होंने सलाह दी यदि किसी सूचना से संबंधित हो, जैसे समाचार आदि तो वह उपयोगी हो सकता है अन्यथा इस प्रकार की गतिविधियाँ प्रलाप की श्रेणी में गिरती प्रतीत होती है।